जिसकी लाठी उसकी भैंस, भारत की जांच एजेंसियों की कुछ ऐसी होती हालत, संविधान से नहीं सत्ता पक्ष से वफ़ादारी की खाते हैं क़सम!
वैसे तो किसी भी जांच एजेंसियों के बारे में कुछ लिखा जाना ऐसा ही है जैसे आप चलकर जांच एजेंसियों का शिकार बनना चाहते हैं, लेकिन क़लम में अगर सच की सियाही हो तो फिर लिखने वाले में हिम्मत अपने आप आ जाती है और वह दुनिया की बड़ी से बड़ी ताक़त से भिड़ जाता है। पहले जब जांच एजेंसियां स्वतंत्र थीं और संविधान का पालन करते हुए काम करती थीं तो हर ग़लत काम करने वालों के दिल में डर होता था।
हालिया कुछ वर्षों में भारत की केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने जिस तरह ग़ैर-बीजेपी दलों के नेताओं और मंत्रियों के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ी है, उसने इन दोनों एजेंसियों के राजनीतिक इस्तेमाल के आरोपों को मज़बूती दी है। भारत के विपक्षी दल साझा स्वर में केंद्र की मोदी सरकार पर इन एजेंसियों के राजनीतिक दुरुपयोग के आरोप लगा रहे हैं। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारुक़ अब्दुल्लाह, कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे सांसद अभिषेक बनर्जी और उनके क़रीबी मंत्री पार्थ चटर्जी की गिरफ्तारी जैसे मामलों ने विपक्ष को इन एजेंसियों के साथ केंद्र और बीजेपी को कठघरे में खड़ा करने का मौक़ा दे दिया है। विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को मंगलवार को भेजे एक पत्र में आरोप लगाया है कि मोदी सरकार जांच एजेंसियों का 'निरंतर और तीव्र दुरुपयोग' कर रही है। विपक्षी दलों का सवाल है कि क्या यह महज़ संयोग है कि इन दोनों एजेंसियों की सबसे ज़्यादा सक्रियता उन मामलों में ही देखने को मिल रही है जिसमें ग़ैर-बीजेपी दलो के नेता या मंत्री शामिल हैं? क्या यह भी संयोग है कि पार्टी बदल कर बीजेपी का दामन थामने वाले दाग़ी नेताओं के मामले में इन एजेंसियों की धार कुंद पड़ जाती है?
हाल के कई मामलों को ध्यान में रखें तो विपक्ष के आरोपों में दम नज़र आता है। तो फिर विपक्ष इन एजेंसियों के ख़िलाफ़ अदालत की शरण में क्यों नहीं जाता? बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के एक नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, "इन एजेंसियों को विपक्ष के ख़िलाफ़ हथियार बनाने की केंद्र व बीजेपी की मंशा किसी से छिपी नहीं है। लेकिन इस मामले में अदालतें भी कुछ काम नहीं कर सकतीं। इसलिए उनकी शरण में जाना समय की बर्बादी है। इसका मुक़ाबला राजनीतिक तौर पर ही किया जा सकता है।” केंद्रीय एजेंसियों के रडार पर रहे नेताओं की सूची काफ़ी लंबी है। कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारुक़ अब्दुल्लाह से मनी लांड्रिंग मामले में पूछताछ के बाद उनके ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर की गई है। नेशनल हेराल्ड मामले में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी से लंबी पूछताछ हो चुकी है। इसके ख़िलाफ़ बीते सप्ताह कांग्रेस और साझा विपक्ष ने बयान जारी कर केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाया था। तीन साल पहले राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख शरद पवार को भी ईडी ने समन भेजा था। हाल में शिवसेना सांसदों संजय राउत और अनिल परब से भी पूछताछ की गई है। आम आदमी पार्टी (आप) के सत्येंद्र जैन मनी लॉन्ड्रिंग के एक मामले में ईडी की हिरासत में हैं।
जहां तक बंगाल की बात है तो यहां लंबे अरसे से चिटफंड और कोयला खनन घोटाले की जांच के बावजूद सीबीआई या ईडी किसी विपक्षी नेता के ख़िलाफ़ अब तक कोई ठोस सबूत नहीं पेश कर सकी है। कथित कोयला खनन घोटाले में ईडी के बुलावे पर कई बार दिल्ली की दौड़ लगा चुके मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे सांसद अभिषेक बनर्जी कहते हैं, "ईडी और सीबीआई बीजेपी की सबसे बड़ी सहयोगी बन गई हैं। राजनीतिक रूप से हमारा मुक़ाबला करने में नाकाम रहने के कारण पार्टी राजनीतिक हथियार के तौर पर इन एजेंसियों का इस्तेमाल कर रही है।” कई राजनीतिक टीकाकारों का मोदी सरकार पर यह भी आरोप है कि उसने महाराष्ट्र में ईडी और सीबीआई का डर दिखाकर ही एकनाथ शिंदे और उनके समर्थक विधायकों को उदय ठाकरे से अलग किया है। तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता कुणाल घोष कहते हैं, "दिलचस्प बात यह है कि बंगाल के शारदा और रोज़ वैली चिटफंड घोटाले में शामिल बीजेपी के नेताओं को अब तक एक बार भी पूछताछ के लिए नहीं बुलाया गया है। यह अपने आप में केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग का सबूत है।”
इस बीच भारत के दस प्रमुख विपक्षी दलों ने मंगलवार को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को भेजे पत्र में सरकार पर केंद्रीय एजेंसियों को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने का आरोप लगाया है। उनका आरोप है कि असली मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने के लिए सरकार विपक्ष के ख़िलाफ़ एजेंसियों का इस्तेमाल कर रही है' पत्र में कहा गया है, "क़ानून को बिना किसी डर या उत्साह के लागू किया जाना चाहिए। लेकिन इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। मौजूदा समय में मनमाने ढंग से, चुनिंदा और बिना किसी औचित्य के कई विपक्षी दलों के प्रमुख नेताओं के ख़िलाफ़ इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। इस अभियान का एकमात्र उद्देश्य देश के संवैधानिक प्रतिष्ठानों को नष्ट करना और भाजपा से वैचारिक व राजनीतिक रूप से लड़ने वाली ताक़तों को कमज़ोर करना है। यह हमारे देश के लोगों का ध्यान आवश्यक वस्तुओं की क़ीमतों में वृद्धि, बढ़ती बेरोज़गारी और आजीविका के नुक़सान और जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति की बढ़ती असुरक्षा की उनकी सबसे ज़रूरी दैनिक चिंताओं से ध्यान हटाने के लिए भी किया जा रहा है।" इस साझा पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में आरजेडी, शिवसेना, डीएमके, एमडीएमके, टीआरएस, नेशनल कॉन्फ्रेंस, सीपीआई, सीपीएम, आरएसपी समेत कई विपक्षी दलों के नेता शामिल हैं।
वहीं बीजेपी के जिन नेताओं के दामन पर दाग़ और भ्रष्टाचार में शामिल होने के आरोप लग चुके हैं उनमें कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बी।एस। येदियुरप्पा के अलावा असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के अलावा कर्नाटक के ही रेड्डी बंधु शामिल हैं। रेड्डी बंधुओं पर तो 16 हज़ार करोड़ से ज़्यादा के खनन घोटाले में शामिल होने का आरोप है। हिमंता बिस्वा सरमा के कांग्रेस में रहते बीजेपी ने उन पर अमेरिकी कंपनी लुइस बर्गर को ठेके सौंपने के आरोप लगाए थे। उनके बीजेपी में शामिल होते ही यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया। बहुचर्चित व्यापम घोटाले का अब कहीं ज़िक्र भी नहीं होता। सीबीआई इस मामले में शिवराज सिंह चौहान को क्लीन चिट दे चुकी है। इसी तरह उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक और शिवसेना नेता नारायण राणे के खिलाफ भी कई मामले थे। लेकिन राणे के बीजेपी में शामिल होने के बाद अब उनके ख़िलाफ़ मामलों की चर्चा नहीं होती। राजनीतिक विश्लेषको का मानना है कि "दोनों केंद्रीय एजेंसियों की हाल की कार्यवाहियों से साफ़ है कि बीजेपी और ग़ैर-बीजेपी दलों के नेताओं के ख़िलाफ़ जांच के मामले में उनका रवैया अलग-अलग है। यही वजह है कि विपक्ष इन एजेंसियों के कामकाज को राजनीतिक बदले की कार्यवाही का आरोप लगा रहा है।” (RZ)
* लेखक के विचारों से पार्स टूडे का सहमत होना आवश्यक नहीं है*
हमारा व्हाट्सएप ग्रुप ज्वाइन करने के लिए क्लिक कीजिए
हमारा टेलीग्राम चैनल ज्वाइन कीजिए