उत्तर प्रदेश में क़ानून का नहीं धर्म का राज है! बिना जुर्म के लखनऊ का नाबालिग़ बच्चा 11 महीनों तक रहा जेल
(last modified Sun, 22 Nov 2020 06:52:36 GMT )
Nov २२, २०२० १२:२२ Asia/Kolkata
  • उत्तर प्रदेश में क़ानून का नहीं धर्म का राज है! बिना जुर्म के लखनऊ का नाबालिग़ बच्चा 11 महीनों तक रहा जेल

भारतीय पुलिस के लिए वैसे तो यह कहावत बिल्कुल फिट बैठती है कि, "जिसकी लाठी उसकी भैंस" जिस प्रदेश में जिसकी सरकार होती है उस प्रदेश की पुलिस सब कुछ वैसा ही करती है जैसा सत्ता पक्ष चाहता है। लेकिन इन सबके बीच लोगों को एक उम्मीद रहती थी, देश की अदालत से और यह देखा जाता था कि न्यायलय आम जनता की उम्मीदों पर पूरा खरा उतरता था। लेकिन अब धीरे-धीरे पुलिस वाली कहावत में भारतीय न्यायपालिका भी शामिल होती जा रही है।

इसका उदाहरण आप इसी से ले लिजिए कि एक ओर सत्ता पक्ष का गुणगान करने वाले कथित पत्रकार अर्णव गोस्वामी को छुट्टी वाले दिन सुप्रीम कोर्ट में बिना किसी देरी किए ज़मानत मिल जाती है तो वहीं सैकड़ों की संख्या में पूरे भारत में जेलों में बंद पत्रकार अभी भी इंसाफ़ के इंतेज़ार में बैठे हैं और यह इंतेज़ार लगतार लंबा होता जा रहा है, क्योंकि सत्ता पक्ष नहीं चाहता कि वे जेल से बाहर आएं। अब बात करें सीएए और एनआरसी के विरोध करने वालों की तो इसका जवाब शायद ही कोई दे पाए कि क्या भारतीय संविधान में आम जनता के पास विरोध-प्रदर्शन का अधिकार नहीं दिया गया है और अगर दिया गया है तो फिर क्यों शांतिपूर्ण ढंग से इस विवादित और पक्षपातपूर्ण क़ानून का विरोध करने वालों के ख़िलाफ़ भारत की मोदी सरकार और राज्यों की भारतीय जनता पार्टी वाली सरकारें चुन-चुन कर बदले वाली कार्यवाही कर रही हैं। हद तो तब ख़त्म हो जाती है जब नाबालिग बच्चों को भी नहीं बख़्शा जाता है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के ठाकुरगंज का रहने वाला एक नाबालिग़ बच्चा केवल इसलिए 11 महीने जेल में रहा क्योंकि वह एक धर्म विशेष का था। जबकि उसने तो सीएए और एनआरसी के विरोध-प्रदर्शनों में भी भाग नहीं लिया था। 11 महीनों तक अपने धर्म की वजह से जेल में रहा पर न प्रदेश की पुलिस ने उसे बाहर आने दिया और न ही न्यायपालिका ने, क्योंकि सत्ता पक्ष चाहता था कि वह जेल में ही रहे।

लखनऊ के ठाकुरगंज के रहने वाले 15 वर्षीय हुसैन (बदला हुआ नाम) को सीएए विरोधी प्रदर्शन में शामिल होने के आरोप में 25  दिसंबर 2019 को उनके दोस्त के घर से गिरफ़्तार किया गया था। हुसैन का कहना है कि उन्होंने सीएए विरोधी किसी भी प्रदर्शन में कभी हिस्सा नहीं लिया था। हुसैन ने लगभग 11 महीने बाद छह नवंबर को घर का पका हुआ खाना खाया। हुसैन बीते छह नवंबर को जेल से रिहा होकर घर लौटे हैं। हुसैन ने कहा, ‘हम ग़रीब हैं,  हमारे पास अधिक संसाधन नहीं है। मेरे पिता प्लंबर हैं, जो मुश्किल से ही हमारी स्कूल फीस भर पाते हैं और किताबें ख़रीद पाते हैं।’ हुसैन ने कहा, ‘मुझे मेरे माता-पिता को फोन करने की इजाज़त नहीं दी गई थी। उन्हें मेरी गिरफ़्तारी की सूचना तक नहीं दी गई।’ वहीं पुलिस ने हुसैन पर 14 गंभीर धाराएं लगाईं थी। ठाकुरगंज पुलिस थाने में दर्ज की गई एफ़आईआर में हुसैन के ख़िलाफ़ दंगा करने से लेकर स्वेच्छा से लोक सेवक को चोट पहुंचाना और आपराधिक साज़िश रचने जैसे अपारध के तहत धाराएं लगाईं गईं थी। उस पर आपराधिक क़ानून संशोधन अधिनियम 1932 की धारा 7 के तहत भी मामला दर्ज किया गया।

ध्यान योग्य बात यह है कि इस मामले में पहली ज़मानत याचिका 15 सितंबर को किशोर न्याय अदालत में दायर की गई थी, लेकिन उसे इस आधार पर ख़ारिज कर दिया कि अगर नाबालिग़ को रिहा कर दिया गया तो वह समाज के लिए ख़तरा हो सकता है। यह आदेश उस समय आया, जब हुसैन पहले ही आठ महीने जेल में काट चुका था। हुसैन की वकील असमा इज़्ज़त ने इस संबंध में कहा कि, यह आदेश मनमाना था क्योंकि जेल में रहने के बजाय नाबालिग़ को माता-पिता के साथ रखना ज़्यादा सही रहता। मामले में अगली ज़मानत याचिका 29 सितंबर 2020 को ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश की अदालत में दायर की गई। ज़मानत का आदेश 13 नवंबर को आया। अधिवक्ता असमा का कहना है कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने सत्ता में बैठे लोगों के इशारे पर पिछले साल दिसंबर महीने सीएए के विरोध में हुए प्रदर्शन के दौरान हिंसा के लिए मनमाने ढंग से मुस्लिम युवकों को निशाना बनाकर उन्हें गिरफ़्तार किया है। उन्होंने कहा, ‘इन गिरफ़्तारियों को लेकर पुलिस पर बहुत दबाव था। राज्य सरकार को ख़ुश करने के लिए पुलिस ने मनमाने ढंग से गिरफ़्तारियां कीं। पांच दिनों तक लखनऊ में मुस्लिम समुदाय के लोगों को बिना सबूत के गिरफ्तार किया जाता रहा।’ असमा ने कहा कि यही वजह है कि अब पुलिस गिरफ़्तार किए गए लोगों के ख़िलाफ़ चार्जशीट को प्रमाणित करने में असफल रह रही है। इसका सीधा कारण यह है कि पुलिस ने दबाव में गिरफ़्तारियां तो कर लीं लेकिन उनके पास न कोई गवाह है और न ही किसी भी तरह का सबूत।

वह बताती हैं कि हुसैन के मामले में भी यह हुआ पुलिस के पास किसी भी तरह का कोई सबूत नहीं था कि हुसैन किसी अपराधिक गतिविधि में शामिल था। असमा ने बताया कि 11 महीने जेल में रहने की वजह से हुसैन के मानसिक स्वास्थ पर भी काफ़ी असर पड़ा है। उन्होंने एक अन्य आरोपी नाबालिग़ का उदाहरण दिया, जो अदालत में सुनवाई के दौरान भावुक हो गया था। असमा ने कहा कि कुछ नाबालिग़ों को ग़ैर-क़ानूनी रूप से ज़िला जेलों में भी भेजा गया है। उन्होंने कहा कि हुसैन उन नाबालिग़ों में से एक है, जिसे बिना किसी अपराध के जेल भेजा गया। इस प्रक्रिया में नाबालिग़ का एक शैक्षणिक साल भी बर्बाद हो गया। हुसैन ने कहा, ‘वह कहते हैं कि अब मुझे दाख़िला नहीं दिया जाएगा क्योंकि मेरा रजिस्ट्रेशन नहीं हो पाया है।’ हुसैन ने लखनऊ के राजकीय हुसैनाबाद इंटर कॉलेज से मैट्रिक की परीक्षा पास की है। जब उसका परीक्षा परिणाम आया, तब वह किशोर सुधार केंद्र में ही था। हालांकि, हुसैन का एक साल बर्बाद हो गया है लेकिन उसे उम्मीद है कि वह एक दिन नौसेना में शामिल होगा।

कुल मिलाकर अब समय आ गया है कि जब भारत के न्यायप्रेमी, लोकतंत्र पर विश्वास रखने वाले और गंगा-जमुनी संस्कृति को अपना सबकुछ समझने वाले आगे आएं और देश के संवैधानिक संस्थानों की ख़राब होती साख को बचाने के लिए एक साथ मिलकर प्रयास करें। भारत गांधी का देश है, भारत की आज़ादी में हर धर्म के लोगों का ख़ून मिला हुआ है, इस देश पर हर भारतीय का समान अधिकार है। सत्ता में बैठे लोग देश को जोड़ने के बारे में सोचें देश को बांटने और देश की पहचान को मिटाने का साहस न करें। इसी जगह पर प्रसिद्ध भारतीय शायर राहत इंदौरी का वह शेर याद आता है कि,

जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे

किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है

सभी का ख़ून शामिल है यहां की मिट्टी में

किसी के बाप का हिन्दुस्तान थोड़ी है। (RZ)

(लेखक के विचारों से पार्सटुडे हिन्दी का सहमत होना ज़रूरी नहीं है)

 

टैग्स