Mar १२, २०२३ १५:३४ Asia/Kolkata

अरबी भाषा के एक प्रसिद्ध विश्लेषक और टीकाकार ने ईरान-सऊदी समझौते के इस क्षेत्र पर सकारात्मक प्रभावों के बारे में आशा व्यक्त करते हुए इस बात पर जोर दिया कि अरब और इस्लामी देशों की निकटता और तेहरान-रियाज़ संबंधों को पुनर्जीवित किए जाने का अर्थ, क्षेत्र में पश्चिमी और अमरीकी साम्राज्यवाद का अंत है।

ईरान और सऊदी अरब ने शुक्रवार, 19 मार्च को चीन में 7 साल बाद राजनयिक संबंधों को बहाल करने के लिए जिस समझौते पर हस्ताक्षर किए, उसका व्यापक रूप से अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मीडिया, क्षेत्र के विशेषज्ञों और विश्लेषकों में काफ़ी असर देखने को मिल रहा है जबकि विशेषज्ञ इस समझौते के आयामों और क्षेत्रीय मानचित्रों और समीकरणों पर इसके प्रभावों की समीक्षा कर रहे हैं।  

इस संबंध में अरब जगत के प्रमुख विश्लेषक और राय अलयौम समाचार पत्र के संपादक अब्दुलबारी अतवान ने अपने एक लेख में लिखा है कि ईरान और सऊदी अरब के बीच शुक्रवार को एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए। यह समझौता एक रणनीतिक "सुनामी" थी जिसका अर्थ था फ़ार्स की खाड़ी, क्षेत्र और मध्य पूर्व पर अमेरिका और इंग्लैंड के 80 वर्षीय आधिपत्य का आसन्न अंत और फ़ारस की खाड़ी और मध्यपूर्व के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण रणनीतिक खिलाड़ी के रूप में चीन की भूमिका को मज़बूत करना है।

अब्दुलबारी अतवान लिखते हैं कि इस समझौते के माध्यम से, सऊदी अरब अपने लिए सैकड़ों अरब डॉलर बचा सकता है और इसका उपयोग अपनी शक्ति को मज़बूत करने और भविष्य की परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए कर सकता है जिसके माध्यम से वह एक वित्तीय और आर्थिक और शायद सैन्य शक्ति बनने का प्रयास कर रह चाहता है, इसके साथ ही रियाज़ अपनी आय के स्रोतों को बढ़ा सकता है और तेल पर निर्भरता को कम कर सकता है।

अब्दुल बारी अतवान आगे लिखते हैं कि तेहरान और रियाज़ के बीच संबंधों का पुनरुद्धार, क्षेत्र और दुनिया में अमेरिका और इस्राईल की कमजोरी और इस गठबंधन की परियोजनाओं के पतन की शुरुआत के सबसे बड़े संकेतों में से एक है जिनमें से सबसे स्पष्ट फ़ार्स की खाड़ी के शासकों और समृद्ध देशों के नेतृत्व में एक केंद्र की स्थापना है। यह समझौता उन सभी योजनाओं और साज़िशों को भी नष्ट कर देता है जो अमरीकियों और ज़ायोनियों ने ईरान के ख़िलाफ़ तैयार की हैं।

उन्होंने यह साज़िश यह दावा करते हुए तैयार की है कि ईरान इस क्षेत्र के लिए ख़तरा है, ताकि इस तरह से वे सैन्य और सुरक्षा के मामले में अरब देशों से धन उगाही कर सकें और उन पर हावी होने की अपनी योजनाओं पर काम कर सकें।

अरब भाषी विश्लेषक आगे लिखते हैं कि ज़ायोनी शासन पिछले 20 वर्षों से ईरान की चिंता और दुःस्वप्न के साथ जी रहा था और उसने अपनी सभी सुविधाओं और संबंधों और दुनिया में यहूदी लॉबियों का इस्तेमाल ईरान का सामना करने और इस देश को कमज़ोर करने तथा अरब देशों को मिलाकर ईरान के सामने एक दीवार बनान की कोशिश की है। ज़ायोनी शासन ने भी ईरान के परमाणु कार्यक्रम को नष्ट करने की योजना तैयार की थी, लेकिन ये सभी प्रयास विफल रहे और हम देखते हैं कि ईरान ने सऊदी अरब के साथ अपने संबंधों को फिर से शुरू किया और एक ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए जो दोनों देशों के बीच सहयोग को सक्रिय करता है। (AK)

 

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