अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में क्यों नहीं पनप सकता दाइश
(last modified Mon, 23 Nov 2020 11:25:02 GMT )
Nov २३, २०२० १६:५५ Asia/Kolkata
  • अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में क्यों नहीं पनप सकता दाइश

अफगानिस्तान और पाकिस्तान में दाइश के विस्तार की राह में कुछ बड़ी बाधाएं  हैं। पहली रुकावट यह है कि इन इलाक़ों की अपनी संस्कृति है और वह विदेशियों को पसंद नहीं करते।

दूसरी रुकावट मत का अंतर है। इन इलाक़ों के लोग देवबंदी और हनफी हैं और कट्टरपंथी सलफी और वहाबी विचारधारा से उनका बहुत मतभेद है। तीसरी रुकावट यह है कि तालिबान, अलक़ायदा और सेना के मध्य टकराव से जो हालात पैदा होते हैं उनकी वजह से दाइश का विस्तार इन इलाक़ों में सीमित हो सकता है। बाधाओं की यह चारों क़िस्में अफगानिस्तान और पाकिस्तान में समान रुप से मौजूद है और अगर देखा जाए तो इसे दाइश के मार्ग की बड़ी बाधा समझा जा सकता है। पाकिस्तान में हालात काफी हद तक अफगानिस्तान के हालात से मिलते जुलते हैं। बस इस अंतर के साथ  कि कट्टरपंथी और चरमपंथी गुटों का पाकिस्तान में प्रभाव अफगानिस्तान से भी अधिक है। यही नहीं यह गुट अफगानिस्तान के गुटों से अधिक खतरनाक भी हैं और इसी लिए पाकिस्तान में सांप्रदायिक दंगों की अधिक आशंका है।

 

दाइश की विचारधारा जेहादी तकफीरी वहाबियत से आयी है जबकि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सक्रिय कट्टरपंथी गुट, देवबंदी और हनफी मत रखते हैं और केवल जेहाद के बारे में वह वहाबियों का नज़रिया रखते हैं लेकिन अन्य बहुत से विषयों में उनकी अपनी विचारधारा है। दाइश खिलाफत का दावा पेश करके स्वयं को उस विचारधारा का वारिस समझता है जिसमें पूरी दुनिया में शासन करने की इच्छा है लेकिन अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सक्रिय कट्टरपंथी गुटों का सब से बड़ा  लक्ष्य, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में इस्लामी सत्ता की स्थापना है और उनके मन में अन्य इ्सलामी देशों पर क़ब्ज़े का कोई विचार नहीं है। 

यदि ध्यान दिया जाए तो यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि दाइश विचारधारा के क्षेत्र में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के कट्टरपंथी गुटों से भी काफी दूर है और यह चीज़, अफगानिस्तान में दाइश के विस्तार की राह में बड़ी रुकावट बन सकती है। यहां तक कि अफगाानिस्तान में जो लोग मुस्लिम ब्रदरहुड की विचारधारा रखते हैं  वह भी मध्यमार्गी धड़े से प्रभावित हैं और वह मुस्लिम ब्रदरहुड के कट्टरपंथी धड़े से दूर हैं। अस्ल में दक्षिण एशिया में सुन्नी मुसलमानों में देवबंदी हनफी मत के मानने वाले अधिक हैं जो विचारधारा के लिहाज़ से दाइश के विश्व भर में खिलाफत के नज़रिये से निकट नहीं हैं जबकि वहाबियत में  यह विचार पाया जाता है और वह इस्लाम के आरंभिक काल का हवाला देकर पूरी दुनिया में इस्लामी शासन की बात करते हैं लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान जैसे गुट, अपने लक्ष्यों को अफगानिस्तान की सीमा के भीतर ही रखते हैं। 

अफ़ग़ान सेना

 

हालांकि यह कोई व्यापक सिद्धान्त  नहीं है क्योंकि सऊदी अरब ने जिस तरह से पाकिस्तान में काम किया है और जिस तरह से बड़े पैमाने पर तकीफीरी विचार धारा का प्रचार करने वाले मदरसे खोले हैं उन्हें पूरी तरह से अनदेखा नहीं किया जा सकता। सऊदी अरब ने पाकिस्तान में जो भूमिका और माहौल तैयार किया है उसके बाद दाइश यह कोशिश कर रहा है कि अपनी विचारधारा से निकटता रखने वाले गुटों को स्वयं से निकट करे इसी लिए यह भी संभावना है कि दाइश अफगानिस्तान और पाकिस्तान में हनफी और देवबंदी मतों के मानने वालों के साथ उन बिन्दुओं पर चर्चा ही न करे जो उन्हें वहाबियत से अलग करते हैं और इस तरह से उनके निकट होने की कोशिश करे और जेहाद के संयुक्त मंच पर उन्हें अपने साथ लाने का प्रयास करे। 

अफगानिस्तान में राजनीतिक मामलों के विशेषज्ञ, मुस्लिम शीरज़ाद का कहना है कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में क्षेत्रीय व अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों की भूमिका को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। उनका मानना है कि कश्मीर को लेकर पाकिस्तान और भारत के बीच जो मतभेद है वह अफगानिस्तान को भी अपनी चपेट में ले लेगा इसके साथ वाशिंग्टन और मास्को के लिए भी अफगानिस्तान लगभग अखाड़ा ही बन चुका है और दोनों  देश एक दूसरे पर तालिबान और दाइश के समर्थन का आरोप लगाते हैं। इन हालात में वैचारिक दृष्टि से तीन प्रकार के मोर्चे दाइश के सामने डट सकते हैं क्योंकि दाइश उन तीनों के लिए खतरा है।  यह तीनों मोर्चे, अफगान सरकार और सेना, तालिबान और अलकायदा हैं। 

पाकिस्तान के क़बायली इलाक़ों के चरमपंथी

 

ज़ाहिर सी बात है अफगानिस्तान की सरकार और सेना इस देश में सुरक्षा की ज़िम्मेदार है और वह हर उस संगठन के खिलाफ लड़ेगी जो इस देश की सुरक्षा को नुक़सान पहुंचाना चाहेगा। तालिबान के खिलाफ अफगान सेना के युद्ध का यही कारण है और जब दाइश अफगानिस्तान को अपने तथाकथित खुरासान राज्य का एक इलाक़ा समझता है तो फिर अफगान सेना के लिए उसके खिलाफ युद्ध भी ज़रूरी है और वह यही कर रही है। यही वजह है कि अफगानिस्तान के उत्तर में और कुन्दूज़ प्रांत में जब दाइश ने सिर उभारा तो अफगान सेना ने तत्काल रूप से उसके खिलाफ अभियान चलाया जिसकी कमान इस देश के उप राष्ट्रपति जनरल दोस्तम ने स्वयं संभाली यह उस दशा में था कि जब अफगान सेना और तालिबान के बीच कई मोर्चों पर झड़पें भी जारी थीं।  

तालिबान भी कट्टरपंथी और सत्ता पर अधिकार करने की लालसा रखने वाला एक संगठन है। तालिबान जाति की दृष्टि से और धर्म की दृष्टि से भी एकाधिकार चाहने वाले पख्तूनों का संगठन है। कहते हैं कि अफगानिस्तान में युद्ध के लंबे होने का एक कारण तालिबान में एकाधिकार की भावना भी है और तालिबान में यह भावना इतनी अधिक है कि दाइश की नज़रों से भी न छुपी रह सकी यही वजह है कि दाइश की पत्रिका दाबिक़ के एक लेख में अफगानिस्तान में तालिबान और अलकायदा को एकाधिकार चाहने वाले और गैर इस्लामी संगठनों के रूप में दर्शाया गया है। 

दाइश ने तालिबान और अलक़ायदा पर यह आरोप लगाया है कि वह क़बाइली कानूनों को इस्लामी कानूनों पर प्राथमिकता देते हैं और धर्म का विरोध करते हैं इस लिए वह किसी क्षेत्र पर क़ब्ज़ा नहीं कर सकते, उन्होंने शियों पर हमले को भुला दिया और अंतरराष्ट्रीय सीमाओं में विश्वास रखते हैं। तालिबान और अलकायदा के बारे में दाइश के इस प्रकार के विचारों से पता चलता है कि इन दोनों मोर्चों में कितना मतभेद है। तालिबान को अच्छी तरह से मालूम है कि अगर दाइश को अफगानिस्तान में शक्ति मिल गयी तो फिर उनके लिए कोई जगह नहीं रहेगी। नंगरहार और फराह प्रान्तों में तालिबान और दाइश के समर्थकों के बीच जिस तरह की भयानक झड़पें हुई हैं उनसे यही बात साबित होती है। 

ज़ाहिर सी बात है सत्ता की लालसा रखने वाले दो संगठन एक ही क्षेत्र में नहीं रह सकते। इस लिए अफगानिस्तान में तालिबान और दाइश के बीच सत्ता का युद्ध ज़रूर होगा लेकिन जहां तक यह सवाल है कि दोनों में से किस का पलड़ा भारी रहेगा तो इस सवाल का जवाब, कई देशी व विदेशी कारकों और तत्वों पर निर्भर है। यही वजह है कि यहां तक कहा जा रहा है कि अगर अफगानिस्तान में दाइश का ज़ोर बढ़ा तो फिर तालिबान और अफगान सेना एक ही मोर्चे में आ सकती हैं। पाकिस्तान में भी तालिबान का यही हाल है। कट्टरपंथी गुटों में सत्ता की चाह बहुत अधिक होती है यही वजह है कि इन सब में आपस में भी खूब टकराव होता रहता है। 

अफगानिस्तान और पाकिस्तान में दाइश का एक अन्य शक्तिशाली प्रतिस्पर्धी अलकायदा है। इन दोनों के बीच प्रतिस्पर्धा इराक़ और सीरिया से ही शुरु हो चुकी थी। दाइश और अलकायदा के संबंध, तालिबान और दाइश के संबंधों से काफी अलग प्रकार के हैं। अलकायदा और दाइश में दोनों ही जेहादी तकफीरी विचारधारा के स्वामी हैं लेकिन इसके बावजूद दोनों में गहरे वैचारिक मतभेद हैं जिसकी मुख्य वजह सत्ता की लालसा और शक्ति है यही वजह है कि इराक़ में अलकायदा दाइश  से अलग हो गया था। भविष्य में भी नेतृत्व ही दाइश और अलक़ायदा के मध्य टकराव का मुख्य कारण बनेगा और यह टकराव दक्षिण एशिया में ही नहीं बल्कि पूरे इस्लामी जगत विशेषकर पश्चिमी एशिया और उत्तरी अफ्रीका में जारी रहेगा। अफगानिस्तान के नंगरहार राज्य के पूर्व सांसद ज़ाहिर क़दीर का कहना है कि आतंकवादी संगठन दाइश की यह कोशिश  है कि कभी अलक़ायदा का मुख्य ठिकाना रहे तोरा बोड़ा की पहाड़ियों को अफगानिस्तान में अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाए। 

अलकायदा के सदस्यों को  अपने संगठन से जोड़ने की दाइश की कोशिश की वजह से भी दोनों आतंकवादी संगठनों में दुश्मनी बढ़ रही है और यह भी स्पष्ट है कि अलकायदा और दाइश का विवाद शांतिपूर्ण तरीके से तो हल नहीं होने वाला बल्कि इसका फैसला दोनों में निर्णायक युद्ध से ही होगा। सीरिया में अबू मुहम्मद अलजौलानी और अबू बक्र बगदादी में जो मतभेद पैदा हुआा था उसकी वजह से  अलकायदा से जुड़े अन्नुस्रा फ्रंट से दाइश ने किनारा कर लिया था। यह विवाद भी अलकायदा और दाइश में नेतृत्व और अधिकार की लड़ाई का नतीजा कहा जाता है। दाइश और तालिबान का झगड़ा भी यही है। इन दोनों में भी नेतृत्व को लेकर विवाद है और यह एसा विवाद नहीं है जो आसानी से खत्म हो जाए क्योंकि नेतृत्व के विवाद के पीछे वैचारिक कारकों के अलावा व्यक्तिग भावनाएं भी हैं।