फ़्रांस में राष्ट्रपति चुनाव से लोगों का मोहभंग
फ़्रांस में राष्ट्रपति चुनावों के दूसरे दौर के आयोजन में अभी एक हफ़्ता बाक़ी है। लोग बड़ी संख्या में यहां चुनावों के विरोध में सड़कों पर हैं। प्रदर्शनकारी पहले चरण के चुनाव के नतीजों पर सवाल उठा रहे हैं। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि दूसरे चरण में पहुंचने वाले दोनों ही उम्मीदराव अक्षम हैं और वे किसी भी तरह से राष्ट्रपति पद संभालने के लिए योग्य नहीं हैं।
पहले चरण के चुनाव में मैक्रॉं 27.84 वोटों के साथ पहले नम्बर पर रहे, जबकि 23.15 वोटों के साथ दूसरे नंबर पर दक्षिणपंथी पार्टी नेशनल फ्रंट की नेता मरिन ले पेन रही हैं।
सबसे ध्यान योग्य बात यह है कि इस चुनाव में लोगों की भागीदारी बहुत ही कम रही है और सिर्फ़ 25.48 प्रतिशत लोगों ने ही अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। इससे पता चलता है कि पहले चरण के चुनाव में फ़्रांस की जनता को कोई दिलचस्पी नहीं थी और जो भी उम्मीदवार मैदान में वे लोगों के बीच लोकप्रिय नहीं हैं। आगामी 24 अप्रैल को होने वाले दूसरे चरण के चुनाव से पहले विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो चुका है।
चुनाव के इस माहौल में जहां अब तक इमैनुएल मैक्रों रूस-यूक्रेन युद्ध पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे थे। वहीं, ले पेन और उनकी पार्टी फ्रांस में बढ़ती महंगाई के मुद्दे पर लोगों का ध्यान खींचने की कोशिश कर रही थी। ओपिनियन पोल के मुताबिक़, इस चुनाव में मैक्रों की जीत की गुंजाइश 51 फीसद है। वहीं, मरिन ले पेन के जीतने की गुंजाइश 49 फीसद है।
फ्रांस में राष्ट्रपति चुनाव प्रक्रिया दूसरे देशों से कुछ अलग है। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि पहले राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों का चुनाव करते हैं। इसके बाद वोटिंग होता है। पहले चरण में यदि किसी उम्मीदवार को 50 फ़ीसदी या उससे ज्यादा मत नहीं मिलते हैं, तो दूसरे चरण के लिए वोटिंग होती है। दूसरे चरण में पहले चरण में अव्वल रहने वाले दो उम्मीदवारों के बीच मुक़ाबला होता है।
फ़्रांस में 2018 से ही राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों को लेकर विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है। लेकिन वर्तमान राष्ट्रपति मेक्रॉं ने लोगों मंहगाई और बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर कोई ध्यान नहीं दिया, बल्कि इसके बजाए हिजाब और मुसलमानों से जुड़े मुद्दों को ज़्यादा उछाला है।
इस संदर्भ में राजनीतिक टीकाकार मैगेलि देला सूदा का कहना हैः राष्ट्रपति चुनाव में लोग उम्मीदवारों के प्रति अपने ग़ुस्से का इज़हार कर रहे हैं। वास्तव में जनता की ज़रूरतों और मांगों, और राजनीतिक दलों और नेताओं की प्राथमिकताओं के बीच गहरी और बहुत चौड़ी खाई है। देश में ऊर्जा, खाद्य सामग्री की क़ीमतों में वृद्धि और ग़रीबों और अमीरों के बीच बढ़ती दूरी, किसी युद्ध की वजह से उत्पन्न नहीं हुई है।