नोबेल: शांति का पुरस्कार, या 'सॉफ्ट वॉर' का आवरण?
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नोबेल: शांति का पुरस्कार, या 'सॉफ्ट वॉर' का आवरण?
पार्स टुडे – वेनेजुएला की विपक्षी नेता 'मारिया कोरिना मचाडो' को 2025 का नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने ने राजनीतिक हलकों, अकादमिक जगत और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में व्यापक बहस छेड़ दी है।
नोबेल शांति पुरस्कार सैद्धांतिक रूप से मानवीय आदर्शों और वैश्विक शांति का प्रतीक होना चाहिए, लेकिन इस बार भी, पिछले कई वर्षों की तरह, यह एक राजनीतिक रंग लिए हुए है। कई विशेषज्ञ इसे शांति का चिन्ह नहीं, बल्कि वेनेजुएला के राष्ट्रपति निकोलस मादुरो की सरकार के खिलाफ पश्चिम के 'सॉफ्ट वॉर' का एक हिस्सा मानते हैं।
पार्स टुडे की रिपोर्ट के अनुसार, मारिया कोरिना मचाडो को 2025 का नोबेल शांति पुरस्कार ऐसे समय में दिया गया है, जब काराकास और वाशिंगटन के बीच संबंध सन् 2019 के बाद से सबसे अधिक तनावपूर्ण स्थिति में हैं। हाल के सप्ताहों में, अमेरिकी बलों ने मादक पदार्थों की तस्करी के खिलाफ लड़ाई के नाम पर कैरिबियन जलक्षेत्र में हमले और सैन्य अभ्यास किए हैं। मादुरो सरकार ने सैन्य आक्रमण की संभावना के प्रति चेतावनी दी है। इसी के साथ, अमेरिकी और यूरोपीय मीडिया ने वेनेजुएला सरकार के खिलाफ एक नए सिरे से प्रोपेगैंडा अभियान शुरू किया है।
ऐसे माहौल में, मचाडो जैसी शख्सियत, जिसने खुलकर वाशिंगटन के हस्तक्षेप का समर्थन किया है और बार-बार 'मादुरो सरकार को उखाड़ फेंकने की जरूरत' की बात कही है, को नोबेल शांति पुरस्कार देना, एक पूरी तरह से मानवीय कार्य मान पाना मुश्किल है।
जुलाई 2024 में क्षेत्रीय संस्थाओं की व्यापक निगरानी में हुए वेनेजुएला के राष्ट्रपति चुनाव के बाद, मचाडो ने अपने समर्थकों को आधिकारिक नतीजों को न मानने और सड़कों पर विरोध प्रदर्शन करने का आह्वान किया था। कुछ शहरों में ये विरोध प्रदर्शन हिंसक भी हो गए थे। अब ऐसी शख्सियत को शांति का पुरस्कार दिया जाना, यह सवाल खड़ा करता है कि क्या नोबेल समिति ने अपने इस फैसले से, व्यवहार में, एक स्वतंत्र देश की कानूनी व्यवस्था और राजनीतिक वैधता को कमजोर करने में मदद की है? जैसा कि नोम चॉम्स्की ने याद दिलाया है कि समकालीन दौर में नोबेल शांति पुरस्कार उन सरकारों के विपक्षों को वैधता प्रदान करने के एक उपकरण के रूप में बदल गया है, जो वाशिंगटन की नीति का पालन नहीं करते।
यह नोबेल शांति पुरस्कार के लिए पहली बार नहीं है कि उसे इस तरह की आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है। वर्ष 2009 में, "बराक ओबामा" की राष्ट्रपति पद की शुरुआत के केवल कुछ महीनों बाद, नोबेल समिति ने "अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को मजबूत करने के प्रयासों" के लिए उन्हें यह पुरस्कार देने की घोषणा की, जबकि अमेरिका उसी समय इराक और अफगानिस्तान दोनों मोर्चों पर युद्धों में उलझा हुआ था। वर्ष 1991 में, म्यांमार की "आंग सान सू ची" को भी यह पुरस्कार दिया गया, जो बाद में रोहिंग्या मुसलमानों के नरसंहार के प्रति अपनी चुप्पी के कारण एक विवादास्पद व्यक्ति बन गईं। ये उदाहरण दर्शाते हैं कि नोबेल चयन प्रक्रिया में वास्तविक शांतिप्रियता और प्रतीकात्मक राजनीति के बीच की सीमा दिन-ब-दिन और धुंधली होती जा रही है।
सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज (सीएसआईएस) के विश्लेषण से भी यही रुझान सामने आता है। इस थिंक टैंक के आंकड़ों के अनुसार, पिछले दो दशकों में नोबेल शांति पुरस्कार विजेताओं में से लगभग 70% का पश्चिमी राजनीतिक धाराओं से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध रहा है। इस संरचनात्मक समरूपता के कारण, कुछ पर्यवेक्षक नोबेल शांति पुरस्कार को वैश्विक आदर्शों का प्रतीक नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में सत्ता के तंत्र का एक हिस्सा मानते हैं। जैसा कि 'ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन' के विश्लेषण में भी स्पष्ट किया गया है कि हालांकि नोबेल समिति एक स्वतंत्र संस्था है, व्यवहार में यह पश्चिमी राजनीतिक और मीडिया विमर्श से प्रभावित होकर कार्य करती है और इसके निर्णय अक्सर पश्चिमी दुनिया की भू-राजनीतिक प्राथमिकताओं का प्रतिबिंब होते हैं।
वेनेजुएला के मामले में भी यही पैटर्न दोहराया गया है। पुरस्कार की घोषणा के तुरंत बाद मचाडो का "डोनाल्ड ट्रम्प" के साथ हालिया टेलीफोनिक संवाद, वाशिंगटन में विशिष्ट धाराओं के साथ उनके राजनीतिक समरूपता का संकेत था। इस बातचीत में ट्रम्प ने मचाडो को बधाई देते हुए उन्हें "लैटिन अमेरिका में आजादी की आवाज" करार दिया; काराकास और उसके सहयोगियों के लिए इस वाक्यांश का अर्थ सरकार परिवर्तन को वैधता प्रदान करने के अलावा कुछ नहीं है।
स्पेन के अखबार 'एल पाइस' ने देश के वामपंथी राजनीतिज्ञ 'पाब्लो इग्लेसियास' के हवाले से लिखा: अगर स्वतंत्र देशों की सरकारों के राजनीतिक विरोधियों को नोबेल शांति पुरस्कार दिया जाने लगे, तो वे इसे हिटलर को भी दे सकते थे! यहाँ तक कि यूरोपीय संघ के पूर्व विदेश नीति प्रमुख 'जोसेफ बोरेल' ने भी सतर्क टिप्पणी करते हुए कहा कि अंतरराष्ट्रीय संस्थान तभी अपनी विश्वसनीयता बनाए रख सकते हैं जब वे राजनीतिक खेलों में शामिल होने से बचते हैं।
वास्तविकता यह है कि 'सॉफ्ट वॉर' की संरचना में नोबेल शांति पुरस्कार एक रणनीतिक भूमिका निभा सकता है, विपक्ष को वैधता प्रदान करने से लेकर, जनता की राय जुटाने और स्वतंत्र सरकारों पर कूटनीतिक दबाव बनाने तक। इस ढाँचे के तहत, वाशिंगटन के लिए नोबेल शांति पुरस्कार रास्ते का अंत नहीं, बल्कि काराकास के खिलाफ बहुआयामी दबाव के एक नए चरण की शुरुआत है। काराकास के दृष्टिकोण से, यह पुरस्कार 'इतिहास का सबसे राजनीतिक नोबेल' और वेनेजुएला की आंतरिक एकता को कमजोर करने का एक प्रयास है। वहाँ की सरकारी मीडिया ने इसे 'सॉफ्ट कूप' परिदृश्य का एक हिस्सा करार दिया है। व्यापक स्तर पर जो चीज़ दिखाई दे रही है, वह है नोबेल के मूल दर्शन और उसकी वर्तमान भूमिका के बीच गहरी खाई।
यदि नोबेल शांति पुरस्कार अपनी नैतिक स्थिति बनाए रखना चाहता है, तो उसे राजनीतिक संघर्षों में हस्तक्षेप करने और विवाद के केवल एक पक्ष को वैधता प्रदान करने से बचना चाहिए। अन्यथा, ओस्लो पीस इंस्टीट्यूट के 'हेनरिक उर्डल' के कहने के अनुसार, नोबेल शांति के प्रतीक से एक राजनीतिक उपकरण बन जाएगा।
अब यह देखना होगा कि लंबे समय में लैटिन अमेरिका के लिए इस फैसले के क्या परिणाम होंगे। क्या यह पुरस्कार वेनेजुएला में राजनीतिक संवाद और सह-अस्तित्व को मजबूत करेगा, या इसके विपरीत, आंतरिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देगा और टकराव की संभावना को और बढ़ा देगा? जो भी जवाब हो, एक बात स्पष्ट है: असली शांति राजनीतिक पुरस्कारों से नहीं, बल्कि राष्ट्रीय संप्रभुता का सम्मान, सामाजिक न्याय और राष्ट्रों के बीच समान संवाद से प्राप्त होती है। यदि नोबेल शांति पुरस्कार इन सिद्धांतों से दूर हो गया, तो यह शांति का ताज नहीं रह जाएगा, बल्कि शांति के वास्तविक अर्थ में वैश्विक विश्वास की जड़ों पर कुल्हाड़ी का वार होगा। (AK)
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