Jun १२, २०१६ १५:४३ Asia/Kolkata

सूरए नूह मक्के में नाज़िल हुआ और इसकी आयतों की संख्या 28 है।

सूरए नूह मक्के में नाज़िल हुआ और इसकी आयतों की संख्या 28 है। यह सूरा जैसा कि इसके नाम से भी ज़ाहिर है हज़रत नूह अलैहिस्सलाम के जीवन की घटनाएं बयान करता है। हज़रत नूह का उल्लेख क़ुरआन के कई सूरों में हैं जिनमें सूरए शोअरा, मोमेनून, आराफ़, अंबिया और हूद का नाम लिया जा सकता है। सूरए नूह की आयतों में बड़े पाठदायक बिंदु हैं। यह आयतें मोमिन इंसानों को सीख देती हैं कि यदि प्रेमपूर्ण स्वर में तार्किक बात पेश की जाए तो शत्रु को भी अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है।

 

 यह सीख मिलती है कि ईश्वर के मार्ग में संघर्ष करने वाले को कभी थकना नहीं चाहिए। लोगों को अच्छे लक्ष्य की ओर बुलाना है उन्हें प्रोत्साहन देने और सचेत करने की मिश्रित शैली अपनानी चाहिए। हठी नास्तिकों को चेतावनी भी दी गई है कि यदि उन्होंने सत्य के सामने सिर न झुकाया तो उन्हें दर्दनाक अंजाम का सामना करना पड़ सकता है।

 

क़ुरआन की कुछ आयतों में पैग़म्बरों की कहानियां बयान की गई हैं जो अलग अलग कालखंडों में इस दुनिया में भेजे गए तथा उन्होंने मानवता का भविष्य तय करने में निर्णायक भूमिका निभाई। हज़रत नूह भी एसे ही पैग़म्बर या ईश्वरीय दूत थे। वह ऊलुल अज़्म पैग़म्बरों में गिने जाते हैं यानी उन पैग़म्बरों में हैं जो अलग शरीयत और ग्रंथ लेकर आए।

 

सूरए नूर की शुरूआती आयतों में ईश्वर कहता हैः हमने नूह को उनकी क़ौम की ओर से भेजा कि वह अपनी क़ौम को ईश्वरीय प्रकोप के आ पहुंचने से पहले सचेत करें, उन्होंने कहा कि हे मेरी क़ौम के लोगो मैं तुम्हारे लिए खुला हुआ चेतावनी देने वाला हूं।

 

चेतावनी देने का अर्थ है अवगत कराना और बड़े ख़तरे की ओर से चौकन्ना करना। यह उस एलार्म की भांति है जो लोगों को हमले के समय दिया जाता है ताकि लोग सुरक्षित ठिकानों में छिप जाएं। ईश्वरीय दूत नास्तिकों को डराते थे कि उनके अन्याय बर्ताव और अनेकेश्वरवादी विचार बहुत बड़ा ख़तरा हैं जो उन्हें मिट सकते हैं अतः मौक़ा हाथ से निकल जाने से पहले अत्याचार और नास्तिकता से मुक्ति पा लें।

 

हज़रत नूह के ज़माने में धरती पर भ्रष्टाचार फैल गया था और लोग धर्म तथा न्याय से विमुख हो गए थे और मूर्तियों की पूजा करने लगे थे। वर्गों के बीच दूरी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। शक्तिशाली लोग कमज़ोरों का हक़ मार लेते थे और उनका शोषण करते थे। इन परिस्थितियों में ईश्वर ने हज़रत नूह को धरती पर भेजा और उन्हें शरीयत और ग्रंथ दिया ताकि वह लोगों को ग़लत रास्ता छोड़कर सही धर्म अपनाने और ईश्वर की उपासना करने का निमंत्रण दें। हज़रत नूह अपनी क़ौम के बीच गए और उन्होंने लोगों से कहा कि ईश्वर की उपासना करो और उसकी ओर ध्यान केन्द्रित रखो और मेरा अनुसरण करो। यदि तुम एसा करोगे तो ईश्वर तुम्हारे पापों को क्षमा कर देगा और तुम्हारी मृत्यु को एक निर्धारित समय के लिए टाल देगा। लेकिन जब मौत का निर्धारित समय आ जाएगा तो फिर देरी नहीं होगी अगर तुम समझ सको।

 

सूरए नूह की आयत नंबर चार यह बताती है कि इंसान की आयु की समाप्ति दो तरह की होती है। एक अंत वह है जो टल सकता है और दूसरा अंत वह है कि मौत के और टलने की उसमें संभावना नहीं है। जीवन का वह अंत जो टल सकता है एसा होता है कि यदि इंसान ग़लत काम कर रहा है तो मौत का समय और जल्दी आ सकता है जबकि भले कर्म करने वालों की मौत टल सकती है। अलबत्ता व निश्चित अंत जब आ जाता है तो फिर मौत को और नहीं टाला जाता।

 

इस बिंदु से यह बात समझ में आती है कि गुनाह से इंसान की आयु घट जाती है और इसके विपरीत भले कर्मों  जीवन लंबा होता है। चूंकि पापों का शरीर और आत्मा पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है अतः इस बात समझ में आने वाली है।

 

इस्लामी इतिहास में है कि इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से रवायत है कि पापों के कारण मरने वालों की संख्या स्वाभाविक रूप से मौत पाने वालों की संख्या से अधिक है इसी प्रकार नेक कामों के कारण लंबी आयु पाने वालों की संख्या प्राकृतिक कारणों से लंबी उम्र पाने वालों से अधिक है।

 

आयत नंबर पांच से लेकर बाद की कुछ आयतों तक हज़रत नूह की उस शिकायत का उल्लेख है जो उन्होंने तंग आकर अपने पालनहार से की। उन्होंन कहा कि हे पालनहार मैंने अपनी क़ौम को दिन रात तेरे मार्ग की दावत दी लेकिन मेरी इस दावत का असर उनके और दूर होने के अलावा कुछ नहीं निकला। जब भी मैंने उन्हें दावत दी कि ईमान लाएं ताकि तू उनके पापों को क्षमा कर दे तो उन्होंने अपने कानों में उंगली डाल ली और अपना कपड़ा अपने सिर पर डाल लिया और विरोध पर ही अड़े रहे और अकड़ का शिकार रहे। चूंकि किसी भी व्यक्ति को कोई निमंत्रण देने के लिए ज़रूरी है कि उसके भीतर इस निमंत्रण से कोई समरूपता मौजूद हो ताकि इस दावत का उस पर असर पड़े तो अचरज की बात नहीं है कि वह हृदय जो अभी तत्पर नहीं है उन पर इस दावत का उल्टा असर पड़े। दूसरे शब्दों में इस तरह कहना चाहिए कि सत्य के शुत्रु जब ईश्वर के भेजे गए दूतों की दावत सुनते हैं तो उसका विरोध करते हैं और यही विरोध उन्हें ईश्वर से और दूर कर देता है तथा उनके अस्तित्व में नास्तिकता की जड़ें और मज़बूत कर देता है ।

 

हज़रत नूह की क़ौम के लोग अपने कानों में उंगलियां डाल लेते थे ताकि उन्हें हज़रत नूह की आवाज़ सुनाई न दे। वह अपने सिर पर अपने कपड़े ओढ़ लेते थे ताकि हज़रत नूह की बात ही न सुनाई दे। शायद उनकी यह कोशिश भी होती थी कि हज़रत नूह पर उनकी नज़र भी न पड़े।

 

वैसे यह बड़ी हैरत की बात है कि इंसान सत्य का इतना दुशमन हो जाए उसके बारे में कुछ सुनने पर भी तैयार न हो। इस सूरे की आयत नंबर सात कहती है कि उनकी इस दुशमनी का कारण उनका घमंड और उनकी अकड़ थी। यह चीज़ें लोगों को सत्य  से दूर कर देती थीं। इसके बावजूद हज़रत नूह ने अपनी बहुत लंबी उम्र लोगों को सत्य के मार्ग पर बुलाने में बिता दी और थके नहीं।

 

हज़रत नूह ईश्वर की सेवा में अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहते हैं कि हे पालनहार मैंने उन्हें सार्वजनिक रूप से भी निमंत्रण दिया और खुली सभा में ऊंची आवाज़ में उन्हें ईमान के मार्ग की ओर बुलाया। इतना ही नहीं उन्हें खुलकर और गुप्प रूप से दोनों तरीक़े से निमंत्रण दिया। उन्हें ईमान और एकेश्वरवाद के बारे में बताया लेकिन किसी भी चीज़ का इस अड़ियल क़ौम पर असर न हुआ।

 

इंसान अगर असत्य के मार्ग पर इतना आगे निकल जाए कि उसके अस्तित्व में पाप  और भ्रष्टाचार जड़ पकड़ ले तो यह उसके स्वभाव का भाग बन जाता है। एसी स्थिति में ईश्वरीय दूतों का निमंत्रण भी उसपर कोई असर नहीं करता। इस सूरे की आयतें हज़रत नूह के अदभुत संयम और अद्वितीय सहनशीलता को दर्शाती हैं। कहते हैं कि हज़रत नूह ने साढ़े नौ सौ साल तक संघर्ष किया तब भी बहुत कम लोग ईमान लाए। वह अपनी क़ौम के लोगों को शुभसूचना देते थे कि यदि पाप और अनेकेश्वरवाद छोड़ दो तो ईश्वर अपनी कृपा के द्वार तुम पर खोल देगा। आयत नंबर दस  से बारह तक हज़रत नूह की दुआ का उल्लेख है कि मैंने अपनी क़ौम के लोगों से कहा कि अपने ईश्वर से क्षमा मागो वह बहुत क्षमाशील है ताकि आसमान से तुम्हारे लिए सतत वर्षा और बरकतें भेजे और तुम्हारी धन तथा औलाद से मदद करे और तुम्हारे लिए बाग़ उगाए और नहरें उत्पन्न करे।

 

इसके बाद हज़रत नूह ईश्वर की महानता की निशानियां बयान करते हैं और इस बात पर हैरत जताते हैं कि इंसान क्यों इन निशानियों को देखने के बाद भी सत्य का इंकार करता है।

 

वह कहते हैं तुम्हें क्या हो गया है ईश्वर की महानता से नहीं डरते। जबकि उसने कोई चरणों में तुम्हारी रचना की। क्या तुम नहीं देखते कि ईश्वर ने किस तरह एक के ऊपर एक सात आसमान पैदा किए और उनके बीच चंद्रमा को प्रकाश और सूर्य को प्रकाशमान दीपक बनाया। ईश्वर ने तुम्हें वनस्पति की तरह ज़मीन से उगाया और उसी धरती में फिर वापस ले जाएगा इसके बाद एक बार फिर तुम्हें ज़मीन से निकालेगा। ईश्वर ने तुम्हारे लिए धरती को फर्श बनाया है ताकि उसके मार्गों पर चलो फिरो।

 

सातों आसमानों में अरबों खरबों सितारे जगमगा रहे हैं जिनमें कुछ हमारे सूर्य और चंद्रमा से भी अधिक प्रकाशमय हैं। लेकिन हमारे जीवन पर जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है वह यही सूर्य और चंद्रमा है जो हमें प्रकाश देते हैं। आयत नंबर 16 में सूरह को दीपक और चंद्रमा को प्रकाश कहा गया है। क्योंकि सूर्य का प्रकाश उसके भीतर से निकलता है जिस प्रकार दीपक का प्रकाश निकलता है जबकि चंद्रमा का प्रकाश उसका अपना नहीं है बल्कि वह सूर्य से प्रकाश प्राप्त करता है तथा दर्पण की भांति उसे प्रतिबिंबित करता है।

 

इन आयतों में इस बात का उल्लेख है कि ईश्वर ने ज़मीन को फ़र्श की तरह बिछाया है जिसमें तुम्हारे जीवन की ज़रूरत की सभी चीज़ें हैं। जबकि पहाड़ों के बीच में जो दर्रे और रास्ते बनाएं हैं उनसे तुम एक स्थान  से दूसरे स्थान पर जा सकते हो। हज़रत नूह ने अपनी पूरी ताक़त लगाकर क़ौम के लोगों को सही मार्ग पर लाने का प्रयास किया लेकिन अंत में वह निराश हो गए तो ईश्वर की बारगाह में उन्होंने नास्तिकों को दंडित करने की दुआ मांगी। हज़रत नूह ने कहा कि उन लोगों ने मेरी अवज्ञा की और उसका अनुसरण किया जिसने उन्हें औलाद और धन का घाटा पहुंचाने के अलावा कुछ नहीं किया। उनके मार्गदर्शकों ने बहुत बड़ा धोखा दिया और बहुत बड़े समूह को गुमराह कर दिया। हे पालनहार अत्याचारियों की गुमराही और बढ़ा दे।

 

अंततः हज़रत नूह की क़ौम अपने पापों के कारण पानी के तुफ़ान में डूब गई। यह सूरा इस दुआ के साथ समाप्त होता है कि हे पालनहार मुझे मेरे मां बाप को और जो भी ईमान लाकर मेरे घर में आ जाए और ईमान लाने वाले सभी पुरुषों और महिलाओं को क्षमा कर और अत्याचारियों को केवल तबाही दे।

 

 

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