ईश्वरीय वाणी-९०
सूरए जिन मक्के में नाज़िल हुआ और इसमें 28 आयतें हैं।
सूरए जिन मक्के में नाज़िल हुआ और इसमें 28 आयतें हैं। इस सूरे में मुख्य रूप से जिन नामक अदृश्य जीवों, पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर उनके ईमान, उनके बीच काफ़िर व मोमिन जिनों के अस्तित्व और कुछ अन्य विषयों के बारे में बात की गई है। ये बातें इस सूरे की 28 में से 19 आयतों में की गई हैं और उनमें जिनों के बारे में अधिकांश अंधविश्वासी बातों को ग़लत बताया गया है। इस सूरे की कुछ दूसरी आयतों में एकेश्वरवाद, प्रलय और ईश्वर के गुप्त ज्ञान जैसे विषयों की ओर संकेत किया गया है।
क़ुरआने मजीद की आयतों के अनुसार जिन ईश्वर की एक रचना है जिसे इंसान से पहले पैदा किया गया है। जिनों में सुनने, बात करने और तर्क पेश करने की क्षमता होती है। उनमें बुद्धि, समझ-बूझ, ज्ञान और सही व ग़लत को समझने की शक्ति होती है। वे मामलों की समीक्षा कर सकते हैं, उनके पास चयन का अधिकार होता है और उन पर भी दायित्व होते हैं। उनमें से कुछ ईमान वाले होते हैं तो कुछ काफ़िर। क़ुरआने मजीद सहित ईश्वरीय किताबों में जिनों को संबोधन का पात्र बनाया गया है और वे मनुष्य की ज़रूरत के कुछ कामों में उसकी मदद कर सकते हैं।
क़ुरआने मजीद की आयतों का अध्ययन करके बड़ी सरलता से यह बात समझी जा सकती है कि इंसान, जिनों से श्रेष्ठ प्राणी है क्योंकि सभी ईश्वरीय पैग़म्बरों को इंसान बना कर ही भेजा गया है। इसी प्रकार जिन, पैग़म्बरे इस्लाम पर, जो इंसान थे, ईमान लाए और उनका आज्ञापालन करते रहे। अलबत्ता क़ुरआने मजीद में इस अदृश्य जीव के बारे में जो कुछ कहा गया है वह, हर प्रकार के अंधविश्वास और अवैज्ञानिक बातों से दूर है लेकिन कुछ नादान व अज्ञानी लोगों ने इसकी अत्यंत ग़ैर तार्किक और अंधविश्वासी छवि बना दी है, इस प्रकार से कि जिन शब्द कहते ही लोगों के मन में कुछ अंधविश्वासी बातें आ जाती हैं। जैसे यह कि जिनों का शरीर बहुत विचित्र और उनका चेहरा भयावह होता है, या यह कि वे दूसरों को यातनाएं देते हैं।
यद्यपि जिनों का अस्तित्व निश्चित है लेकिन हम मनुष्य को उनकी जीवन शैली या उनकी वास्तविकता के बारे उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं पता जो क़ुरआने मजीद ने बताया है। संभव है कि इस संसार में कुछ अन्य प्रकार के भी जीव हों और हम अपनी सीमित इंद्रियों और कम ज्ञान के कारण उनके बारे में कुछ भी न जानते हों, जिस प्रकार से कि हमारी दुनिया में असंख्य रंग और आवाज़ें हैं लेकिन हम उनमें से बहुत कम को देखते और सुनते हैं।
क़ुरआने मजीद की व्याख्याओं में ईश्वर की ओर से इस सूरे के भेजे जाने के अनेक कारण बताए गए हैं जिनमें से एक के बारे में हम आपको संक्षेप में बता रहे हैं। इतिहास में है कि एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ताएफ़ क्षेत्र के उकाज़ नामक बाज़ार की ओर गए और उन्होंने वहां मौजूद लोगों को इस्लाम की ओर आमंत्रित किया लेकिन किसी ने उन्हें सकारात्मक उत्तर नहीं दिया। वापसी में वे एक ऐसे स्थान पर पहुंचे जिसे जिनों की वादी कहा जाता था। उस रात वे वहीं ठहरे और देर रात तक क़ुरआने मजीद की तिलावत करते रहे। जिनों के एक गुट ने क़ुरआन की आयतें सुनीं और ईमान ले आए। इसके बाद वे इस्लाम के प्रचार के लिए अपने लोगों के पास लौट गए।
सूरए जिन की पहली आयत में इस घटना की ओर इस प्रकार संकेत किया गया है। (हे पैग़म्बर!) कह दीजिए कि मुझे ईश्वर का विशेष संदेश (वहि) प्राप्त हुआ है कि जिनों के एक गुट ने (क़ुरआन) सुना, फिर उन्होंने कहा कि हमने एक विचित्र क़ुरआन सुना है। उन्होंने क़ुरआने मजीद को विचित्र कथन बताया क्योंकि क़ुरआन शाब्दिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टि से आश्चर्यचकित करने वाला है। इसके अलावा उसका आकर्षण और प्रभाव भी असाधारण है।
जिनों ने क़ुरआने मजीद की आयतें सुनने के बाद कहा कि यह क़ुरआन सभी का परिपूर्णता की ओर मार्गदर्शन करता है अतः हम इस पर ईमान ले आए और हम कभी भी किसी को अपने पालनहार का समकक्ष नहीं बनाएंगे। और यह कि हमारे पालनहार की महानता अत्यन्त उच्च है और उसने अपने लिए न तो कोई पत्नी बनाई और न ही सन्तान। इसके बाद उन्होंने कहा कि अब हमें इस बात का विश्वास हो गया है कि हमारे पूर्वज जो, ईश्वर के लिए समकक्ष, पत्नी या संतान में विश्वास रखते थे, सत्य के मार्ग से हट गए थे और ईश्वर के बारे में अनुचित और सत्य से दूर बातें किया करते थे। अगर हमने दूसरों की इन बातों को बिना किसी तर्क के मान लिया था तो उसका कारण यह था कि हम यह नहीं सोचते थे कि जिनों और मनुष्य में इतना साहस होगा कि वे ईश्वर के बारे में झूठ बोलें लेकिन अब हम इन दावों के झूठ को समझ चुके हैं और सत्य समझने के बाद उस पर ईमान ले आए हैं।
सूरए जिन की आठवीं और नवीं आयतों में इस बात का उल्लेख है कि पैग़म्बरे इस्लाम के आगमन और उनकी आसमानी व ईश्वरीय किताब के नाज़िल होने के बाद संसार में अनेक परिवर्तन आए जैसे जिनों द्वारा छिप कर फ़रिश्तों की बात सुनने पर प्रतिबंध लग गया। ईमान वाले जिन भी इस बात की ओर संकेत करते हैं और कहते हैं और हम आकाश के निकट हुए तो उसे सशक्त पहरेदारों और उल्काओं (के तीरों) से भरा हुआ पाया। और हम उसमें बैठने के स्थानों में (आसमानी ख़बरें) सुनने के लिए बैठा करते थे किन्तु अब कोई छिप कर सुनना चाहेगा तो वह अपने लिए घात में लगी एक उल्का पाएगा।
क़ुरआने मजीद के प्रख्यात व्याख्याकार अल्लामा मुहम्मद हुसैन तबातबाई इस संबंध में कहते हैं कि इस आयत में आकाश से तात्पर्य, जो फ़रिश्तों का स्थान है, एक अलौकिक संसार है जो इस भौतिक दुनिया से उच्च है। इसी प्रकार छिप कर बातें सुनने के लिए इस आकाश से जिनों व शैतानों के निकट होने और उनकी ओर उल्काएं फेंने जाने का मतलब यह है कि वे फ़रिश्तों के संसार के निकट होना चाहते हैं ताकि सृष्टि के रहस्यों और भविष्य की घटनाओं के बारे में जानकारी प्राप्त कर लें लेकिन वे फ़रिश्ते अपने अलौकिक तेज की किरणों से, जिन्हें सहन करने की शक्ति शैतानों में नहीं है, उन्हें दूर कर देते हैं।
उल्लेखनीय है कि अज्ञानता के काल में कुछ ईसाई व यहूदी धर्मगुरू जिनों से गुप्त सूचनाएं प्राप्त करके लोगों को सही मार्ग से भटकाया करते थे। बहरहाल ईमान वाले जिन इस वास्तविकता को समझ गए थे कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के आगमन के बाद फ़रिश्तों की बातें गुप्त रूप से सुनने पर प्रतिबंध, मनुष्यों के मार्गदर्शन और अंधविश्वास की समाप्ति की भूमिका है। वस्तुतः यह एक अंधकारमय युग की समाप्ति और एक नए व प्रकाशमयी युग के आरंभ की शुभ सूचना थी।
एक अन्य बिंदु यह है कि जिनों में भी मनुष्य की तरह ही विभिन्न प्रकार के गुट हैं। उनमें से कुछ सद्कर्मी व परोपकारी और कुछ अन्य दुष्ट व दुराचारी हैं। इस सूरे की 11वीं आयत में क़ुरआने मजीद उनकी ज़बान से कहता है। और यह कि हममें से कुछ लोग अच्छे है और कुछ लोग उससे निम्नतर हैं और हम विभिन्न मार्गों पर हैं। इस आयत से यह स्पष्ट होता है कि इंसानों की तरह ही जिनों को भी स्वेच्छा से चयन का अधिकार है और उनमें भी मार्गदर्शन प्राप्त है। ईमान वाले जिन दूसरों को सचेत करते हुए कहते हैं। और यह कि हम यह (भी) जान गए हैं कि हम न धरती में कहीं जाकर ईश्वर के नियंत्रण से निकल सकते है और न आकाश में कहीं भाग कर उसके नियंत्रण से निकल सकते हैं।
अतः जब न वर्चस्व का कोई मार्ग है और न ही भागने का कोई रास्ता तो फिर ईश्वर के आदेश के समक्ष नतमस्तक होने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं है और कोई भी उसके न्याय की परिधि से नहीं निकल सकता। यहां पर जिन कहते हैं कि जब हमने (क़ुरआन की) मार्गदर्शन (की बात) सुनी तो उस पर ईमान ले आए। तो जो कोई अपने रब पर ईमान लाएगा, उसे न तो किसी हक़ के मारे जाने का भय होगा और न किसी अत्याचार का क्योंकि जिसने जो भी छोटा-बड़ा कर्म किया होगा उसे उसका पूरा पूरा प्रतिफल मिलेगा।
सूरए जिन की 14वीं और 15वीं आयतों में ईमान वाले जिन कहते हैं। और यह कि हममें कुछ मुस्लिम हैं और कुछ अत्याचारी हैं। तो जिन्होंने इस्लाम अपनाया उन्होंने भलाई और सूझ-बूझ का मार्ग चुन लिया है। और वे लोग जो सही मार्ग से हटे हुए (और अत्याचारी) हैं तो वे नरक का ईंधन हैं। इन आयतों में ध्यान योग्य बिंदु यह है कि इनमें मुसलमानों को अत्याचारियों के मुक़ाबले में पेश किया गया है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि जो चीज़ मनुष्य को अत्याचार से रोकती है वह ईमान है वरना एक ईमान रहित व्यक्ति अत्याचार में ग्रस्त हो कर ही रहता है। इसी के साथ इस बात की ओर भी संकेत है कि वास्तविक ईमान वाला व्यक्ति वह है जो कभी भी अत्याचार नहीं करता।
सूरए जिन की 25वीं से लेकर 27वीं आयत तक में इस वास्तविकता की ओर संकेत किया गया है कि ईश्वर का ज्ञान असीम है। क़ुरआने मजीद कहता है कि प्रलय का दिन आएगा और उस दिन काफ़िरों व अपराधियों को उनके किए की सज़ा मिलेगी। इस सवाल के जवाब में कि यह वादा कब व्यवहारिक होगा? क़ुरआने मजीद कहता है। (हे पैग़म्बर!) कह दीजिए कि मैं नहीं जानता कि जिस चीज़ का तुमसे वादा किया गया है वह निकट है या मेरे पालनहार ने उसके लिए (लम्बी) अवधि निर्धारित की है। वही ग़ैब अर्थात अपने विशेष ज्ञान का जानने वाला है और वह अपने इस ज्ञान से किसी को अवगत नहीं करता सिवाए उन रसूलों के जिसे उसने चुन लिया हो।
उल्लेखनीय है कि ईश्वर के इस विशेष ज्ञान के बारे में दो तरह की आयतें हैं। कुछ आयतों में इस ज्ञान को ईश्वर से विशेष बताया गया है और कहा गया है कि किसी और के पास यह ज्ञान नहीं हो सकता। इन आयतों के अनुसार ईश्वर ने इस ज्ञान से इस लिए किसी को अवगत नहीं कराया है ताकि बंदे आगे की घटनाओं से अवगत न हों और उनकी संपूर्ण परीक्षा ली जा सके।
दूसरे प्रकार की आयतों में कहा गया है कि ईश्वर के प्रिय बंदे, किसी सीमा तक ग़ैब के ज्ञान से अवगत होते हैं और ईश्वर ने अपने ख़ास पैग़म्बरों को इस ज्ञान के एक भाग से अवगत कराया है। सैद्धांतिक रूप से वहि के रूप में ईश्वर का गुप्त संदेश जो पैग़म्बरों के पास आता था वह एक प्रकार से ग़ैब का ज्ञान ही है। इसके अतिरिक्त कुछ हदीसों से पता चलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम और इमामों को भी ग़ैब के ज्ञान की किसी हद तक जानकारी थी। उदाहरण स्वरूप पैग़म्बरे इस्लाम ने मूता नामक युद्ध के दौरान जाफ़र इब्ने अबी तालिब और कुछ अन्य लोगों की शहादत की ख़बर मदीने के लोगों को उसी समय दी थी जब वे शहीद हुए थे।