Jun १८, २०१६ १५:३१ Asia/Kolkata

वर्तमान समय में सबसे ज़्यादा जो विषय पूरी दुनिया में लोगों के बीच चर्चित हैं उनमें पर्यावरण और उसके सामने मौजूद चुनौतियों का विषय भी है।

वर्तमान समय में सबसे ज़्यादा जो विषय पूरी दुनिया में लोगों के बीच चर्चित हैं उनमें पर्यावरण और उसके सामने मौजूद चुनौतियों का विषय भी है। पर्यावरण, जैसा कि इसके नाम से ज़ाहिर है, मानव जाति की ज़रूरत को पूरा करने वाला स्रोत और हर प्राणी के जीवन का आधार है किन्तु आज इस ईश्वरीय अनुकंपा की बहुत अधिक अनदेखी की जा रही है। दुनियाभर में पर्यावरण के नुक़सान पहुंच रहा है और इसके आंकड़े बहुत ही चिंताजनक हैं।

 

 यही कारण है कि दुनिया के ज्यादातर देश, और अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय संगठनों ने इस संबंध में विशेष रूप से ध्यान देना शुरु किया है। इस विषय के महत्व के मद्देनज़र पर्यावरण को बचाओ शीर्षक के तहत हमने एक कार्यक्रम श्रंख्ला शुरु की। इस कार्यक्रम श्रंख्ला में पर्यावरण के हर एक तत्व और पर्यावरण को पहुंचने वाले ख़तरों की समीक्षा करेंगे। इस उम्मीद के साथ कि आपको हमारा यह प्रयास पसंद आएगा।                   

पर्यावरण में वे सभी परिवेश शामिल हैं जहां जीवन है। बाह्य भौतिक तत्वों के समूह और जीवित प्राणियों की एक साथ क्रिया से पर्यावरण बनता है जिसका सभी चीज़ों के विकास और व्यवहार पर असर पड़ता है। दूसरे शब्दों में धरती पर हवा, पानी, वायुमंडल, मिट्टी, वनस्पति और मनुष्य सहित प्राणियों जैसे प्राकृतिक तत्वों के समूह को पर्यावरण कहते हैं।

 

 यह भी हो सकता है कि विभिन्न देशों द्वारा पर्यावरण के निश्चित तत्वों को दी जा रही अहमियत के मद्देनज़र, इन देशों में पर्यावरण का अर्थ भिन्न हो सकता है। मिसाल के तौर पर जिस देश में समुद्र के पानी और शिकार का विषय विशेष महत्व रखता है, उस देश में पर्यावरण को इन तत्वों के मद्देनज़र परिभाषित किया जाता है। इसी तरह कजिस देश में जंगल और चारागाहों को अहमियत दी जाती है उस देश में पर्यावरण की परिभाषा में जंगल और चारागाह को महत्व दिया जाता है किन्तु पर्यावरण की परिभाषा जिस रूप में हो उसमें इस बिन्दु पर ध्यान देना ज़रूरी है कि मानव जीवन इस तरह पर्यावरण पर निर्भर है कि अगर पर्यावरण न हो तो मानव जीवन के बाक़ी रहने की कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि पर्यावरण की तबाही धरती से मानव जाति की समाप्ति का कारण बनेगी। वास्तव में इंसान के बिना पर्यावरण बाक़ी रह सकता है लेकिन पर्यावरण के बिना मानव जाति बाक़ी नहीं रह सकती।

 

पर्यावरणविद् धरती के परिवेश को चार भागों में बांटते हैं। लीथोस्फ़ेयर, ज़मीन पर मौजूद मिट्टी और पत्थर को कहते हैं। हाइड्रोस्फ़ेयर ज़मीर पर मौजूद पानी जो लगभग 71 फ़ीसद ज़मीन की सतह को ढांके हुए है। एटमॉस्फ़ेयर, वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसों का समूह और अंत में बायोस्फ़ेयर है जिसमें पानी, हवा मिट्टी और पत्थर में मौजूद सभी जीवित प्राणी हैं। इसके अलावा सूर्य का वजूद भी बहुत अहम है। धरती सूरज की 70 फ़ीसद किरणों को अवशोषित करती है।

 

 इस प्रकाश का एक प्रतिशत भाग वनस्पतियां और शैवाल, फ़ोटोसिन्थेसिज़ प्रक्रिया के तहत अवशोषित करती हैं जबकि 30 प्रतिशत सूरज का प्रकाश प्रतिबिंबित होता है। अगर ज़मीन पर सूरज का प्रकाश न पहुंचे तो कोई भी जीव ज़मीन पर जीवित नहीं बचेगा। ज़मीन के विभिन्न भाग अलग अलग प्रकार के इको सिस्टम से संपन्न हैं जिनसे मिलकर धरती का पर्यावरण बना है किन्तु पर्यावरण की परिभाषाओं में जिस बिन्दु को अहमियत दी गयी है वह प्रकृति के साथ मानव जाति का व्यवहार है। प्रकृति में सभी प्राकृतिक, जैविक व ग़ैर जैविक तत्व शामिल हैं हालांकि पर्यावरण को मानव जाति व प्रकृति के एक दूसरे पर प्रभाव के मद्देनज़र मानव जाति के दृष्टिकोण से परिभाषित किया गया है।

 

खेद के साथ कहना पड़ता है कि मनुष्य ने पर्यावरण की प्राकृतिक प्रक्रिया को जाने-अनजाने में बदल दिया है। 2001 की आर्थिक व विकास संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, आज दुनिया में पर्यावरण के सभी तत्व मानव जाति की गतिविधियों से प्रभावित हैं। ख़ास तौर पर पिछली शताब्दी में उद्योग व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आश्चर्यजनक उपलब्धियों के ज़रिए लालची इंसान ने किसी भी कालखंड की तुलना में बीसवीं शताब्दी में सबसे ज्यादा प्रकृति को नुक़सान पहुंचाया यही कारण है कि पिछली शताब्दी को पर्यावरण संकट की शताब्दी कहा गया है।

 

बीसवीं शताब्दी में पहला और दूसरा विनशाकारी विश्व युद्ध, इन जंगों के बाद हथियारों की न रुकने वाली होड़, अनेक परमाणु धमाके, अनियंत्रित जनसंख्या में वृद्धि, तेज़ औद्योगिक विकास, प्राकृतिक स्रोतों का कम होना और पर्यावरण को दूषित करने वाली गतिविधियां, पिछली शताब्दी में इंसान की विनाशकारी गतिविधियों में शामिल हैं। यही कारण है कि पर्यावरणविद इंसान को धरती को नुक़सान पहुंचाने व दूषित करने के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार समझते हैं। यूं तो इंसान संस्कृति में प्रगति व विकास का दावा करता है किन्तु उसने उस परिवेश को दूषित कर दिया है जिसमें वह रहता है।

 

 पर्यावरण के दुरुपयोग के कारण आज पूरी दुनिया के सामने जो समस्याएं हैं वे इस प्रकार हैं, धरती का बढ़ता तापमान, पर्यावरण में ओज़ोन की परत को नुक़सान, जंगल की समाप्ति, मरुस्थलीय भूमि में वृद्धि, उपजाऊ मिट्टी का बंजर होना, मीठे पानी के स्रोतों का कम होना, मिट्टी का कटाव, पेस्टिसाइड के इस्तेमाल में वृद्धि और इन सबसे बढ़ कर पर्यावरण में प्रदूषण।         

        

संयुक्त राष्ट्र द्वारा किए गए शोध में जिसके नतीजे को ‘पर्यावरण, मानव समृद्धि और पर्यावरण विविधता’ शीर्षक के तहत रिपोर्ट में पेश किया गया, इस वास्तविकता की पुष्टि की गयी है। इस रिपोर्ट में आया है कि इंसान ने पिछले 50 साल में दुनिया में जैविक स्रोतों की विविधता को जो नुक़सान पहुंचाया है, वह इतिहास के किसी भी कालखंड की तुलना में ज़्यादा है। अगर इस प्रक्रिया को रोका न गया तो इंसान दुनिया में अपने मूल हितों को खो देगा।

 

 इस वक़्त दुनिया में लगभग 5 अरब 30 करोड़ आबादी, अपने जीवन यापन व खाद्य पदार्थ के लिए समुद्र, महासागर और अपने आस-पास की प्रकृति पर निर्भर है जबकि पिछले कुछ साल के दौरान इंसान के क्रियाकलापों के परिणाम में कुछ क्षेत्रों में पानी में रहने वाले प्राणियों के स्रोत 9 फ़ीसद कम हो गए हैं। दुनिया की लगभग 70 फ़ीसद आबादी, प्राकृति से मिलने वाले पारंपरिक जैविक स्रोतों के ज़रिए जीवन यापन करती है जिससे 21वीं सदी में इंसान के जीवन में प्राकृतिक चक्र की अहमियत का पता चलता है।

 

इस बात में शक नहीं कि पर्यावरण प्रदूषण समकालीन इंसान के सामने मौजूद सबसे महत्वपूर्ण चुनौतियों में से एक है। यह विषय इसलिए बहुत अहम है क्योंकि जीवन को ख़तरे में डालने वाले चिन्हे स्पष्ट हो चुके हैं जिससे मौजूदा और बाद की पीढ़ियों के सामने पर्यावरण प्रदूषण के कारण अपने अस्तित्व का ख़तरा मंडरा रहा है। इस बात में शक नहीं कि स्वस्थ पर्यावरण के बिना इंसान प्राकृतिक जीवन नहीं जी पाएगा। यही कारण है कि पूरी दुनिया में हालिया वर्षों में पर्यावरण की रक्षा जीवन को बाक़ी रखने की सबसे महत्वपूर्ण ज़रूरत के रूप में ध्यान का केन्द्र बनी है और विभिन्न वैज्ञानिक हल्क़े और पर्यावरण के संरक्षक, स्वस्थ्य पर्यावरण के वजूद को पूरी मानवजाति के अधिकार के रूप में मान रहे हैं।

यह बात ख़ुशी की है कि स्वस्थ्य पर्यावरण के अधिकार की इच्छा इतनी मुश्किल नहीं कि उसे हासिल न किया जा सके बल्कि पिछले लगभग 40 साल से सरकारी व ग़ैर सरकारी संगठनों, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और वैज्ञानिक हल्क़ों की कोशिश से इसे राष्ट्रीय, क्षेत्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अधिकार के रूप में मान्यता दी गयी हैं। 1972 के स्टॉकहोम घोषणापत्र, 1982 के प्रकृति के अंतर्राष्ट्रीय घोषणापत्र, 1992 के रियो घोषणापत्र वे दस्तावेज़ हैं जिनमें स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार की प्राप्ति पर बल दिया गया है।

 

 अंतर्राष्ट्रीय मंच पर पर्यावरण के अधिकार को मान्यता दिए जाने के साथ साथ देशों के भीतर क़ानून में भी इस पर पहले से ज़्यादा ध्यान दिया गया है बल्कि बहुत से देश के संविधान में जो 1970 के बाद पारित हुए या संशोधित हुए, इस विषय पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया है। मिसाल के तौर पर इस्लामी गणतंत्र ईरान के संविधान की धारा 50 इस अधिकार को मान्यता दिए जाने से विशेष है। इसके अलावा बहुत से देशों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार को व्यवहारिक बनाने पर बल दिया गया है।

 

स्वस्थ पर्यावरण से संपन्नता और विकास से लाभान्वित होना मानवीय प्रतिष्ठा के जलवों में समझे जाते हैं जो न सिर्फ़ मौजूदा पीढ़ी के अधिकार के पूरक बल्कि बाद की पीढ़ियों के अधिकार को व्यवहारिक बनाने की शर्त भी है। किन्तु पर्यावरण से संबंधित सभी संधियां व क़ानून तभी उपयोगी होंगे जब ख़तरनाक गतिविधियों, पर्यावरण को दूषित करने, पर्वतीय क्षेत्रों, समुद्रों व महासागरों में कूड़ा कर्कट व अपशिष्ट पदार्थ फेंकने जैसी गतिविधियों पर रोक लगे और क़ानून को लागू करने वाले तंत्र और जनता इसी प्रकार सरकारों के बीच सहयोग हो। केवल इस स्थिति में ही किसी सीमा तक पर्यावरण की रक्षा की आशा की जा सकती है।