तकफ़ीरी आतंकवाद-18
वहाबी सलफीवाद का तकफीरी और धार्मिक विश्वासन से विचारधारा जबकि मिस्री सलफीवाद का राजनीतिक पहलु है और वह इस्लामी जगत की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थिति की प्रतिक्रिया में अस्तित्व में आया है।
मिस्री सलफीवाद इस्लाम की शिक्षाओं की ओर वापसी और अमेरिका तथा इस्राईल जैसे इस्लाम के दुश्मनों से मुकाबले की बात करता है और उसका मानना है कि मुसलमानों की विफलता का कारण इस्लाम और इस्लामी मूल्यों से दूरी है। जैसाकि इखवानुल मुस्लेमीन का एक प्रसिद्ध व्यक्ति मोहम्मद ग़ज़ाली कहता है कि वहाबी सलफीवाद मुसलमानों को काफिर व अनेकेश्वरवादी कहता है और वह मुसलमानों के अंदर साम्प्रदायिकता की आग भड़काता है। वहाबी सलफीवाद स्थान और समय की परिस्थिति पर ध्यान नहीं देता है और समस्त क्षेत्रों में उसके विचार व दृष्टिकोण अतीत के लोगों के विचारों से प्रभावित हैं।
वह पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों और उनके साथियों के साथियों की बुद्धि और सोच को बाद की शताब्दियों में आने वाले विद्वानों की सोच व बुद्धि से बेहतर समझता है और वह अपनी बुद्धि व सोच से काम नहीं लेता है। यह ऐसी स्थिति में है जब मिस्री सलफीवाद में चाहे वह सय्यद जमालुद्दीन असदाबादी, अब्दो या रशीद रज़ा के विचारों वाला सलफीवाद हो और इसी तरह इखवानुल मुस्लेमीन के विद्वानों की दृष्टि में बाद की शताब्दियों में बुद्धि व सोच को पूरी तरह रद्द नहीं किया गया है।
विश्वास के क्षेत्र में यद्यपि रशीद रज़ा किसी सीमा तक वहाबी सलफीवाद की आस्थाओं से निकट हो गया परंतु इस्लाम की एतिहासिक घटनाओं के मुकाबले में वहाबी सलफियों की भांति आंख नहीं मूंदी बल्कि पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों और उनके साथियों के साथियों के क्रिया- कलापों पर टीका- टिप्पणी की और इसके बावजूद कि वह खिलाफत पर विश्वास रखता है परंतु खिलाफत की परिभाषा में उसकी गणना नये विचारकों की पंक्ति में होती है और मिस्री सलफीवाद को किसी प्रकार वहाबी सलफीवाद की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता और यह दोनों आधारों, लक्ष्यों और शैलियों में एक दूसरे से पूर्णतः भिन्न हैं।
यद्यपि हालिया कुछ वर्षों के दौरान इस्लामी देशों को जिन परिवर्तनों का सामना है उसमें इखवानुल मुस्लेमीन और मिस्र के दूसरे सलफी गुट, वहाबी तकफीरियों के प्रचार की जाल में फंस गये और कुछ अवसरों पर मिस्र और दूसरे इस्लामी देशों में मुसलमानों, शीया धर्मगुरूओं यहां तक तकफीरी वहाबी विचारधारा के विरोधी सुन्नी धर्मगुरूओं की हत्या पर भी मौन धारण किये रहे और तकफीरी वहाबियों का साथ दिया। उदाहरण स्वरूप इखावानुल मुस्लेमीन मिस्र में शीया मुसलमानों के एक नेता व धर्मगुरू शैख हसन मोहम्मद शहाता और उनके साथ तीन अन्य शीयों की शहादत पर मौन धारण किया रहा।
यह अपराध उस समय हुआ जब मोहम्मद मुर्सी मिस्र के राष्ट्रपति थे परंतु उन्होंने शैख हसन मोहम्मद शहाता की शहादत पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दर्शायी।
आले सऊद और वहाबी गुटों पर भरोसा करने के कारण मिस्र के इखवानुल मुस्लेमीन को भारी आघात पहुंचा है। मोहम्मद मुर्सी को सत्ता से हटा दिये जाने के बाद आले सऊद ने तुरंत अरबों डालर की मिस्र की सैनिक सरकार की सहायता की। वास्तव में मिस्र में हुस्नी मुबारक की सत्ता के गिर जाने के बाद इस देश में लोकतांत्रिक सरकार के विरुद्ध षडयंत्र रचने में कभी भी आले सऊद शासन ने संकोच से काम नहीं लिया। इखवानुल मुस्लेमीन ने दोस्त और दुश्मन की पहचान करने में बहुत अधिक ग़लतियां की हैं। इन ग़लतियों की कीमत इखवानुल मुस्लेमीन और मिस्री जनता के लिए बहुत भारी थी।
तकफीरी और आतंकवादी गुटों की जड़ वहाबी विचारधारा में है। वास्तव में वहाबियत, तकफ़ीरी और आतंकवादी गुटों की प्रचारक है। इस कार्यक्रम में हम इतिहास में वहाबियत की जड़ों की समीक्षा करने का प्रयास करेंगे और इस बात की कोशिश करेंगे कि यह स्पष्ट हो जाये कि वहाबियत ने अपने हर सिद्धांत को किस विचार और किस व्यक्ति से लिया है। इसी परिप्रेक्ष्य में इतिहास के दृष्टिगत सलफीवाद को तीन भागों में बांटा जा सकता है। सलफीवाद का एक प्रकार नक़ली है, दूसरा आस्था संबंधी है जबकि तीसरा वहाबी सलफीवाद है।
एक महत्वपूर्ण मतभेद अक़्ल और नक़्ल के बारे में मुसलमानों का दृष्टिकोण है और उसने इस्लामी जगत में मतभेद की काफी गहरी खाई उत्पन्न कर दी है। मुसलमानों के मध्य इस बात को लेकर काफी मतभेद हैं कि अक़्ल और नक़्ल की सीमा क्या होनी चाहिये। यानी धार्मिक आदेशों को समझने के लिए किस सीमा तक बुद्धि और कुरआन एवं पैग़म्बरे इस्लाम की परंपरा से सहायता लेनी चाहिये?
यह ऐसा प्रश्न है जिस पर इस्लाम की आरंभिक शताब्दियों में हंगामा व बहस थी और बहुत से धार्मिक मदरसे अस्तित्व में आ गये। एक गुट ने सुन्नत अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम की परंमरा यहां तक कि पवित्र कुरआन की व्याख्या की अनदेखी कर दी और बुद्धि से काम लेने में अतिवाद का शिकार हो गया और पवित्र कुरआन और सुन्नत की अनदेखी कर दी जबकि कुछ ने बुद्धि को पूर्णरूप से इंकार कर दिया और उन्होंने पूरी तरह नक़्ल पर भरोसा किया यहां तक कि बौद्धिक दृष्टि से जो चीज़ सामने की है उसे भी उन्होंने इंकार कर दिया।
इसी कारण इस्लाम की आरंभिक शताब्दियों में अक़्ल और नक़्ल के संबंध में काफी बहसें हुई हैं और इन क्षेत्रों में लोग या तो सीमा से आगे बढ़ गये या सीमा से अधिक पीछे रह गये। वहाबी सलफ़ियों ने बुद्धि से काम लेने को बंद कर दिया और हदीस अर्थात कथन पर सीमा से अधिक ध्यान देने और विश्वास करने के कारण एक प्रकार से यह कह दिया कि राजनीतिक और शैक्षिक क्षेत्र में अतीत के लोगों की ओर लौटा जाये यानी उन्हें स्रोत के रूप में स्वीकार किया जाये।
इसी प्रकार सलफी वहाबियों ने पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों और उनके साथियों के साथियों को आने वाली शताब्दी के विद्वानों से बेहतर बताया। अतीत के इन लोगों की कहनी और कथनी के आंख मूंदकर अनुसरण से सलफ़ी वहाबी रूढ़िवाद की गहरी खाई में गिर गये हैं और सामने के मामलों और आवश्यकताओं को भी वे नहीं समझ रहे हैं। इस आधार पर आंख मूंदकर हदीसों को मानना सलफी वहाबियों की विशेषता है।
वहाबी सलफ़ीवाद को पहचानने के लिए सबसे पहले हदीस को समझना चाहिये। इन अर्थों में कि वहाबी सलफी बुद्धि से काम लिये बिना हदीस को धर्म का एक स्रोत मानते हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि पवित्र कुरआन के बाद इंसानों के मार्गदर्शन में सुन्नत व परम्परा की आभारभूत भूमिका है परंतु सुन्नत की परिभाषा में मतभेद है। जिन लोगों ने हदीसों को बयान किया है इससे उनका उद्देश्य लोगों को पैग़म्बरे इस्लाम के सदाचरण से अवगत कराना था। वे चाहते थे कि पैग़म्बरे इस्लाम को एक नमूने के रूप में पेश किया जाये ताकि समस्त इंसान और मुसलमान अपने जीवन के समस्त क्षेत्रों में उन्हें आदर्श बनायें।
इस आधार पर सुन्नत व पैग़म्बरे इस्लाम की परम्परा की परिभाषा के बारे में कहा गया है कि हर वह चीज़ सुन्नत है जिसे पैग़म्बरे इस्लाम ने अंजाम दिया है चाहे उनका कर्म हो या कथन या पैग़म्बरे इस्लाम ने किसी दूसरे के कर्म या कथन की पुष्टि की हो। इसी प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम की नैतिक व आध्यात्मिक विशेषता भी सुन्नत है चाहे वह पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी की घोषणा से पहले हो या उसके बाद। इस आधार पर पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी की घोषणा के आरंभ से उनके समस्त कथनों और कर्मों को एक संपूर्ण इंसान के रूप में ध्यान दिया गया। पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद हदीसों अर्थात उनके कथनों को एकत्रित किया गया।
हदीस की परिभाषा में शीया मुसलमान कहते हैं कि मामूस का कथन व कर्म और इसी प्रकार अगर कोई कार्य मासूम के सामने अंजाम दिया जाये और मासूम उस पर चुप रहे यानी वह उसकी पुष्टि करे तो उसे भी हदीस कहते हैं। बहुत से विद्वानों ने सही और ग़ैर सही हदीसों को एक दूसरे से अलग करने में अपनी पूरी ज़िन्दगी खर्च कर डाली। इस प्रकार के धर्मगुरूओं व विद्वानों की विशेषता हदीसों को पहचानने में दक्षता है। कहा जा सकता है कि हदीस का ज्ञान उन क़ानूनों की जानकारी है जिनके माध्यम से हदीसों की विषयवस्तु और उससे जुड़ी चीज़ों की पहचान की जाती है परंतु इस संबंध में शीया-सुन्नी मुसलमानों के मध्य मतभेद है।
पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद पहला मतभेद उनके उत्तराधिकारी और समाज के मार्गदर्शक के बारे में था। शीया मुसलमान पवित्र कुरआन की आयतों और हदीसों के आधार पर कहते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद उनके पवित्र परिजन और उनमें सर्वोपरि हज़रत अली अलैहिस्सलाम उनके उत्तराधिकारी हैं। शीया मुसलमानों का मानना है कि समाज की दिन- प्रतिदिन बढ़ती आवश्यकता, लोगों को मार्गदर्शन और मार्गदर्शक की आवश्कता और इसी प्रकार धर्म की रक्षा और गुमराही से रोकने के लिए एक व्यक्ति की आवश्यकता है जो इमामत के पद पर आसीन हो और इस प्रकार की विशेषता केवल हज़रत अली अलैहिस्सलाम और उनकी संतान में है।
जबकि इसके मुकाबले में सुन्नी मुसलमानों का मानना है कि पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी के चयन का अधिकार जनता को दे दिया गया है और लोगों को चाहिये कि वे अपना मार्गदर्शक स्वयं चुनें। इस दृष्टिकोण में जो कठिनाइयां व समस्याएं हैं उनकी अनदेखी करते हुए कहा जा सकता है कि अगर ख़लीफा व पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी का चयन लोगों के हवाले किया गया है तो किस प्रकार पहले ख़लीफा ने इस पर अमल नहीं किया और अपनी इच्छा से दूसरे ख़लीफा का चयन दिया? क्या यह कार्य सुन्नी मुसलमानों के दावे के विरुद्ध नहीं था कि वे कहते हैं कि खलीफा के चयन का अधिकार लोगों पर है? ख़िलाफ़त के राजनीतिक प्रभाव के अलावा दूसरे प्रभाव भी हैं। पहला प्रभाव यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम के बाद लोग अपने प्रश्न किससे पूछें? कौन नये- नये प्रश्नों का प्रश्नों का उत्तर दे सकता है? यह सारी बातें पैग़म्बरे इस्लाम के दृष्टित थीं इसलिए उन्होंने हदीसे सक़लैन नाम से प्रसिद्ध अपने कथन में कहा है कि मैं तुम्हारे मध्य दो मूल्यवान चीज़ें छोड़कर जा रहा हूं एक ईश्वर की किताब और दूसरे अपने अहलेबैत और जब तक तुम इन दोनों से जुड़े रहोगे कदापि गुमराह नहीं होगे और यह दोनों एक दूसरे से अलग नहीं होंगे यहां तक कि प्रलय के दिन यह दोनों एक साथ हौज़े कौसर पर मेरे पास आयेंगे।