Jul १७, २०१६ १५:१६ Asia/Kolkata

सूरए मुज़्ज़म्मिल मदीने में नाज़िल हुआ और संकलन की दृष्टि से 73वां और नाज़िल होने की दृष्टि से तीसरा सूरा है जो सूरए क़लम के बाद और सूरए मुद्दस्सिर से पहले नाज़िल हुआ है।

मुज़्ज़म्मिल का अर्थ है कपड़ा या चादर लपेटने वाला और इससे तात्पर्य पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम हैं।

 

रिवायतों में है कि जब पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने जता खुल कर लोगों को ईश्वर की ओर बुलाना आरंभ किया तो क़ुरैश ने दारुन्नदवा नामक स्थान पर एकत्र हो कर उनके विरुद्ध कोई हथकंडा खोजने का प्रयास किया। किसी ने कहा कि उन्हें काहिन अर्थात यहूदी पुजारी कहा जाए लेकिन कुछ लोगों ने इसका विरोध किया। किसी ने कहा कि उन्हें पागल कहा जाए लेकिन कुछ लोगों ने इसका भी विरोध किया जाए। कुछ लोगों ने उन्हें जादूगर कहने को प्राथमिकता दी। अंततः यह तै पाया कि चूंकि वे हमारे मित्रों के बीच जुदाई डाल देते हैं इस लिए उन्हें जादूगर कह जाए। इसके बाद वे लोग वहां से चले गए। यह बात पैग़म्बरे इस्लाम तक भी पहुंची। वे पैग़म्बरी के काम और इस मार्ग की कठिनाइयों से थक कर आराम कर रहे थे, उन्होंने एक कपड़ा या चादर लपेट रखी थी। उसी समय ईश्वर के विशेष दूत जिब्रईल आए और उन तक सूरए मुज़्ज़म्मिल पहुंचाया।

 

सूरए मुज़्ज़म्मिल की आरंभिक आयतों में पैग़म्बरे इस्लाम को उपासना और क़ुरआने मजीद की तिलावत के लिए रात में उठने का निमंत्रण दिया गया है और उपासना का एक कठिन कार्यक्रम स्वीकार करने के लिए तैयार किया गया है। आगे की आयतों में उन्हें इस विशेष कालखंड में विरोधियों के प्रति धैर्य, संयम और प्रतिरोध से काम लेने का निमंत्रण दिया गया है। प्रलय के बारे में चर्चा, हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को फ़िरऔन की ओर भेजना, उसकी उद्दंडता और ईश्वर की ओर से उसे दंडित किया जाना, रात की उपासना के आदेश, क़ुरआने मजीद की तिलावत, नामज़ पढ़ने, ज़कात देने, ईश्वर के मार्ग में दान देने और तौबा व प्रायश्चित का निमंत्रण इस सूरे में वर्णित अन्य विषय हैं।

 

सूरए मुज़्ज़म्मिल की आयतों में आरंभ में बड़े ही प्रेमपूर्ण स्वर में पैग़म्बरे इस्लाम को ईश्वरीय निमंत्रण दिया गया है, मानो मानव समाज एक असीम महासागर है जिसमें असंख्य गुट डूब रहे हैं और बड़ी बड़ी लहरें उन्हें इधर से उधर ले जा रही हैं और हचकोले ले रहीं नौकाएं, शरण की तलाश में हैं। ऐसे में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम एकमात्र सहारा व मोक्षदाता और क़ुरआने मजीद एकमात्र बचाने वाली नौका है। इस महान मोक्षदाता को रात की उपासनाओं के माध्यम से अपने आपको इस बड़े दायित्व व अभियान के लिए तैयार करना चाहिए। सूरए मुज़्ज़म्मिल की आरंभिक चार आयतें पैग़म्बरे इस्लामक को संबोधित करते हुए कहती हैं। हे कपड़ा लपेट कर (आराम करने) वाले! रात को (नमाज़ के लिए) उठिए मगर थोड़ा कम, आधी रात या उससे कुछ थोड़ा कम कर लीजिए या उससे कुछ अधिक बढ़ा लीजिए और क़ुरआन को भली भाँति ठहर-ठहर कर पढ़िए।

 

रात आराम व शांति के लिए होती है और इस शांति का परिणाम दिन भर के काम-काज और थकन से आराम मिलना है। यही कारण है कि आयतें पैग़म्बरे इस्लाम से कहती हैं कि चूंकि आप दिन भर निरंतर प्रयास व मेहनत करते हैं, हमेशा अपने पालनहार के निमंत्रण को पहुंचाने, लोगों के मार्गदर्शन और उनके व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन की समस्याओं को सुलझाने में व्यस्त रहते हैं इस लिए आपको उपासना का पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाता अतः आप रात के समय पूरी शांति के साथ इबादत करें और प्रति दिन की अधिक बड़ी व व्यापक गतिविधियों के लिए आवश्यक तैयारी, रात की उपासना से प्राप्त करें। स्पष्ट है कि चिंतन-मनन और आत्म प्रशिक्षण के लिए रात का समय अधिक उचित अवसर है।

 

इसी प्रकार इस रात्रिकालीन कार्यक्रम के मूल पाठ के रूप में क़ुरआने मजीद की तिलावत इस कारण है कि इस आसमानी किताब में आत्म निर्माण के सभी आवश्यक पाठ मौजूद हैं और यह ईमान, प्रतिरोध व ईश्वरीय भय को मज़बूत बनाने के सर्वोत्तम साधनों को अपने भीतर लिए हुए है। यही कारण है कि इन आयतों में रात को उपासन के लिए जागने, रात की विशेष नमाज़ पढ़ने और क़ुरआने मजीद की तिलावत पर बल दिया गया है। यह वह समय होता है जब निश्चेत लोग सो रहे होते हैं। रात व भोर के समय उपासना का आत्मा की पवित्रता, आत्म निर्माण, मन की पवित्रता और दिल में ईश्वरीय भय के आधारों की मज़बूती में बेजोड़ प्रभाव है। इसी लिए इन आयतों के अलावा हदीसों में भी उस पर बहुत अधिक बल दिया गया है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि तीन चीज़ें ईश्वर की विशेष कृपाओं में से हैं। रात की उपासना, रोज़ेदारों को इफ़्तार कराना और अपने मुस्लिम भाइयों से मुलाक़ात करना।

 

सूरए मुज़्ज़म्मिल की नवीं आयत पैग़म्बरे इस्लाम से कहती है कि वे पूरब व पश्चिम के पालनहार को, जिसके अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं है, अपना रक्षक व सहारा चुनें। यह आयत सभी कार्यों में ईश्वर पर भरोसा करने और अपने सभी मामलों को ईश्वर के हवाले करने पर बल देती है। वह ईश्वर जिसके अधीन पूरब और पश्चिम अर्थात संपूर्ण सृष्टि है, वही उपासना योग्य एकमात्र पूज्य है। इस बात पर ध्यान रहना चाहिए कि मनुष्य के पास जो भी शक्ति व क्षमता है वह ईश्वर की ही प्रदान की हुई है तो फिर इंसान किस तरह अपनी या दूसरों की अस्थायी व डांवाडोल शक्ति पर भरोसा कर सकता है जबकि वह जानता है कि उसका अस्तित्व और जो कुछ उसके पास है, सब ईश्वर का ही दिया हुआ है और वह स्वयं न तो वास्तविक मालिक था और न कभी होगा।

 

ईश्वर पर मनुष्य का भरोसा, सृष्टि के रचयिता के प्रति उसकी पहचान के कारण होता है। अगर इंसान, ईश्वर को अपना और अपने पास मौजूद हर वस्तु के सच्चे मालिक के रूप में स्वीकार करेगा तो फिर उसे किसी दूसरे के आगे हाथ फैलाने की ज़रूरत ही महसूस नहीं होगा। निश्चित रूप से अगर हम ईश्वर पर पूरा भरोसा करेंगे और अपने मन मस्तिष्क को उसकी याद से मज़बूत रखें तो हमारे भीतर ईमान का बाग़ हमेशा हरा भरा रहेगा।

 

सूरए मुज़्ज़म्मिल की कुछ आयतों में प्रलय के विषय की ओर संकेत किया गया है और कहा गया है कि प्रलय के समय यह भौतिक संसार तबाह हो जाएगा। क़ुरआने मजीद के अनेक सूरों में धरती के सबसे मज़बूत अंशों के रूप में पहाड़ों के टूट कर बिखरने के विभिन्न चरणों का उल्लेख किया गया है। सूरए मुज़्ज़म्मिल की 14वीं आयत में इसके अंतिम चरण की ओर संकेत करते हुए कहा गया है। जिस दिन धरती और पहाड़ काँप उठेंगे और पहाड़ रेत के ढेर बन जाएंगे।

 

17वीं आयत में एक अन्य विशेषता की ओर संकेत करते हुए कहा गया हैः प्रलय वह दिन है कि जिसमें बच्चे बूढ़े हो जाएंगे? यह दिन कठिनाइयों, कड़ाइयों और मुसीबतों के कारण मनुष्य के लिए बहुत धीरे-धीरे बीतेगा। इस दिन की कठिनाइयां बहुत अधिक हैं और इस दिन मौत भी नहीं आएगी। मनुष्य दंडित होगा, बूढ़ा होगा लेकिन मरेगा नहीं। अपनी कठिनाइयों के कारण यह एक लम्बा दिन है और इसके बारे में ईश्वर कहता है। हे लोगो! ईश्वर से डरो कि प्रलय के दिन का भूकंप बहुत कड़ा है। उस दिन की पीड़ा व कठिनाई इस कारण है कि मनुष्य की प्रतिरक्षा शक्ति छिन जाएगी और वह भूखा-प्यासा हर चीज़ से वंचित रहेगा और उसके पास प्रलय के दंड की कठिनाई से बचने का कोई मार्ग नहीं होगा। उस दिन उसकी एकमात्र पूंजी, ईश्वर के प्रति हार्दिक ईमान और उसके सद्कर्म हैं। उस दिन की अवधि अगर कम भी हो तब भी वह दिन इंसान पर बहुत कड़ा गुज़रेगा और ऐसा लगेगा कि वह समाप्त ही नहीं हो रहा है।

 

सूरए मुज़्ज़म्मिल की 20वीं आयत इस सूरे की अंतिम और सबसे लम्बी आयत है। इस आयत में कई विषयों की ओर संकेत किया गया है। कुछ ईमान वाले रात की उपासना में पैग़म्बरे इस्लाम का साथ दिया करते थे क्योंकि समाज में इस्लाम नया नया आया था और परिस्थितियां इस बात को ज़रूरी बनाती थीं कि वे लोग भी कर्म, आस्था व शिष्टाचार पर आधारित क़ुरआने मजीद की आयतों की तिलावत और इसी प्रकार रात की उपासनाओं द्वारा आत्म निर्माण करें और इस्लाम के प्रचार व उसकी रक्षा के लिए तैयार हो जाएं लेकिन कुछ मुसलमानों रात के एक तिहाई या आधे भाग का हिसाब-किताब रखने में गड़बड़ा जाते थे और इसी लिए वे कभी कभी पूरी रात जाग कर और उपासना करके गुज़ार देते थे जिससे उनके पांव सूज जाया करते थे। इसी लिए ईश्वर ने इस आदेश में उन्हें छूट दी और कहा कि वह जानता है कि तुम लोग उपासना के लिए सटीक अवधि का हिसाब नहीं कर सकते अतः उसने तुम्हें क्षमा कर दिया तो अब जितना भी तुम्हारे लिए संभव हो, क़ुरआने मजीद की तिलावत करो। अलबत्ता यह तिलावत सोच-विचार और चिंतन-मनन के साथ होनी चाहिए। इसी लिए पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने कहा हैः उतना ही क़ुरआन पढ़ो जितना तुम्हारा दिल ईश्वर की ओर से भयभीत रहे और तुम्हारे भीतर क़ुरआने मजीद की तिलावत की हार्दिक इच्छा की रहे।

 

आगे चल कर यह आयत आत्म निर्माण का एक संपूर्ण कार्यक्रम पेश करती है और कहती है। और नमाज़ पढ़ो, ज़कात दो और ईश्वर को अच्छा ऋण दो अर्थात उसके मार्ग में ख़र्च करो और (जान लो कि) तुम अपने लिए जो भी अच्छे कर्म आगे भेजते हो उन्हें ईश्वर के निकट सर्वोत्तम ढंग से और बड़े प्रतिफल के साथ पाओगे और ईश्वर से क्षमा चाहो कि वह अत्यंत क्षमाशील और दयावान है। अंत में आयत इस बात का उल्लेख करती है कि हमेशा ईश्वर से क्षमा चाहते रहना चाहिए और यह नहीं सोचना चाहिए कि हम उसकी उपासना करके संपूर्ण व पवित्र मनुष्य बन गए हैं क्योंकि इससे हम घमंड में ग्रस्त हो सकते हैं जबकि हमें हमेशा अपने आपको ईश्वर के समक्ष हमेशा तुच्छ समझना चाहिए और उससे क्षमा मांगते रहना चाहिए।