तकफ़ीरी आतंकवाद-19
सुन्नी समुदाय का मानना है कि पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद ईश्वरीय संदेश वहि उतरने का सिलसिला बंद हो गया और पैग़म्बरे इस्लाम ने जो कुछ पेश कर दिया वही पर्याप्त है और अब यदि किसी नई स्थिति और नए विषय का सामना होता है तो अपनी बुद्धि का प्रयोग करके उसके बारे में इस्लाम का आदेश तय करना होगा।
शीया समुदाय का मानना है कि ईश्वरीय संदेश वहि का सिलसिला तो बंद हो गया है लेकिन क़ुरआन की आयतों और ईश्वरीय आदेशों की व्याख्या के लिए एसी धार्मिक हस्तियों की ज़रूरत है जो हमें पूरी तरह सही स्थिति और आदेश से अवगत करवाएं और जो ईश्वरीय आदेश का जो वास्तविक रूप है उसे हमारे सामने पेश कर दें इन मामलों में व्यक्तिगत रूप से निष्कर्ष निकालना सही नहीं है। इस बीच एक गंभीर समस्या यह उत्पन्न हुई कि पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों और हदीसों को दर्ज और बयान करने में ईमानदारी का अभाव भी देखने में आया। पैग़म्बरे इस्लाम के अति निकट साथियों जैसे सलमान, अम्मार यासिर के माध्यम से पैग़म्बरे इस्लाम के बहुत कम कथन किताबों में दर्ज किए गए हालांकि यह सहाबी वर्षों तक पैग़म्बरे इस्लाम के साथ थे।
जबकि अबू हुरैरा जैसे सहाबी के माध्यम से जो केवल दो साल पैग़म्बरे इस्लाम के साथ रहे 5974 कथन दर्ज किए गए हैं। जाली हदीसें गढ़ने की प्रक्रिया इतनी बढ़ गई कि सही और जाली हदीसों की पहिचान के लिए इल्मे रेजाल के नाम से एक ज्ञान विकसित किया जिसमें हदीसों कों दर्ज करने वाले रावियों के व्यक्तित्व की समीक्षा की जाती है। तकफ़ीरी और सलफ़ी गुट जब अपनी इस्लाम विरोधी सोच और बातों को प्रमाणित करना चाहते हैं तो कमज़ोर रावियों वाली हदीसों का सहारा लेते हैं। वह एसी रवायतों का सहारा लेते हैं जिन्हें बहुत से सुन्नी मत भी जाली रवायत मानते हैं।
सुन्नी समुदाय के लोग चार में से किसी एक स्कूल से जुड़े होते हैं। इनमें एक है हनफ़ी स्कूल जो अबू हनीफ़ा से शुरू हुआ है। अबू हनीफ़ा सन 80 से 150 हिजरी के बीच जीवन व्यतीत करने वाले धर्मगुरू थे। मालेकी मत की स्थापना मालिक बिन अनस ने की जो वर्ष 93 से 173 के बीच इस्लामी समुदाय में जीवन व्यतीत कर रहे थे। शाफ़ेई मत की स्थापना मोहम्मद बिन इदरीस शाफ़ेई ने की उनका जन्म 150 हिजरी क़मरी में और निधन 204 हिजरी क़मरी में हुआ। हंबली मत का संबंध अहमद बिन हंबल से है। उनका जन्म 164 हिजरी में और निधन 241 हिजरी में हुआ।
अहमद बिन हंबल के व्यक्तित्व की समीक्षा इसलिए ज़रूरी प्रतीत होती है कि वहाबी विचारधारा खु़द को उन्हीं से जोड़ती है और ख़ुद को उन्हीं के मत का अनुसरणकर्ता बताती है। वहादी विचारधारा के लोग अहमद बिन हंबल के अनुसरण का दावा करके इस्लामी जगत में अपनी गहरी जड़े साबित करने का प्रयास करते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि वास्तविक हंबली कभी भी उन्हें अहमद बिन हंबल का अनुयायी मानने पर तैयार नहीं होते। हंबली मत के बड़े विद्वान वहाबी और सलफ़ी विचारधारा के विरुद्ध कई पुस्तके लिख चुके हैं जिसमें उन्होंने साबित किया है कि वहाबी मत की जड़ अहमद बिन हंबल नहीं इब्ने तैमीया है। हंबली मत और वहाबियों के बीच बहुत से अंतर भी पाए जाते हैं। अहमद बिन हंबल के जीवन और धार्मिक विचारों के बारे में हम पहले भी कुछ बातें अपने श्रोताओं को बता चुके हैं और हमने यह भी बताया कि वहाबी विचारधारा के लोग ख़ुद को अहमद बिन हंबल से क्यों जोड़ने का प्रयास करते हैं। उनके धार्मिक विचारों को देखकर वहाबियों के भीतर यह लालस उत्पन्न हुई कि ख़ुद को अहमद बिन हंबल से जोड़ें। अहमद बिन हंबल हदीस के विदित शब्दों तक सीमित रहने पर बल देते हैं और कथनों के जो ज़ाहिरी अर्थ हैं वहीं तक सीमित रहने की बात करते हैं।
यह चीज़ वहाबी विचारधारा को अपने लिए बहुत अनकूल दिखाई पड़ती है। अहमद बिन हंबल के धार्मिक विचार हदीस के विविद अर्थों पर केन्द्रित हैं। अहमद बिन हंबल का मानना है कि सुन्नत यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम के साथ रह चुके लोगों का अनुसरण किया जाए। उनका कहना है कि इन मामलों में बुद्धि और तर्क वितर्क का प्रयोग ठीक नहीं है। वह हर चीज़ को हदीसों के आधार पर पेश करने का प्रयास करते थे। उनका कहना था कि धार्मिक तर्कशास्त्र सही ज्ञान नहीं है और इसकी ओर ध्यान देने से बचना चाहिए। वह कहते थे कि इस ज्ञान में रूचि लेने वालों से साथ उठना बैठना भी ठीक नहीं है चाहे इस ज्ञान के तर्क इस्लाम धर्म के बचाव के लिए ही क्यों न हों।
यदि अहमद बिन हंबल और सलफ़ियों के विचारों की समीक्षा की जाए तो दोनों का अंतर साफ़ नज़र आता है। सलफ़ियों के सबसे बड़े दुशमन हर युग में खु़द हंबली ही रहे हैं। बरबहारी के काल में हंबलियों ने उनका ज़बरदस्त विरोध किया। 7वीं शताब्दी हिजरी में इब्ने तैमीया जब वहाबी विचारधार की नींव रखी तो उन्हें अपने उन क़रीबी लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा जो हंबली थे। 12वीं शताब्दी हिजरी में सबसे पहले जिसने मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब का विरोध शुरू किया वह खुद उनके पिता और भाई थे जो हंबली मत के मानने वाले थे। यहां तक कि मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के भाई सुलैमान बिन अब्दुल वह्हाब ने उनके वहाबी विचारों के ख़िलाफ़ अस्सवाएक़ुल एलाहिया नामक पुस्तक लिखी।
इतिहास के विभिन्न चरणों में ख़ुद हंबली मत के लोगों ने ही सलफ़ी विचारधारा के विरोध में आवाज़ उठाई है। अहमद बिन हंबल ने अहले हदीस कहे जाने वाले कट्टरपंथी विचारधारा के लोगों के विचारों को संतुलित किया और विरोधाभासी मतों को अस्तित्व प्रदान किया। सलफ़ी विचारधारा ने अन्य इस्लामी मतों ही नहीं ख़ुद हंबली मत के भीतर भी मतभेद पैदा कर दिए। जिस समय अहले हदीस मत के लोग पैग़म्बरे इस्लाम के चचाज़ाद भाई और दामाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम को गालियां दे रहे थे अहमद बिन हंबल ने उनका इन कट्टरपंथी लोगों का विरोध किया। जबकि सलफ़ी विचारधारा बिल्कुल अलग दिशा में आगे बढ़ी। उन्होंने अहमद बिन हंबल के माध्यम से हज़रत अली अलैहिस्साम के बारे में बयान की गई हदीसों को जाली ठहराते हुए ख़ारिज कर दिया। इब्ने तैमीया और अब्दुल वह्हाब के विचारों में एसी चीज़ें देखने को मिलती हैं जिनका अहमद बिन हंबल के विचारों में कहीं कोई उदाहरण नहीं है।
जैसे पैग़म्बरे इस्लाम को एक आम इंसान मानना, ईश्वर से दुआा मांगते समय पैग़म्बरे इस्लाम का वास्ता देने से रोकना इस प्रकार की कोई भी बात अहमद बिन हंबल के विचारों में नहीं है बल्कि सलफ़ियों ने यह ची़जें खुद गढ़ ली हैं। यदि अहमद बिन हंबल जीवित होते तो निश्चित रूप से आज वहाबी तकफ़ीरी विचारधारा का जो रूप दुनिया में है उसे अन्य हंबलियों की तरह ख़ारिज कर देते। इस प्रकार सलफ़ी और वहाबी लाख दावे करें अहमद बिन हंबल को वहाबी मत का जनक नहीं माना जा सकता। हां इतना ज़रूर है कि अहमद बिन हंबल के विचारों की कुछ झलक सलफ़ी और वहाबी विचारधारा में दिखाई देती है। सलफी और वहाबी मत की शुरुआत सातवीं शताब्दी हिजरी में इब्ने तैमीया के हाथों हुई। इसी काल में सलफ़ी मत की सरहदों और प्रारूप को तय किया गया। मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने इब्ने तैमीया की विचारधारा को व्यवहारिक बनाने का काम किया और उनकी योजना को पटल पर उतारा।
तक़ीउद्दीन अबुल अब्बास अहमद बिन तैमीया का जन्म सन 661हिजरी क़मरी में हरान शहर में हुआ हरान इस समय तुर्की का एक निर्जन क्षेत्र है। अतीत में यहां बड़ी रौनक़ हुआ करती थी। इब्ने तैमीया ने अपनी पुस्तकों में कई बार हरान को नास्तिकों और मूर्ति पूजा करने वालों का केन्द्र कहा है। ईसाई धर्मगरुओं ने उसे हेलनोपोलीस या नास्तिकों का शहर कहा है। हरान पर दूसरे ख़लीफ़ा के काल में अय्याज़ बिन ग़नम के हमले में कब्ज़ा हुआ था। इस शहर के लोग बनी उमैया के विचारों में रंग गए और शहर की नमाज़ जुमा में नियमित रूप से हज़रत अली अलैहिस्सलाम को गालियां दी जाने लगीं। जब उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ को सत्ता मिली और उसने मिंबरों से हज़रत अली को दी जाने वाली गाली पर रोक लगाई तो हरान के लोगों ने यह आदेश मानने से इंकार कर दिया और कहा कि हज़रत अली पर लानत भेजे बिना नमाज़ सही नहीं है।
हरान शहर हंबली मत के विस्तार का केन्द्र साबित हुआ है औज्ञ इब्ने तैमीया तथा उनके अनुसरणकर्ताओं ने इसे हंबली विद्वानों का शहर कहा है। ज़ाहिर है कि इस माहौल का इब्ने तैमीया के व्यक्तित्व पर असर पड़ा। वर्ष 667 में जब इब्ने तैमीया की आयु 6 साल से अधिक नहीं थी हरान के लोगों ने मंगोलों के हमले के डर से शहर छोड़ दिया था। इनमें इब्ने तैमीया के पिता शहाबु्द्दीन अब्दुल हलीम भी थे जो शहर के धर्मगुरुओं में गिने जाते थे। वह अपने परिवार के साथ दमिश्क़ चले गए। इसके बाद से इब्ने तैमीया ने दमिश्क़ में भी शिक्षा प्राप्त की और अपना जीवन बिताया। इसी शहर में वह पढ़ाते थे।