Jul २३, २०१६ १४:०१ Asia/Kolkata

हालिया कुछ दिनों के भीतर आतंकवाद का मुद्दा मीडिया में छाया रहा और भारतीय मीडिया में भी कई घटनाओं के बारे में विशेष रूप से चर्चा हुई।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो हालिया दिनों तुर्की के इस्तांबूल शहर में अतातुर्क अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर हमला हुआ जिसमें 40 से अधिक लोगों की जान चली गई।

इस्तांबूल हमला

बांग्लादेश की राजधानी ढाका में एक कैफ़े को निशाना बनाया गया जिसमें दर्जनों लोग मारे गए। इराक़ और सीरिया में तो आतंकी हमले लगातार हो ही रहे हैं। इस बीच इराक़ में राजधानी बग़दाद के कर्रादा क्षैत्र में बहुत बड़ा आतंकी हमला हुआ जिसमें लगभग 300 लोगों की मौत हो गई इसके बाद बलद नगर के धार्मिक स्थल पर आत्मघाती हमला हुआ इस हमले में भी 35 से अधिक लोग मारे गए।

बलद हमला

उधर भारत नियंत्रित कश्मीर में बुरहान वानी की मौत के बाद हालात बिगड़ गए और बहुत से लोग हिंसक प्रदर्शनों के दौरान मारे गए। एक और मुद्दा वहाबी इस्लामी प्रचारक ज़ाकिर नाइक का उठा। ढाका में हुए आतंकी हमले में कई लोगों के मारे जाने के बाद यह मामला चर्चा में आया कि ढाका घटना का एक हमलावर ज़ाकिर नाइक के विचारों से प्रभावित था। इसके बाद ज़ाकिर नाइक के भाषणों और उनके चैनल पर रोक लगाने की बहस छिड़ गई। दूसरी ओर भारत की राष्ट्रीय जांच एजेंसी एनआईए द्वारा हैदराबाद से की गई गिरफ़तारियों की ख़बरें आईं तो हैदराबाद के सांसद और प्रख्यात नेता असदुद्दीन उवैसी ने कहा कि वह गिरफ़तार किए गए लोगों को क़ानूनी मदद देंगे। इस बात पर ओवैसी की बड़ी आलोचना भी हुई और कुछ लोगों ने तो यहां तक कह दिया कि ओवैसी आतंकियों की सहायता कर रहे हैं लेकिन यह आरोप इसलिए सही नहीं है कि ओवैसी ने जो घोषणा की है उसके पीछे एक बड़ा कारण है। एसे बहुत से मुस्लिम युवा जेलों में कई कई साल गुज़ार चुके हैं जिन्हें सुरक्षा एजेंसियों ने आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त होने के आरोप में गिरफ़तार किया और बाद में वह अदालत में बेगुनाह साबित हुए क्योंकि सुरक्षा एजेंसियां उनके विरुद्ध सुबूत पेश नहीं कर सकीं। अतः वह क़ानूनी मदद इस लिए देना चाह रहे हैं कि किसी बेगुनाह की ज़िंदगी का लंबय समय अकारण जेल की भेंट न चढ़ जाए।

पाकिस्तान में अमजद साबेरी की हत्या कर दी गई जो प्रख्यात और बड़े लोकप्रिय क़व्वाल थे। उन्होंने पाकिस्तान ही नहीं देश के बाहर भी अपनी जगह बनाई और उनके ख़ूबसूरत अंदाज़ और अच्छे शेर से लोग बहुत प्रभावित हुए।

साबेरी

इससे पहले आतंकियों ने दूसरे भी कई लोगों को मौत के घाट उतार दिया। फ़िलिस्तीन की स्थिति पर नज़र डाली जाएं तो वहां 7 दशकों से जारी हिंसा नज़र आती है लेकिन एसा लगता है कि फ़िलिस्तीन में जारी इस हिंसा को सामान्य बात मान लिया गया है इस लिए जब तक वहां कोई बड़ी घटना न घट जाए और कई लोगों की जानें न चली जाएं मीडिया का ध्यान उधर केन्द्रित ही नहीं होता। अफ़्रीक़ा के देशों मं फैले आतंकवाद का दंश आम लोग झेल ही रहे हैं। इस प्रकार देखा जाए तो आतंकवाद और हिंसा का मामला बहुत बड़े पैमाने पर फैला हुआ है। हर स्थान की घटनाएं अलग अलग हैं उनके लक्ष्य और कारण भिन्न हैं। मतभेद और विचारों का टकराव सामान्य बात है हर स्थान पर लोगों के बीच विचारों में असमानता हो सकती है समस्या तब उत्पन्न होती है जब मतभेद और विचारों की असमानता को संवाद और शांतिपूर्ण मार्गों से हल करने के बजाए हिंसा का रास्ता अपना लिया जाता है। वहीं से परिस्थितियां बिल्कुल बदल जाती हैं। फिर जब आंतरिक मतभेदों में कोई बाहरी शक्ति कूद पड़ती है और तो हालात और भी नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं और अगर विश्व शक्तियां का एक बड़ा मोर्चा मैदान में आ जाए और हालात को अपनी इच्छा के अनुसार मोड़ने लगे तो फिर लाखों लोगों को जान गंवानी पड़ती है जैसा कि आज सीरिया, इराक़, लीबिया और यमन में हो रहा है। सारे घटनाक्रम में प्रचारिक माध्यमों और धार्मिक प्रचारकों की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण साबित हुई है।

भारत के परिप्रेक्ष्य में बात की जाए तो हालिया दिनों में एक बड़ी घटना हिज़्बुल मुजाहेदीन संगठन के कमांडर बुरहान मुज़फ़्फ़र वानी की मौत है। 21 वर्षीय बुरहान मुज़फ़्फ़र वानी हिज़्बुल मुजाहेदीन का कमांडर था जो आठ जुलाई को कोकरनाग में सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मारा गया। वानी की मौत के बाद कश्मीर घाटी सुलग उठी और बहुत बड़े पैमाने पर हिंसा हुई।

प्रदर्शन

घटना के बाद जो प्रतिक्रियाएं आईं उनसे मामले की जटिलता का अनुमान लगाया जा सकता है। सुरक्षा बलों ने बुरहान वानी के मारे जाने को अपनी बड़ी सफलता बताया क्योंकि कहा जाता है कि वह युवाओं को हथियार उठाने और कश्मीर की आज़ादी के लिए लड़ने की प्रेरणा देता था। वह सोशल मीडिया पर बहुत सक्रिय था। वहीं दिल्ली के जवाहर लाह नेहरू विश्व विद्यालय के चर्चित छात्र नेता उमर खालिद ने अपने फेसबुक पोस्ट में चे ग्वेरा के एक कथन का उल्लेख करते हुए कहा 'मेरे गिरने के बाद अगर कोई दूसरा मेरी बंदूक उठाकर लड़ाई जारी रखता है तो मुझे कोई परवाह नहीं है। चे ग्वेरा के यह शब्द बुरहान वानी के शब्द भी हो सकते थे।

इससे अधिक गंभीर और विस्तृत प्रतिक्रिया जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की थी। उन्होंने कहा कि जिंदा रहते हुए सोशल मीडिया के मार्फत वह जो कुछ कर सकता था, मौत के बाद ज्यादा खतरनाक साबित होगा।

उन्होंने अपने ट्वीटर एकाउंट पर लिखा कि मेरे शब्दों पर गौर करें। आतंकवादियों की भर्तियां बुरहान जितनी अपनी मौत के बाद कर सकता है, वह उस सबकुछ से कहीं ज्यादा है जो कुछ वह सोशल मीडिया के जरिए कर सकता था।

उमर अब्दुल्ला ने एक अन्य ट्वीट में कहा कि बुरहान न तो बंदूक उठाने वालों में पहला है और न ही वह आखिरी है। नेशनल कॉन्फ्रेंस ने यह हमेशा कहा है कि एक राजनीतिक समस्या का निदान राजनीतिक तरीके से ही हो सकता है।

उमर अब्दुल्लाह के बयान की भारत में बहुत से लोगों ने आलोचना भी की है लेकिन यह तय है कि उनकी बात में गहराई है और ज़मीनी हालात को दृष्टिगत रखकर उन्होंने यह बयान दिया है। कश्मीर के हालात पर नज़र रखने वाले कहते हैं कि बहुत कुछ बदला है। पहले जब अलगाववादियों और सुरक्षा बलों के बीच झड़पें होती थीं तो लोग शरण के लिए सुरक्षित स्थानों की ओर भागते थे मगर अब लोग विशेष रूप से युवा हंगामे वाले स्थानों का रुख़ कर रहे हैं। यह बदलाव रातों रात नहीं हुआ है। कुछ हल्क़े कहते हैं कि कश्मीर विवाद को हल करने के लिए सरकार की ओर से अब तक सारे प्रयास विफल रहे। सन 2013 में अफ़ग़ल गोरू की फ़ांसी के बाद लोगों में और हताशा पैदा हुई तथा उनका रवैया बदलने लगा। इस बीच दफ़ा 370 का चर्चा में आना। पंडितों के लिए कश्मीर में अलग कालोनियां बनाने का मुद्दा यह सारे विषय जलती पर तेल का काम करते रहे। बीफ़ बैन पर भी कश्मीर में काफ़ी तीखी प्रतिक्रिया रही।

कश्मीर के राइज़िंग अख़बार के एडिटर शुजाअत बुख़ारी अनेक मुद्दों की ओर ध्यान केन्द्रित करवाते हैं।

बुख़ारी

कुछ टीकाकार यह भी मानते हैं कि महबूबा मुफ़्ती की पीपल्ज़ डेमोक्रेटिक पार्टी पीडी ने भाजपा से जब गठजोड़ कर लिया तो इसका भी लोगों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है क्योंकि इस पार्टी ने भाजपा के विरुद्ध प्रचार करके वोट हासिल किए थे और युवाओं को राजनैतिक रूप से सक्रिय किया था।

अब हालात यह है कि कश्मीर में यदि कोई अलगाववादी छापामार मारा जाता है तो उसकी नमाज़े जनाज़ा में बहुत बड़ी संख्या में लोग भाग  लेते हैं। लश्करे तैयबा के कमांडर अबू क़ासिम की नमाज़े जनाज़ा में बताया जाता है कि 30 हज़ार से अधिक लोगों ने भाग लिया जबकि राज्य के मुख्य मंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की नमाज़े जनाज़ा में भाग लेने वालों की संख्या इसकी तुलना में बहुत कम थी।

बुरहान वानी की मौत के बाद जो कश्मीर में हालात बन रहे हैं, उससे लगता है कि लोगों के अंदर बहुत ज़्यादा गुस्सा था. ख़ासकर यहां के युवा काफ़ी गुस्से में हैं। क्योंकि बुरहान वानी एक यूथ आइकॉन की तरह उभरा था. कश्मीर के युवाओं को लग रहा था कि बुरहान युवाओं का गुस्सा लेकर भारत सरकार से लड़ रहा है. लेकिन सरकार इस बात को समझने में ग़लती कर गई, वो कश्मीर के युवाओं के गुस्से को समझने में नाकाम रही।

टीकाकार कहते हैं कि वानी के सफ़ाए को सुरक्षा बल अपनी बड़ी कामयाबी मान रहे हैं लेकिन एसा लगता है कि यह कामयाबी बहुत महंगी साबित होगी औ सुरक्षा बलों ने मिलिटेंसी को कमज़ोर करने के लिए वानी के सफ़ाए के रूप में जो क़दम उठाया है वह मिलिटेंसी में नई जान डाल सकता है। इस तरह देखा जाए तो परिस्थितियों का बहुत सूक्ष्म ढंग से जायज़ा लेने की ज़रूरत है और बहुत फूंक फूंक कर क़दम उठाना चाहिए।