तकफ़ीरी आतंकवाद-24
मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब और मोहम्मद बिन सऊद की आपसी सहमति से दोनों के हित पूरे हुए।
एक ओर मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब को मौक़ा मिला कि अपने कट्टरपंथी और रूढ़िवादी विचारों को ज़्यादा से ज़्यादा फैलाएं और मोहम्मद बिन सऊद को अपनी शक्ति और शासन का दायरा बढ़ाने का मौक़ा मिला। इस परस्पर सहयोग में जो बिंदु बहुत रोचक है वह अधिकारों और सीमाओं का बंटवारा है। इस बंटवारे के तहत धार्मिक मामले और धार्मिक प्रचार के विषय मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब और उनके ख़ानदान आले शैख़ को मिल गए और राजनीति व सत्ता के विषय मोहम्मद बिन सऊद और उनके परिवार आले सऊद के हाथ में चले गए। वहाबी विचारधारा का एक महत्वपूर्ण दायित्व आले सऊद के शाही शासन को धार्मिक संरक्षण देना है। जबकि आले सऊद ख़ानदान मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के इस्लाम विरोधी विचारों के प्रचार प्रसार के लिए अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराता है।
इन दोनों के आपसी संबंधों में एक मध्यस्थ भी था और वह मध्यस्थ ब्रिटेन था। वहाबी विचारधारा की बुनियाद राजनीति और सत्ता की छत्रछाया में मज़बूत हुई। इस में कोई शक नहीं कि सऊदी अरब के भीतर मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब और दरईया के शासक मोहम्द बिन सऊद के संबंध से वहाबियत को संरक्षण मिला। लेकिन एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि वहाबियत मज़बूत धार्मिक आधार और प्रतिभावान नेतृत्व के बग़ैर किस तरह इस बड़े स्तर पर फैल गई और बड़ी बड़ी रुकावटों से गुज़रती चली गई? उस समय वहाबियत के सामने कम से कम तीन बड़ी रुकावटें मौजूद थीं। एक जनमत और इस्लामी धर्मगुरुओं का विरोध था धर्मगुरुओं का तबक़ा मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के आंदोलन को इस्लामी सिद्धांतों के विरुद्ध मानता था। इस आंदोलन के विरोध का दायरा इतना फैला हुआ था कि मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के पिता और भाई भी इस विरोध में शामिल थे। उसके पूर्वजों के वजह से सब पहचानते थे। यहां तक कि हुरैमला, अईनह में भी जहां मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब को मिली इस आंदोलन का विरोध किया गया।
दूसरी रुकावट स्थानीय शासकों की ओर से वहाबी आंदोलन का विरोध था। रियाज़ और अईना के शासक वहाबियों को नापसंद करते थे और रियाज़ कई साल तक सऊदी शासकों और दूसरों के क़ब्ज़े में जाता रहा। तीसरी बड़ी रुकावट यह थी कि मक्के और मदीने के शासक, दरईया के शासक मोहम्मद बिन सऊद, मिस्र के पाशा जो उसमानी साम्राज्य के तहत शासन करते थे वहाबी आंदोलन का इस्लामी सिद्धांतों से उसके टकराव के कारण विरोध करते थे। इतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि वहाबी प्रचारक इतने बड़े विरोध का सामना नहीं कर पा रहे थे और यही कारण है कि दो कालखंड एसे आए है कि वहाबी व्यवस्था का पूरी तरह अंत हो गया। मिस्र की सेना ने भी सऊदियों का दमन करने के बाद सऊदी परिवार और शासक को इस्तांबूल भेज दिया तथा उसके समर्थकों के सिर क़लम कर दिए गए। बड़े अचरज की बात है कि जो विचारधारा अपने जन्म स्थान पर फैलने में विफल रही थी प्रवास के दौरान एक अन्य देश में जड़ पकड़ने लगी। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ब्रिटेन ने यह भांप लिया था कि प्राचीन साम्राज्यवाद का समय गुज़रता जा रहा है तथा उपनिवेशों में प्रत्यक्ष रूप से शासन कर पाना कठिन हो गया है अतः उसने मुस्लिम देशों में अपनी पांव जमाने के लिए अप्रत्यक्ष उपस्थिति के रास्ते खोजना शुरू कर दिये थे। इसी लिए मुस्लिम देशों में साम्राज्यवादी व्यवस्था की कार्यशैली में बदलाव आया और एक नया रूप सामने आया जिसे नवीन साम्राज्यवाद कहा जाता है। नवीन साम्राज्यवद का एक महत्वपूर्ण पहलू यह था कि मुसलमानों के भीतर मतभेद को हवा दी गई और धार्मिक व सांप्रदायिक युद्ध की आग भड़काई जाने लगी।
ब्रिटेन ने यह चाल इस लिए चली कि इस्लामी देश अपने भौगोलिक संसाधनों और समृद्ध संस्कृति के आधार पर विकास न कर सकें। इस दौरान ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नीतियां दो बिंदुओं पर मुख्य रूप से केन्द्रित रहीं। एक तो एसे लोगों को तलाश करना जो जाली धर्म बनाकर साम्राज्यवादी शक्तियों के हितों को पूरा करें। दूसरे इस्लामी जगत के भीतर धर्म विरोधी और दिगभ्रमित विचारधाराओं का समर्थन। वरना इसमें लिबरल, राष्ट्रवादी और सलफ़ी वहाबी विचारधाराएं शामिल हैं जो विशुद्ध इस्लामी विचारधारा से टकराव रखती हैं। वहाबियत के बारे में यहां यह सवाल उठता है कि क्या शुरू से ब्रिटेन ने ही इस विचारधारा को बनाया या इस विचारधारा का प्रचार शुरू हो जाने और आले सऊद शासन के तीसरे चरण के दौरान ब्रिटेन को यह महसूस हुआ कि बांटो और राज करो की उसकी नीति से वहाबी विचारधारा तालमेल रखती है? इसका अर्थ यह है कि यदि वहाबी विचारधारा को अस्तित्व में लाने और उसके जनक व प्रचारक मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब को संरक्षण देने में ब्रिटेन की भूमिका के स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं तो इसका कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि ब्रिटेन ने इस विचारधारा के दब जाने और अरब प्रायद्वीप से इसके निकल जाने के बाद उसमें नई जान डालने में बुनियादी भूमिका निभाई थी।
बहुत से साक्ष्य मौजूद हैं जिनसे ब्रिटिश जासूसों और मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के गहरे संबंधों का रहस्योदघाटन होता है। यह संबंध उस समय से थे जब मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब शिक्षा ग्रहण कर रहे थे और अभी उन्होंने अपनी विचारधारा का प्रचार शुरू नहीं किया था। इस्लामी देशों में ब्रिटेन के विख्यात जासूस हम्फ़रे की स्वीकारोक्ति पर आधारित एक छोटी सी किताब में मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब से ब्रिटिश ख़ुफ़िया एजेंसी के गहरे संबंधों के बारे में बताया गया है। इसमें यह भी बताया गया कि किस तरह ब्रितानी ख़ुफ़िया एजेंसी ने मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के व्यक्तित्व की अपनी इच्छा के अनुसार रचना की और उसके मन में नए नए संदेह और सवाल उत्पन्न किए। वैसे कुछ लोगों ने इस किताब के बारे में सवाल उठाए हैं और कहा है कि हम्फ़रे नाम का कोई व्यक्ति था ही नहीं। यह किताब वहाबियत के दुशमनों ने अपनी तरफ़ से लिख दी है। लेकिन जिस तरह पढ़े लिखे लोगों के बीच इस किताब को ख्याति मिली और उसका कई भाषाओं में अनुवाद किया गया उससे पता चलता है कि किताब में जो बातें बयान की गई हैं वह सही हैं। इस किताब की सत्यता का अनुमान इसमें मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के व्यक्तित्व और विचारों की चर्चा है।
इन साक्ष्यों और तथ्यों के बाद भी यदि हम यह कहें कि मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के प्रशिक्षण और वहाबी विचारधारा की रचना में ब्रिटेन की भूमिका नहीं थी तो इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि ब्रिटेन ने वहाबियत को नए सिरे से खड़ा किया है। बहरहाल इन दोनों स्थितियों का नतीजा एक ही है। यानी यह कि यदि वहाबियत की आधारशिला ब्रिटेन ने नहीं रखी है तब भी उसने इस्लामी देशों में साम्राज्यवाद के लक्ष्य पूरे करने के लिए अपना काम पूरी चतुराई से किया है। बीसवीं शताब्दी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के लिए बड़ी सफलताओं वाली शताब्दी थी। इस कालखंड में ब्रिटेन के इशारे पर काम करने वाले एजेंट और सरकारें मध्यपूर्व और फ़ार्स खाड़ी में बहुत अच्छी तरह स्थापित हो गयी थे। क्योंकि ब्रिटेन अपनी रणनीति बदलते हुए प्रत्यक्ष उपस्थिति के बजाए एसे घटकों की तलाश में था जो उसके हितों के रक्षक बनें। इसी कारण वह क्षेत्र के शासकों और क़बीलों के संबंध में प्रलोभन और धमकियों का सहारा लेकर मध्यपूर्व और फ़ार्स खाड़ी पर अदृश्य वर्चस्व स्थापित करने की जुगत में लगा हुआ था। लेकिन इन परिस्थितियों के बावजूद इस्लामी जगत और विशेष रूप से सुन्नी दुनिया में ब्रिटिश वर्चस्ववाद के सामने एक चुनौती थी और वह चुनौती थी ख़स्ताहाल उसमानी साम्राज्यवाद का अस्तित्व। ब्रिटेन इस कोशिश में था कि क्षेत्र में अपने घटकों की मदद से उसमानी शासन के ताबूत में आख़िरी कील ठोंके। उसमानी शासन उस समय अंतिम सासें ले रहा था लेकिन सुन्नी जगत में उसे ख़िलाफ़त के प्रतीक के रूप में देखा जाता था और वह सुन्नी जगत का वांछित शासन था।
ईरान, इराक़, तथा फ़ार्स खाड़ी के तटीय स्टेट्स में ब्रिटेन के वर्चस्व के अलावा अरब प्रायद्वीप उस समय कई भागों में बंटा हुआ था। पश्चिमी क्षेत्र में मक्का, जिद्दह, मदीना और ताएफ़ शामिल थे और शरीफ़ाने मक्का का इस क्षेत्र पर शासन था। वह विदित रूप से उसमानी शासन के अधीन थे लेकिन ब्रिटेन से संबंध स्थापित करने में उनकी रूचि थी। दक्षिणी भाग में जहां बाबुल मंदब स्ट्रेट स्थित है ब्रिटिश जहाज़ों की भारत आवाजाही का मार्ग था। वहां ब्रिटिश जहाज़ों की सुरक्षा के लिए जिनमें भारतीय उपमहाद्वीप से लूटी गई दौलत ब्रिटेन जाती थी, ब्रितानी सैनिक तैनात थे। पूर्वी भाग में जहां एहसा और क़तीफ़ स्थित हैं स्थानीय शासक थे जिनका रुजहान उसमानी शासन की ओर था। मध्यवर्ती भाग में जिसमें नज्द और आसपास के क्षेत्र आते हैं आले रशीद हुकूमत करते थे। आले रशीद ने वहाबियत का सफ़ाया करके नज्द क्षेत्र का अधिकार अपने हाथ में ले लिया था वह उसमानी शासन के घटकों में गिने जाते थे। चूंकि वहाबियत की दुशमनी में दोनों के बीच समानता थी अतः वह एक दूसरे के निकट हो गए थे। ब्रिटेन को पता था कि भविष्य में इस अरब प्रायद्वीप का का कितनी महत्वपूर्ण भूमिका होगी। विशेषकर इस लिए भी कि इसी क्षेत्र में मक्का और मदीना के पवित्र स्थल भी स्थित थे। ब्रिटेन के क़दम इस क्षेत्र में पहुंच तो गए थे लेकिन उसे फिर भी चिंता थी कि कहीं उसमानी शासन इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने में सफल न हो जाए।
ब्रिटेन और आले सऊद के बीच विधिवत रूप से संबंध वर्ष 1282 हिजरी क़मरी में शुरू हुए। इसके बाद से ब्रिटेन और अब्दुल अज़ीज़ के बीच दो लक्ष्यों के कारण रिश्ते बहुत मज़बूत हुए। एक था अरब प्रायद्वीप में एसा घटक पैदा करना जो ब्रिटेन के हितों की रक्षा करे और आगे चलकर पूरे क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित कर ले और दूसरा लक्ष्य था इस क्षेत्र में उसमानी शासन के प्रभाव को समाप्त करदिया जाए जहां आले रशीद और विदित रूप से शरीफ़ाने मक्का व मदना उसमानी शासन का प्रतिनिधित्व करते थे। इन परिस्थितियों में वहाबियत जिसका प्रतीत आले सऊद सरकार थी ब्रिटेन के लिए सबसे अच्छा विकल्प साबित हुई।