Sep ०४, २०१६ १६:१६ Asia/Kolkata

हमने पिछले कुछ कार्यक्रमों में वहाबी विचारधारा के संस्थापक मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब तथा आले सऊद ख़ानदान से उनक तालमेल, वहाबी विचारधारा के प्रसार और इस पूरी प्रक्रिया में ब्रिटेन की भूमिका के बारे में बात की।

पिछले कार्यक्रमों का एक प्रमुख बिंदु यह था कि वहाबी विचारधारा में धार्मिक व तार्किक आकर्षण का अभाव था अतः यह विचारधारा पैसे और ताक़त के बलबूते पर फैलाई गई। वहाबियात के इतिहास का कोई भी अध्याय एसा नहीं है कि जिसमें वहाबियत ने धन और शक्ति का प्रयोग किए बिना अपना विस्तार करने में सफलता पाई हो। इस प्रकार वहाबी विचारधारा को तलवार की विचारधारा कहना ग़लत नहीं होगा। वहाबियों ने अपने संघर्ष में धर्म से अंध विश्वासी बातों को दूर करने नहीं बल्कि मुसलमानों की संपम्ति लूटने पर ध्यान केन्द्रित रखा है और इसके लिए तौहीद अर्थात एकेश्वरवाद का सहारा लिया है। यह बात वहाबियों की शत्रुओं ने नहीं खुद वहाबी लेखकों जैसे इब्ने बशर और इब्ने ग़नाम ने विस्तार से बयान की है।

अहमद मुसतफ़ा अबू हाकेमा अपनी किताब लमउश्शहाब फ़ी सीरिते मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब में ज़कात और युद्ध में मिलने वाले धन के आंकड़े बयान किए हैं। इसी लिए बहुत से अनुसंधानकर्ता यह मानते हैं यदि वहाबियों की यह लूट पाट न होती तो वहाबियत अपना जीवन हरगिज़ जारी न रख पाती। मुसलमानों को लूटकर वहाबी और आले सऊद तथा आले शैख़ परिवार धनी हो गए जबकि दूसरी ओर आम मुसलमानों की ज़िंदगी बर्बाद हो गई। इब्ने बशर ने अपनी पुस्तक उनवानुल मज्द फ़ी तारीख़िन्नज्द में वहाबियों  की राजधानी दरईया की मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब का अभियान शुरू होने से पहले और बाद की हालतों का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा कि दरईया के निवासी वहाबी अभियान शुरू होने से पहले तक बड़ी ग़रीबी में थे लेकिन वहाबी अभियान शुरू हो जाने और आले सऊद की शक्ति बढ़ जाने के बाद हमने देखा कि दरईया में इतना हथियार और पैसा है जो किसी भी अन्य स्थान पर नहीं है। पूरा शहर क़ीमती पत्थरों से सजा हुआ। हर तरफ़ अरबी नस्ल के घोड़े, अच्छे और महंगे कपड़े पहने लोग नज़र आने लगे जिसे बयान करना आसान नहीं है। इब्ने बशर आगे कहते हैं कि मैं दरईया के बातिन नामक टीले पर खड़ा था वहां से मैने देखा कि पश्चिम में आले सऊद के महल बने हुए हैं इस क्षेत्र को तरीफ़ कहा जाता था। पूरब की ओर से जिसे बुजैरी कहा जाता है मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के परिवार के महलों की क़तार थी। इस परिवार को आले शैख़ कहा जाता है। इब्ने बशर के अनुसार एहसा क्षेत्र से प्राप्त होने वाले धन का एक तिहाई भाग आले सऊद और आले शैख़ को मिलता था।

राजा सऊद के पास एक बड़ा महल था जिसके भीतर कई भाग थे और हर भाग में महिलाएं और सेविकाएं रखी गई थीं रानियों और राजकुमारियों के कपड़े भारतीय रेशम से तैयार होते थे जिनपर सोने का काम किया जाता था। एहसा के दक्ष रसोइये उनकी पसंद के खाने पकाने में व्यस्त रहते थे। सऊद के एक बेटे की शादी में 140 ऊंट नहर किए गए। मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब की माली हालत सऊद से भी अच्छी थी। वह औरतों के रसिया कहे जाते थे और अपने जीवन में उन्होंने बीस महिलाओं से शादी की जिनसे उनकी 18 संतानें हुईं। लमउश्शहाद पुस्तक के लेखक के अनुसार मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब और उनके परिवार के पास बहुत अधिक ज़मीनें थीं जबकि सरकारी ख़ज़ाने का भी बड़ा भाग उनके अपने ख़र्चे के लिए होता था। विभिन्न क्षेत्रों के ज़मीदार उनके लिए उपहार भेजते रहने पर बाध्य थे। उनकी संतानें जो आले शैख़ कही जाती थीं मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के मर जाने के बाद उस धन की मदद से जो उन्होंनें मुसलमानों से हड़पा था विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करती रहीं। बाद के कलखंडों में भी यही स्थिति दिखाई देती है। तीसरे दौर में सऊदी परिवार का भ्रष्टाचार हमेशा सऊदी अरब के मामलों के विशेषज्ञों की दृष्टि का केन्द्र बना लेकिन आले शैख़ ने इस परिवार से अपने संबंधों के कारण न केवल यह कि इसका विरोध नहीं किया बल्कि सऊदी परिवार और इस परिवार के राजकुमारों का हमेशा समर्थन किया।

वहाबियत के इतिहास पर नज़र  डालने से यह बात साफ़ हो जाती है कि वहाबियों ने विशेष रूप से धन और संपत्ति के लिए मुसलमानों पर हमले किए और इसके लिए उन्होंने पहले मुसलमानों को काफ़िर घोषित कर दिया। वहाबियों का दूसरा लक्ष्य यह था कि इस्लामी समाजों में आले सऊद परिवार के वर्चस्व का दायरा बढ़े। जैसा कि मोहम्मद बिन सऊद ने मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब से अपनी पहली मुलाक़ात में कहा कि उन्हें यह चिंता है कि शत्रुओं की पराजय के बाद कहीं कोई और ख़ानदान आले सऊद का स्थान न ले ले। वहाबियत के सभी युगों में यह रूजहान देखने में आया। यहां तक कि तीसरे चरण में आले सऊद का शासन पूरे अरब प्रायद्वीप पर फैल गया और इसका नाम सऊदी अरब रख दिया गया। इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि वहाबियत ने आले सऊद की विस्तारवादी नीतियों की बड़ी सेवा की है। उन्होंने एकेश्वरवाद के नारे की मदद लेकर अपने विस्तारवादी लक्ष्य पूरे किए और ब्रिटेन की मदद से आले सऊद का शासन पूरे अरब प्रायद्वीप में फैल गया।

इस प्रकार ज़रूरतों के तहत आले सऊद और आले शैख़ परिवार एक दूसरे से जुड़ गए। वहाबियत ने तलवार और इससे प्राप्त होने वाली दौलत की मदद से अपना अस्तित्व जारी रखा जबकि आले सऊद ने वहाबियत को अपना नारा बनाकर अपनी दौलत और अपना क़ब्ज़ा बढ़ाया। समकालीन वहाबी तो बहुत कुछ दावे करते हैं लेकिन सत्य यह है कि वहाबियों के हमलों का निशाना केवल शिया नहीं बने बल्कि मुख्य रूप से उन्होंने सुन्नी और समुदाय और उनमें भी विशेष रूप से हंबली मत के सुन्नियों को अपना शिकार बनाया। हालांकि वर्तमान समय के वहाबी यह प्रचार करते हैं कि उनकी दुशमनी केवल शियों से है। उन्होंने इसी चाल के तहत पहले सुन्नियों को अपने साथ मिलाया और फिर बाद में सुन्नी मत के लोगों को ही डसना शुरू कर दिया। विभिन्न कालों में वहाबियों ने सुन्नी मुसलमानों का जो जनसंहार किया है और उन्हें लूटा है उसका अध्यनन करके यह सच्चाई सामने आती है कि मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने धर्म के बारे में जो विचार पेश किया उसके तहत सारे मुसलमानों को काफ़िर घोषित कर दिया। सबसे पहले नज्द के मुसलमानो को काफ़िर ठहराया गया। मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के विचार में नज्द के सारे लोग काफ़िर थे और उनका ख़ून बहाना, उनकी महिलाओं और संपत्ति को लूटना जायज़ था। उनके विचार में मुसलमान केवल वही था जो मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब की विचारधारा को माने। इस सोच के आधार पर नज्द के मुसलानों के जनसंहार का रास्ता साफ़ हो गया और सबसे पहले जिस शहर पर वहाबियों का बर्बर हमला हुआ वह रियाज़ था जो आज सऊदी अरब की राजधानी है यह शहर दरईया के क़रीब स्थित है। रियाज़ और दरईया के बीच लड़ाई कुल मिलाकर लगभग 30 साल तक चली। रियाज़ के शासक दआम बिन दवास की शक्ति के कारण मोहम्मद बिन सऊद रियाज़ पर क़ब्ज़ा नहीं कर पा रहा था। इस युद्ध में चार हज़ार जानें गईं और बहुत बड़ी संख्या में संपत्ति का नुक़सान हुआ। इन लड़ाइयों से केवल तबाही हुई। वर्ष 1187 हिज़री क़मरी में अर्थात लगभग ढाई सौ साल पहले मोहम्मद बिन सऊद के बेटे अब्दुल अज़ीज़ ने अपराधी प्रवृत्ति के लोगों की सेना के साथ रियाज़ पर हमला किया और पूरे शहर के लोगों को मौत के घाट उतार दिया, महिलाओं को दासी बना लिया। रियाज़ में एक भी पुरुष ज़िंदा नहीं छोड़ा गया। हर व्यक्ति को अपने वतन से लगा होता है। इस संदर्भ में पैगम्बरे इस्लाम की एक हदीस भी है जिसमें उन्होंने कहा कि वतन से मोहम्मद ईमान की निशानी है। ऐनीया शहर मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब और उनके पूर्वजों का शहर था। इस शहर में उनके पिता कई साल तक क़ाज़ी थे। इस शहर के लोग हंबली मत के मानने वाले थे। लेकिन इस शहर के लोगों पर भी शुरू ही में हमला किया गया और यह हमला मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के फ़तवे के आधार पर मोहम्मद बिन सऊद ने किया।

ऐनीया शहर के शासक उसमान बिन मुअम्मर को जब मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के इस्लाम से विरोधाभास रखने वाले विचारों के बारे में मालूम हुआ तो उन्होंने मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब को शहर से निकाल दिया। मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने शासक के कट्टर दुशमन मोहम्मद बिन सऊद की शरण ली जो दरईया का शासक था। वहीं से मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने उसमान बिन मुअम्मर के काफ़िर होने का फ़तवा दे दिया। इस फ़तवे के कारण मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के मानने वालों ने उसे वर्ष 1169 हिजरी क़मरी में रजब महीने में नमाज़े जुमा के बाद क़त्ल कर दिया। इसके बाद मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब शहर में लौटे और वहां एक व्यक्ति को शासक नियुक्त कर दिया। वहाबी विचारधारा से परेशान होकर शहर के लोगों ने विद्रोह करना चाहा तो मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने उनके विद्रोह को निर्दयता से कुचल दिया। शहर के बच्चों तक के सिर क़लम कर दिए गए और महिलाओं को बंदी बना लिया गया। घरों को ध्वस्त कर दिया गया और खेतों को जला दिया गया। इसके बाद एनीया शहर खंडहर में परिवर्तित हो गया। जो भी शहर वहाबी विचारधारा को मानने से इंकार करता उसका यही अंजाम कर दिया जाता था। यही सब कुछ आज दाइश तथा उससे जुड़े तकफ़ीरी संगठन अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों में कर रहे हैं। यह संगठन भी आले सऊद और वहाबियत से प्रेरित होकर अमानवीय अपराध कर रहे हैं।

 

 

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