Sep १७, २०१६ १३:०९ Asia/Kolkata

हमने बाल यौन शोषण की समस्या और उसके इतिहास पर एक नज़र डाली थी।

बाल एवं महिला अधिकार संगठनों द्वारा उपलब्ध करवाये गए आंकड़ों के आधार पर यह स्पष्ट है कि वर्तमान समय में कि जिसे आधुनिक काल कहा जाता है, इस अभिशाप में कहीं अधिक वृद्धि हुई है और यह किसी एक संस्कृति या देश की सीमाओं में सीमित नहीं है।

निःसंदेह, वर्तमान समय में दुनिया भर में बड़े पैमाने पर बाल यौन शोषण की घटनाएं दर्शाती हैं कि हमने बच्चों की सही परवरिश और समय पर उन्हें यौन शिक्षा देने में लापरवाही बरती है।

बाल यौन शोषण का एक मुख्य कारण लापरवाही है। इस तरह की अधिकांश घटनाएं उस समय होती हैं जब, मां-बाप लापरवाही से काम लेते हैं। ऐसे परिवारों में कि जिनमें महिलाएं घर से बाहर कार्य करती हैं और बच्चों को देखभाल के लिए दूसरे लोगों को सौंप दिया जाता है, बाल यौन शोषण की घटनाएं अधिक देखने में आती हैं।

बच्चों के साथ यौन दुर्व्यवहार की समस्या से यूं तो समस्त समाज ग्रस्त हैं, लेकिन जीवन शैली का अंतर और विभिन्न प्रकार की संस्कृतियों के कारण यह समस्या कुछ देशों और समाजों में कहीं अधिक गंभीर है।

जैसा कि कहा जाता है, रोकथाम उपचार से बेहतर है, बाल यौन शोषण की समस्या के संबंध में भी रोकथाम का महत्व बहुत अधिक है। इसलिए मां-बाप को कभी भी इस बात की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए कि सामना होने के बाद ही इस समस्या का निदान किया जाएगा। बल्कि मां-बाप की ज़िम्मेदारी होती है कि वे ऐसी परिस्थितियों को उत्पन्न ही न होने दें, जिससे उनके बच्चों की मासूमियत भंग हो और उनका व्यक्तित्व लहूलुहान हो जाए।

एलफ़्रेड चार्ल्स किन्ज़ी द्वारा 1950 के एक अध्ययन के अनुसार पांच महीने की उम्र से ही बच्चे यौनभिज्ञ होने लगते हैं। वे सारे स्पर्शों को केवल शारीरिक माध्यम से ही ग्रहण करते हैं। दूसरा तरीक़ा जो सामाजिक व्यवहार से अर्जित होता है, वह उन में लम्बे समय तक विकसित नहीं होता। उचित और अनुचित का सामाजिक बोध उन्हें पांच वर्ष की आयु के बाद समझ में आने लगता है। इसलिए और भी आवश्यक है कि बच्चों की शारीरिक क्रियाओं से पैदा होने वाले आभासों और उत्तेजनाओं को बाहरी हस्ताक्षेपों से दूषित न किया जाए।

आर्थिक और सामाजिक संरचनाओं की भिन्नता के कारण ऐसा लग सकता है कि बाल यौन शोषण की स्थिति अलग-अलग भूभागों में काफ़ी भिन्न है। लेकिन जब हम विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा किए गए अध्ययनों और आंकड़ों पर नज़र डालते हैं तो देखते हैं कि अधिक अंतर नहीं है। दूर से देखने में भिन्न स्थितियों वाले समाजों भारत, पश्चिम और अफ्रीक़ा में यौन शोषण विशेषकर बाल यौन शोषण के आंकड़ों में चौंका देने वाला अंतर नहीं है।

विशेष रूप से इस विषय पर 1950 के बाद से आंकड़े आने शुरू हुए। हालांकि सही स्थिति का जायज़ा 1975 के बाद ही हुआ। बहुत सी संस्थाओं ने विश्व भर में इस स्थिति पर काम करना शुरू किया। भारत में कई संस्थाओं ने इस ओर ध्यान दिलाने का काम किया।

The Children We Sacrifice डॉक्यूमैंट्री के अनुसार, 1997 में साक्षी संस्थान द्वारा दिल्ली की 350 स्कूली छात्राओं के सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ कि 63 प्रतिशत लड़कियों का पारिवारिक सदस्यों द्वारा शोषण हुआ। इनमें से 25 प्रतिशत का बलात्कार हुआ। 1999 में टाटा इंस्टीट्‌यूट ऑफ़ सोशल सर्विसिज़ द्वारा 1994-95 में मुम्बई की 150 लड़कियों के अध्ययन के अनुसार, 58 प्रतिशत लड़कियों का यौन शोषण दस वर्ष की उम्र से पहले हुआ, 58 में से 50 प्रतिशत का शोषण करने वाले परिजन या निकट परिचित ही थे। 1997 में दिल्ली में राही संस्थान द्वारा दिल्ली, मुम्बई, कोलकता और गोआ में रहने वाली 1000 मध्यवर्गीय और उच्चवर्गीय लड़कियों के अध्ययन में सामने आया कि इनमें 76 प्रतिशत का शोषण बचपन में हो चुका था। इनमें 71 प्रतिशत का शोषण परिवार के किसी सदस्य या निकट परिचित ने किया।

यह आंकड़े समाजशास्त्रियों के तथ्य भले ही हों, सामाजिक तथ्य नहीं हैं। निश्चित ही समस्या आंकड़ों से कहीं अधिक गंभीर और व्यापक है।

अमरीकी समाज में आए दिन आंकड़े आते हैं और बदलते हैं। लेकिन तथ्य कुछ इस प्रकार है कि लगभग 62 प्रतिशत स्त्रियां और 31 प्रतिशत पुरुष अपने बचपन में ही शोषित हो चुके होते हैं।

सिग्मंड फ़्रॉयड शायद वह पहला मनोवैज्ञानिक था जिसने खुलकर कहा था कि हिस्टीरिया बीमारी उसके कुछ मरीज़ों को इसलिए है, क्योंकि बचपन में उनके साथ यौन अत्याचार हुआ था। फ़्रॉयड ने अपने खुद के बचपन की यादों के बारे में साफ़ कहा कि वे काल्पनिक बातें नहीं हैं। लेकिन आगे चलकर फ़्रॉयड ने अपनी बाल यौन विकास की धारणा के आधार पर बच्चों को ही दोष दे डाला। बाद में मेसन और मिलट जैसे मनौवैज्ञानिकों ने कहा कि फ़्रॉयड ने साहस की कमी के कारण यह सब कहा।

जो बच्चे यौन शोषण का शिकार होते हैं, विशेष रूप से अगर यह शोषण हिंसा के साथ होता है तो वे post-traumatic stress disorder या घटना के बाद के तनाव से ग्रस्त हो जाते हैं। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि उनके मस्तिष्क के तीनों भाग प्रभावित हो सकते हैं। गहरे में स्थित हाईपोथैलेमस-(Hypothalamus) जो यौन परिपक्वता को निर्देशित करता है और उसे हमारे भावनात्मक प्रसारण से जोड़ता है, काफ़ी हद तक अनियन्त्रित हो जाता है। बीच वाला भाग अमिगडैला-(Amygdala)  वीभत्स क्षणों, भयानक अनुभवों और कड़वी यादों की पुनरावृत्ति करता रहता है। बार बार वही भयानक दृश्य मुंह खोले सामने आकर खड़े हो जाते हैं। मस्तिष्क का तीसरा मुख्य भाग हिपोकैम्पस-(Hippocampus) शोषण के कुप्रभाव में बौद्धिक विकास को क्षीण कर देता है।

इसका मतलब है कि उनके साथ जो दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई है वह तो समाप्त हो गई, लेकिन वह दिमाग़ पर नकारात्मक भावनाओं का अमिट प्रभाव छोड़ गई है। ऐसी स्थिति में आत्मसम्मान ख़तरे में पड़ जाता है। बच्चा उसे याद करके ही सिहर जाता है। यहां तक कि अगर वह अपने ऊपर निंयत्रण करने का प्रयास करता है तो चिंताओं का यह हमला अपना दायरा विस्तृत कर लेता है। अब बच्चा किसी बंद जगह और ऊंची आवाज़ से डरने लगता है और धीरे धीरे यह डर उसके मन में बैठ जाता है।

इसके अन्य लक्षणों में से अलग थलग रहने की आदत है। संभव है इसके बाद बच्चा ख़ुद से ही नफ़रत करने लगे। सामाजिक भय समाज से घृणा में भी बदल सकता है। हालांकि बच्चे की आयु और यौन शोषण की घटना की निरंतरता भी उसके मन और शरीर को विभिन्न रूप से पभावित करते हैं। बच्चे के मन पर पड़ने वाले कुप्रभाव उसके जीवन के अंत तक उसका साथ नहीं छोड़ते हैं। संभव है अंतिम सांसों तक उसके मन पर गुनाह के एहसास का बोझ रहे और वह न किए गुनाहों के बोझ तले दबा रहे। यहां तक कि वह अवसाद का शिकार हो जाए और अपने ही हाथों अपना जीवन समाप्त करने का विचार मन में लाए।