Sep १७, २०१६ १३:२३ Asia/Kolkata

समाज में बाल यौन शोषण की समस्या और बच्चों को उससे सुरक्षित रखने के लिए उनके पालन-पोषण की शैली पर हमारी चर्चा जारी है।

मनोविज्ञान में विभिन्न आयु के बच्चों के यौन शोषण के लिए पीडोफ़ीलिया, हेबेफ़िलिया और एफ़ेबोफ़िलिया जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। पीडोफ़ीलिया को आमतौर पर वयस्कों या बड़े उम्र के किशोरों में मानसिक विकार के रूप में परिभाषित किया जाता है।

डाइगनोस्टिक एंड स्टेटिसटिकल मैनुअल ऑफ़ मेंटल डिसऑर्डर्स जीएसएम के अनुसार पीडोफ़ीलिया एक प्रकार का पैराफ़ीलिया है, जिसमें एक व्यक्ति छोटे बच्चों की ओर यौन आग्रहों की दिशा में कल्पनाशील हो जाता है, जिसके बाद वह या तो यथार्थ में इसे पूरा करता है और बाल यौन दुर्व्यवहार का कारण बनता है।

आम उपयोग में पीडोफ़ीलिया का अर्थ है, किसी भी बच्चे के प्रति यौन रूचि या किसी भी बच्चे के साथ यौन दुर्व्यवहार करना, इसे अक्सर पीडोफ़िलिक व्यवहार कहा जाता है। सामान्यतः पीडोफ़ाइल ऐसे अपराधी को कहते हैं, जो बच्चों का यौन शोषण करता है और मान्सिक विकार से ग्रस्त होता है।

बच्चों का यौन शोषण करने वाले में मुख्यतः बच्चों के प्रति यौन आकर्षण होता है, उसकी यौनेच्छा किशोरवय में जागती है और सही यौन विकास न होने से अटक जाती है।

उसकी समाज में घुलने-मिलने की क्षमता कमज़ोर होती है। वह अपनी उम्र के अनुरूप यौन संबंध नहीं बना पाता और बच्चों को अपना शिकार बनाना पसंद करता है।

शोषण का चक्र पीडोफ़ीलिया का सबसे स्पष्ट नमूना है। इसके अनुसार जिनका बचपन में यौन शोषण हुआ होता है, उनके ख़ुद हमलावर बनने की आशंका बहुत ज़्यादा होती है।

जहां हर दौर में समाज इस समस्या से कम व ज्यादा ग्रस्त रहा है, वहीं अब इन्फ़ोर्मेशन टेट्नौलॉजी के विस्तार और सोशल मीडिया ने इसे संकट के रूप में बदल दिया है। वर्तमान दौर में कुछ ऐसे पीडोफ़ाइल हो सकते हैं कि जिन्हें सीधे तौर पर बच्चों पर हमला करने या उनसे संपर्क करने की ज़रूरत न पड़े, और वे इंटरनेट या बच्चों के यौन शोषण की तस्वीरें देखकर अपनी यह ज़रूरत पूरी कर लेते हैं। लेकिन इस समस्या ने बच्चों के मासूम जीवन के लिए कहीं भयानक ख़तरों को जन्म दिया है और उनके यौन दुर्व्यवहार और शोषण का दायरा बहुत विस्तृत कर दिया है।

घरों के बाद जहां धार्मिक स्थल और धर्मगुरू बच्चों के लिए सबसे सुरक्षित स्थान माने जाते थे, अब यही स्थान बच्चों के लिए असुरक्षित समझे जाने लगे हैं। विशेष रूप से पश्चिमी समाज और चर्च बच्चों के लिए असुरक्षा की भावना अधिक उत्पन्न करते हैं। कैथोलिक ईसाइयों के धर्मगुरु पोप ने हाल ही में स्वीकार किया किया था कि लगभग दो प्रतिशत कैथोलिक पादरी पीडोफ़ाइल यानी बाल यौन शोषक हैं। पोप ने पीडोफ़ाइल शब्द का प्रयोग करके आंकड़ों को छोटे बच्चों के यौन दुर्व्यवहार से विशेष कर दिया, जबकि अगर चर्च द्वारा बच्चों के यौन शोषण के कुल आंकड़ों पर नज़र डाली जाएगी तो वह इससे कहीं अधिक भयावह हैं।

ऑस्ट्रेलिया में हालिया वर्षों के दौरान गिरजाघरों में बाल यौन शोषण के मामलों की चल रही जांच के दौरान चौंका देने वाले आंकड़े सामने आए हैं। जांच के दौरान पता चला है कि केवल जिहोवा विटनेस चर्च ने बाल यौन शोषण से जुड़ी एक हज़ार से अधिक घटनाओं पर पर्दा डाला है।

इन्हीं तथ्यों के आधार पर, संयुक्त राष्ट्र संघ ने बाल यौन शोषण के मामले में रोमन कैथोलिक चर्च की तीखी आलोचना की है।

राष्ट्र संघ का कहना है कि वैटिकन ने योजनाबद्ध तरीके से ऐसी नीतियां अपनाईं हैं, जिन्होंने पादरियों को बड़ी संख्या में बच्चों का यौन शोषण करने का अवसर उपलब्ध करवाया है। संयुक्त राष्ट्र संघ की बाल अधिकारों पर निगरानी रखने वाली संस्था ने वैटिकन को ऐसे तमाम पादरियों को तुरंत हटा देने की सलाह दी, जिन्होंने बाल यौन शोषण किया है या जिन पर यौन शोषण करने का शक है।

संयुक्त राष्ट्र की बाल अधिकार समिति सीआरसी ने अपनी जांच रिपोर्ट में वैटिकन से मांग की है कि उसे उन पादरियों की फ़ाइलें फिर से खोलनी चाहिएं जिन्होंने बाल शोषण के अपराधों को छुपाया है। रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि वैटिकन ने अपराधों की गंभीरता को स्वीकार नहीं किया है और इसे लेकर समिति बहुत चिंतित हैं। 

समाज और चर्च में होने वाली बाल यौन शोषण की घटनाओं के आंकड़े जो भी हों, यह सामाजिक तथ्य नहीं हैं। निश्चित ही समस्या आंकड़ों से कहीं अधिक गंभीर और व्यापक है।

 

दुनिया भर में बड़े पैमाने पर बाल यौन शोषण की घटनाएं दर्शाती हैं कि हमने बच्चों की सही परवरिश और समय पर उन्हें यौन शिक्षा देने में लापरवाही बरती है। इतनी अधिक मात्रा में हमारे चारों तरफ शोषण की सच्चाई मौजूद है, लेकिन इस बात पर विश्वास करने वालों की संख्या अभी भी बहुत कम है। इस सच्चाई का अहसास दिलाने के लिए आंकड़े कभी भी काफ़ी नहीं होंगे।

पश्चिमी समाज और समाज शास्त्रियों द्वारा यह दावा करना कि बाल यौन शोषण जैसी समस्याएं पश्चिमी समाज से कहीं अधिक ग़ैर पश्चिमी समाज में गंभीर हैं। पश्चिमी समाज शास्त्रियों का कहना है कि ग़ैर पश्चिमी समाज में अधिकांश बच्चों को इसलिए इस ख़तरे का सामना करना पड़ता है, क्योंकि अन्य समाजों विशेष रूप से पूरब में बाल यौन शोषण पर बातचीत एक टैबू या निषेध बात समझी जाती है।

सामाजिक मामलों के विशेषज्ञ एवं धर्मगुरू अबुल क़ासिम पश्चिम के इस दावे को रद्द करते हुए कहते हैं कि समस्या के मूल कारणों से नज़रे चुराने और जो कारण नहीं है उसे कारण मान लेने से कदापि समस्या का समाधान नहीं हो सकता। इसी प्रकार, पश्चिमी जीवन शैली कि जो पूंजीवाद पर निर्भर है और हर चीज़ के मूल्य को उसकी क़ीमत सामने रखकर परखा जाता है, बाल यौन शोषण जैसी समस्याओं में वृद्धि का कारण है। इसलिए कि भौतिक सुविधाओं के पीछे दौड़ने वाले इस समाज में बच्चों को जन्म लेने के बाद से ही अब चाइल्ड केयर नामक संस्थाओं के हवाले कर दिया जाता है। जहां उनकी देखरेख और परवरिश अजनबी हाथों में होती है और उन्हें मां-बाप के वजूद की वह सुगंध  और रिश्तों की वह गर्मी नहीं मिल पाती जो उनका जन्म सिद्ध अधिकार है।    

आर्थिक और सामाजिक संरचनाओं की भिन्नता के कारण ऐसा लग सकता है कि बाल यौन शोषण की स्थिति अलग-अलग भूभागों में काफ़ी भिन्न है। लेकिन जब हम विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा किए गए अध्ययनों और आंकड़ों पर नज़र डालते हैं तो देखते हैं कि इसमें बहुत अधिक अंतर नहीं है।

अमरीकी समाज में आए दिन आंकड़े आते हैं और बदलते हैं। लेकिन तथ्य कुछ इस प्रकार है कि लगभग 62 प्रतिशत स्त्रियां और 31 प्रतिशत पुरुष अपने बचपन में ही शोषित हो चुके होते हैं।

जबकि यूनिसेफ़ द्वारा भारत में कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, 10 प्रतिशत लड़कियां 10 से 14 वर्ष के बीच यौन हिंसा का अनुभव करती हैं और 15 से 19 वर्ष के बीच यह दर 30 प्रतिशत है। कुल मिलाकर 42 प्रतिशत भारतीय लड़कियां अपने बचपन में यौन हिंसा का शिकार हो जाती हैं। इस प्रकार, भिन्न स्थितियों वाले समाजों भारत, अमरीका और अफ्रीक़ा में यौन शोषण विशेषकर बाल यौन शोषण के आंकड़ों में चौंका देने वाला अंतर नहीं है।