Sep १७, २०१६ १४:५२ Asia/Kolkata

भेदभाव का अर्थ है जात, धर्म, रंग, आयु, मूल और लिंग के आधार पर लोगों के साथ पक्षपात करना और बिना किसी तर्क के उनके साथ नकारात्मक व्यवहार करना।

लोगों के साथ जात, रंग, मूल, धर्म, अक्षमता और लिंग के आधार पर नकारात्मक व्यवाह स्पष्ट रूप से मानवाधिकारों का उल्लंघन और ग़ैर क़ानूनी है। बच्चों और बड़ों दोनों को ही जीवन के विभिन्न चरणों में भेदभागूपर्ण व्यवहार का अनुभव करना पड़ सकता है, लेकिन बच्चों के साथ भेदभाव बड़ों की तुलना में कहीं अधिक घातक हो सकता है, इसलिए कि बच्चे कमज़ोर और दूसरों पर आश्रित होते हैं। दुनिया के विभिन्न समाजों में सबसे अधिक बच्चे और महिलाएं भेदभाव का शिकार होते हैं। बच्चों के बीच लिंग के आधार पर भेदभाव की समस्या कुछ समाजों में बहुत जटिल हो गई है। भारत जैसे देश में यह समस्या संकट का रुख़ धारण कर रही है। भारत के विभिन्न समाजों में कन्या का जन्म दुर्भाग्य का सूचक और पुत्र का जन्म रत्नवर्षा की तरह सौभाग्य का सूचक माना जाने लगा है। लड़को और लड़कियों के बीच भेदभाद और पक्षपात इतना बढ़ गया है कि दोनों के बीच दुलार के अतिरिक्त मूलभूत सुविधा साधनों का असाधारण अंतर देखा जा सकता है। भ्रूण का लिंग परीक्षण ग़ैर क़ानूनी होने के बावजूद, लिंग परीक्षण कराया जाता है और लड़की होने पर भ्रूण हत्या करा दी जाती है।

यूनिसेफ़ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत में सुनियोजित लिंग भेद के कारण जनसंख्या से 5 करोड़ से अधिक लड़कियां एवं महिलाएं विलुप्त हैं। विश्व के अधिकतर देशों में प्रति 100 पुरुषों की तुलना में लगभग 105 स्त्रियों का जन्म होता है। जबकि भारत की जनसंख्या में प्रति 100 पुरुषों पर 93 से कम महिलाएं जन्म लेती हैं। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि भारत में अवैध रूप से अनुमाति तौर पर प्रतिदिन 2,000 से अधिक कन्या भ्रूण हत्याएं होती हैं। राष्ट्र संघ का कहना है कि यह सिलसिला अगर ऐसे ही चलता रहा तो भारत में जनसंख्या से जुड़े संकट उत्पन्न हो सकते हैं।

यह ख़तरनाक परंपरा केवल अशिक्षित व निम्न व मध्यम वर्ग में ही नहीं है, बल्कि आर्थिक रूप से संपन्न व शिक्षित समाज भी इससे ग्रस्त हैं। आर्थिक रूप से भारत के सबसे समृद्ध राज्यों पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में यह समस्या सबसे अधिक जटिल है और लिंगानुपात सबसे कम है। इसलिए कहा जा सकता है कि यह स्त्री-विरोधी धारणा किसी भी रूप में ग़रीब परिवारों तक सीमित नहीं है। भेदभाद में धार्मिक एवं सांस्कृतिक मान्यताओं और सामाजिक नियमों की अधिक भूमिका होती है। इसलिए इस अभिशाप पर रोकथाम के लिए इस प्रकार की मान्यताओं और नियमों को ही चुनौती देना होगी।

आज भारतीय समाज नारी-अपमान, लैंगिक भेदभाव एवं शोषण के अनेकानेक निंदनीय कृत्यों से ग्रस्त है। यह ऐसी स्थिति में है कि जब भारत एक धर्म प्रधान देश, अहिंसा व आध्यात्मिकता का प्रेमी देश और नारी-गौरव गरिमा का देश कहलाता है। अध्ययनों से पता चलता है कि लैंगिक भेदभाव, अनैतिकता और क्रूरता की इस वर्तमान स्थिति के पीछे तीन मुख्य कारण हैं। आर्थिक उपयोगिता, सामाजिक-आर्थिक उपयोगिता एवं धार्मिक मान्यताएं।

भारत मूल रूप से एक कृषि प्रधान देश रहा है, इसलिए लड़कियों की तुलना में लड़कों द्वारा पुश्तैनी खेत पर काम करने या उनसे पारिवारिक व्यवसाय, आय अर्जन या बुढ़ापे में मां-बाप को सहारा देने की आशा रखी जाती है। स्त्रियों के साथ भेदभाव का सामाजिक-आर्थिक उपयोगिता संबंधी कारक यह है कि भारत में पुरुष प्रधान प्रथा के अनुसार, वंश चलाने के लिए कम से कम एक पुत्र का होना अनिवार्य है और कई पुत्रों के होने से परिवार की मान मर्यादा में वृद्धि होती है। विवाह होने पर लड़का, एक पुत्रवधू लाकर घर की लक्ष्मी में वृद्धि करता है, जो घरेलू कार्यों में अतिरिक्त सहायता करती है एवं दहेज़ के रूप में आर्थिक लाभ पहुंचाती है, जबकि लड़कियां विवाहित होकर चली जाती हैं और पढ़ाई लिखाई का ख़र्च, पालन-पोषण और दहेज़ के रूप में आर्थिक बोझ का कारण बनती हैं। इसके अलावा हिंदु परम्पराओं के अनुसार कुछ ऐसे धार्मिक अवसर होते हैं, जिनमें केवल पुत्र ही भाग ले सकते हैं, जैसे कि माता पिता की मृत्यु होने पर आत्मा की शांति के लिए केवल पुत्र ही मुखाग्नि दे सकता है।

भारतीय समाज में लड़कों और लड़कियों के बीच भेदभाव का अनुभव जीवन की छोटी से छोटी बातों में भी किया जा सकता है। लड़कियों की परवरिश कुछ इस अंदाज़ में की जाती है कि वे लड़कों के समान नहीं हैं और यह भेदभाव गर्भ से ही शुरू हो जाता है। अगर मां-बाप और दादा-दादी को यह पता चल जाता है कि गर्भ में लड़का है तो, गर्भवती महिला की ख़ूब देखभाल की जाती है, लेकिन अगर यह पता जाए कि वह एक लड़की है, तो या तो मां को गर्भपात के लिए मजबूर किया जाता है या उसे विभिन्न प्रकार की यातनाएं सहन करनी पड़ती हैं और तरह तरह से उसे प्रताड़ित किया जाता है। एक अध्ययन के मुताबिक़, भारत में 1981 में 6 साल के बच्चों का लिंग अनुपात 962 था, जो 1991 में घटकर 945 हो गया और 2001 में यह 927 रह गया। समाज में लड़कियों की इतनी अवहेलना, इतना तिरस्कार चिंताजनक और अमानवीय है। लगातार घटता स्त्री-पुरुष अनुपात समाजशास्त्रियों, जनसंख्या विशेषज्ञों और योजनाकारों के लिए चिंता का विषय बन गया है।

यूनिसेफ के अनुसार 10 प्रतिशत महिलाएं विश्व की जनसंख्या से लुप्त हो चुकी हैं, जो गहन चिंता का विषय है। स्त्रियों के इस विलोपन के पीछे कन्या भ्रूण हत्या ही मुख्य कारण है। संकीर्ण मानसिकता और समाज में क़ायम अंधविश्वास के कारण लोग लड़कों और लड़कियों में भेद करते हैं। दुख की बात है कि शिक्षित तथा आर्थिक स्तर पर सुखी संपन्न वर्ग में यह अतिनिन्दनीय काम अपनी जड़ें तेज़ी से फैलाता जा रहा है।

इस व्यापक समस्या को रोकने के लिए गत कुछ वर्षों से कुछ चिंता व्यक्त की जाने लगी है। जहां तक क़ानून की बात है, दुर्भाग्यवश भारत में अपराध तीव्र गति से आगे आगे चलते हैं और क़ानून धीमी चाल से काफ़ी दूरी पर, पीछे-पीछे।

हाल ही में भारत की राजधानी में मानवाधिकर के विषय पर आयोजित हुए एक सम्मेलन में एक महिला अधिकारी ने कहा था कि ‘पुरुष-स्त्री अनुपात हमारे देश में बहुत बिगड़ चुका है, लेकिन इसकी तुलना में मुस्लिम समाज में यह अनुपात कहीं बेहतर है। मुस्लिम समाज से अनुरोध है कि वह इस विषय में हमारे समाज और देश का मार्गदर्शन और सहायता करे।’

लिंग-अनुपात के बारे में एक पहलू वह है, जिसके बारे में समाजशास्त्री और विद्वान चिंता जताते रहते हैं। इस संदर्भ में दूसरा पहलू यह है कि भारत में ही हिन्दू समाज की तुलना में मुस्लिम समाज की स्थिति बेहतर है। इसके कारकों व कारणों की समझ भी तुलनात्मक विवेचन से ही की जा सकती है।

भारतीय मुस्लिम समाज यद्यपि भारतीय मूल और भारतीय संस्कृति से उपजा और इसी का एक अंग है, यहां की परंपराओं से सामीप्य और निरंतर मेल-जोल की स्थिति में वह यहां के बहुत सारे सामाजिक रीति-रिवाजों से प्रभावित रहा और स्वयं को एक आदर्श इस्लामी समाज के रूप में स्थापित नहीं कर सका, बहुत सारी कमज़ोरियां उसमें भी घर कर गई हैं, फिर भी तुलनात्मक स्तर पर उसमें जो सद्गुण पाए जाते हैं, उनका कारण सिवाय इसके कुछ और नहीं हो सकता, कि उसकी उठान एवं संरचना तथा उसकी संस्कृति को उत्कृष्ट बनाने में इस्लाम ने एक प्रभावशाली भूमिका अदा की है।

बेटियों की निर्मम हत्या की कुप्रथा को ख़त्म करने के लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मुसलमानों का ऐसा प्रशिक्षण किया और उन्हें ऐसा संदेश दिया कि मुस्लिम समाज ने इस अभिशाप को जड़ से उखाड़ फेंका। उसके बाद, मुस्लिम समाज में बेटी अभिशाप नहीं बल्कि वरदान, ईश्वरीय अनुकंपा, बरकत और सौभाग्यशाली मानी जाने लगी और समाज की, देखते-देखते काया पलट गई।

इस्लाम के उदय से पूर्व तथा अज्ञानता के काल में कुछ अरब अपनी लड़कियों को ज़िंदा दफ़्न कर दिया करते थे। यह महा पाप और अमानवीय प्रथा दर्शाती है कि वह समाज कितना अधिक पिछड़ा हुआ एवं किस सीमा तक पतित हो चुका था।

इब्ने अब्बास से रिवायत है कि अज्ञानता के काल में जब कोई महिला गर्भवती होती थी तो वह एक गढ़ा खोद लिया करती थी, जब शिशु के जन्म का समय निकट आता था तो वह उस गढ़े के निकट बैठ जाती थी, अगर शिशु लड़की होती थी तो वह उसे उसी गढ़े में दफ़्न कर दिया करती थी। क़ुराने मजीद के सूरे तकवीर की नवीं आयत में ईश्वर इस संबंध में कड़ी चेतावनी देता है। इस चेतावनी की शैली बड़ी अजीब है जिसमें ईश्वर अपराधी को नहीं, बल्कि मारी गई बच्ची को संबोधित करते हुए कहता है कि परलोक में ज़िंदा क़त्ल की गई बच्ची से ईश्वर पूछेगा कि वह किस जुर्म में क़त्ल की गई थी?

यहां पर यह सवाल कि जो क़त्ल किए जाने वाले से किया जा रहा है, वास्तव में हत्यारे के अपराध की क्रूरता और उसके अपराध के लिए किसी प्रकार का तर्क न होने का सुबूत है।

इस वाक्य में, बेटियों को क़त्ल करने वालों को सख़्त-चेतावनी दी गई है और इसमें सर्वोच्च व सर्वसक्षम न्यायी ईश्वर की अदालत से सख़्त सज़ा का फ़ैसला दिया जाना निहित है। एकेश्वरवाद की धरणा तथा उसके अंतर्गत परलोकवाद पर दृढ़ विश्वास का ही करिश्मा था कि मुस्लिम समाज से कन्या-वध की लानत जड़ से उखड़ गई। 1400 वर्षों से यही धरणा, यही विश्वास मुस्लिम समाज में ख़ामोशी से अपना काम करता आ रहा है।