घर परिवार और बच्चे-३१
बच्चों के बीच लैंगिक भेदभाव और बच्चों एवं समाज पर पड़ने वाले उसके दुष्प्रभावों के संबंध में चर्चा जारी है।
हमने उल्लेख किया था कि यह ख़तरनाक परंपरा केवल अशिक्षित व निम्न व मध्यम वर्ग में ही नहीं है, बल्कि आर्थिक रूप से संपन्न व शिक्षित समाज भी इससे ग्रस्त हैं। विशेष रूप से भारतीय समाज नारी-अपमान, लैंगिक भेदभाव एवं शोषण के अनेकानेक निंदनीय कृत्यों से ग्रस्त है।
भारतीय समाज में लड़कों और लड़कियों के बीच भेदभाव का अनुभव जीवन की छोटी से छोटी बातों में भी किया जा सकता है। लगातार घटता स्त्री-पुरुष अनुपात समाजशास्त्रियों, जनसंख्या विशेषज्ञों और योजनाकारों के लिए चिंता का विषय बन गया है।
यूनिसेफ़ के अनुसार 10 प्रतिशत महिलाएं विश्व की जनसंख्या से लुप्त हो चुकी हैं, जो गहन चिंता का विषय है। स्त्रियों के इस विलोपन के पीछे कन्या भ्रूण हत्या मुख्य कारण है। संकीर्ण मानसिकता और समाज में क़ायम अंधविश्वास के कारण लोग लड़कों और लड़कियों में भेद करते हैं।
हालांकि भारत के विभिन्न समाजों में जहां स्त्री-पुरुष अनुपात का अंतर बढ़ता जा रहा है, वहीं इसकी तुलना में भारतीय मुस्लिम समाज में यह अनुपात कहीं बेहतर है।
अधिकांश विकसित और विकासशील देशों में जब किसी परिवार में लड़के का जन्म होता है तो रिश्तेदार और दोस्त बढ़-चढ़कर बधाई देते हैं। क्योंकि बेटा पैदा होने का मतलब होता है बीमा। वह परिवार और अपने पिता का वारिस होता है और उसे अपने पिता की संपत्ति और जायदाद विरासत में मिलती है। लेकिन जब एक लड़की जन्म लेती है तो माहौल एकदम बदला हुआ होता है और प्रतिक्रियाएं भी बिल्कुल अलग होती हैं। यहां तक कि बेटी के जन्म लेने पर कुछ माएं रोनें लगती हैं और विचलित हो जाती हैं। यहां सवाल यह उठता है कि एक महिला के रूप में बेटी के जन्म पर कुछ माओं की प्रतिक्रिया नकारात्मक क्यों होती है?
मुंबई में मनोवैज्ञानिक डा. छवी खन्ना का कहना है, इसका सबसे स्पष्ट कारण यह है कि क्योंकि एक महिला के रूप में मां ख़ुद लैंगिक भेदभाव का शिकार होती रही है और जीवन भर उसने इस अमानवीय कष्ट को सहन किया हुआ होता है, जिसके बाद उसे अपने महिला होने पर गर्व नहीं बल्कि पछतावा होता है। इसलिए अगर वह एक लड़की को जन्म नहीं देना चाहती है तो उसका कारण यह है कि वह नहीं चाहती उसे भी इस तरह के कष्ट सहन करना पड़ें। खन्ना कहती हैं कि परिवार और समाज के दबाव के अलावा सदियों पुरानी धार्मिक मान्यताओं और धारणाओं के कारण यह मानसिकता उपजी है, जिसे बदलना बहुत बड़ी चुनौती है।
महिलाओं के दिमाग़ में यह बात बैठा दी जाती है कि बेटे का जन्म, परिवार में उनके बेहतर स्थान और सम्मान में वृद्धि का कारण बनेगा। डा. खन्ना कहती हैं कि इस प्रकार महिलाओं में आत्म विश्वास और आत्म सम्मान की आशा जगती है। यह महिलाएं जानती हैं कि अगर उन्होंने लड़की को जन्म दिया तो न केवल उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाएगा बल्कि बच्ची भी लैंगिक भेदभाव का शिकार होगी। आज भी भारत के कुछ इलाक़ों में जब किसी परिवार में लड़की जन्म लेती है तो उस परिवार को बधाई देते हुए कहा जाता है, आपके घर की नौकरानी ने जन्म लिया है।
एक असहाय लड़की जिसके इर्दगिर्द का सारा वातावरण ही दूषित हो और जो उसे यह एहसास दिला रहा हो कि उसका अस्तित्व व्यवर्थ और मूल्यहीन है, तो निश्चित रूप से वह हीन भावना का शिकार हो जाएगी। लड़कों के मुक़ाबले में जैसे ही उसे दूसरे दर्जे का होने का एहसास कराया जाता है, उसकी शनाख़्त, उसका आत्म विश्वास और उसकी प्रतिभाएं दम तोड़ देती हैं।
निरक्षरता, ग़रीबी और महिलाओं के खिलाफ़ गहरे पूर्वाग्रह का एक संयोजन जहां उनकी प्रतिभा और क्षमता को नष्ट कर देता है वहीं उनके ख़िलाफ़ भेदभाव का बेरहम चक्र बना देता है। यह जटिल स्थिति उनके शारीरिक एवं भावनात्मक शोषण की संभावनाओं में वृद्धि कर देती है।
विशेष रूप से भारत जैसे विकासशील देशों में लड़कियों और महिलाओं के साथ भेदभाव एक विनाशकारी हक़ीक़त है। यह त्रासदी लाखों और करोड़ों लोगों को प्रभावित करती है जो पूरे देश की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। अध्ययनों से पता चलता है कि किसी भी देश की सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति और उस समाज में महिलाओं के साथ व्यवहार का सीधा संबंध है। किसी भी स्वस्थ समाज में महिलाओं की भूमिका अहम होती है। इसलिए अगर महिलाओं के साथ भेदभाद किया जाएगा और उनकी अवहेलना की जाएगी तो इससे समाज भी अछूता नहीं रहेगा।
दुर्भाग्य से लैंगिक भेदभाव का सबसे अधिक शिकार लड़कियां होती हैं। यहां हम इसके कुछ कारणों की समीक्षा करेंगे। विकासशील देशों में लड़की का जन्म ग़रीब परिवारों के लिए एक बहुत बड़ा आर्थिक आघात माना जाता है। जहां ज़िंदा रहने के लिए रोज़ी रोटी के स्रोत बहुत सीमित होते हैं, प्रत्येक बच्चे का जन्म परिवार के आर्थिक स्रोतों पर बोझ समझा जाता है। लेकिन यह स्थिति उस समय और अधिक कठोर हो जाती है जब परिवार में लड़की का जन्म होता है, ख़ासकर उन इलाक़ों में जहां दहेज प्रथा एक सामाजिक संकट का रूप धारण कर रही है।
समाज में दहेज प्रथा एक ऐसा सामाजिक अभिशाप बन गया है जो महिलाओं के शारीरिक, मानसिक, और भावनात्मक शोषण को बढ़ावा देता है। वर्तमान समय में दहेज व्यवस्था एक ऐसी प्रथा का रूप ग्रहण कर चुकी है जिसके अंतर्गत लड़की के मां-बाप और परिवार का सम्मान दहेज में दिए गए धन-दौलत पर ही निर्भर करता है। लड़के के मां-बाप भी स्पष्ट रूप से अपने बेटे का सौदा करते हैं। प्राचीन परंपराओं के नाम पर वधु के परिवार वालों पर दबाव डालकर उन्हें प्रताड़ित किया जाता है।
इस व्यवस्था ने भारतीय समाज के सभी वर्गों को अपनी चपेट में ले लिया है। कुछ संपन्न परिवारों को दहेज देने या लेने में कोई बुराई नज़र नहीं आती। क्योंकि वे इसे एक अच्छा निवेश समझते हैं। उनका मानना है कि धन और उपहारों के साथ बेटी को विदा करेंगे तो यह उनके मान-सम्मान को बढ़ाने के साथ साथ बेटी को भी ख़ुशहाल जीवन देगा। जिस प्रकार वे अपनी बेटियों को दहेज देते हैं उससे कहीं अधिक बेटों के लिए दहेज की मांग करते हैं। यहीं कारण है कि वह परिवार में लड़की के जन्म को अशुभ मानते हैं।
ऐसी स्थिति में निर्धन परिवारों के लिए बेटी का विवाह करना एक बहुत बड़ा बोझ बन जाता है। वह जानते हैं कि अगर उचित दहेज का प्रबंध नहीं किया गया तो विवाह के बाद, बेटी का ससुराल में जीना तक दूभर हो जाएगा। हालांकि अक्सर देखने में आता है कि मूंह मांगा दहेज लेने के बाद भी वर-पक्ष संतुष्ट नहीं हो पाता और उसकी डिमांड बढ़ती जाती है। लड़की का बाप अगर उसकी मांगों को पूरा नहीं कर पाता है तो वह उसे यातना देने लगते हैं।
दहेज का लेन-देन भारतीय समाज में एक ख़तरनाक बुराई का रूप ले चुका है। कुछ मामलों में तो वर-पक्ष दुल्हन की हत्या तक कर देता है, यहां तक कि दुल्हन को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया जाता है। कई पीड़ितों को ज़िंदा जलाकर मार दिया जाता है। वर और उसके परिजन दावा करते हैं कि यह रसोई में हुई दुर्घटना के कारण हुआ है। इस प्रकार की घटनाओं का मक़सद अक्सर पति के लिए दूसरी शादी का अवसर प्राप्त करना होता है, ताकि दूसरी शादी द्वारा दहेज की भूख मिटाई जा सके।
दुर्भाग्य से पति और उसके परिजनों की ओर से इस प्रकार की घटनाओं को सही ठहराने के लिए अनेक कारण पेश किए जाते हैं। उदाहरण स्वरूप, महिला एक अच्छी पत्नी की भूमिका नहीं निभा रही थी, शादी में वह काफ़ी दहेज नहीं लायी या वह लड़के को जन्म देने में सफल नहीं रही।
भारत के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक़, सन् 2012 में 8,233 से अधिक दहेज को लेकर हत्या के मामले दर्ज किए गए। यह ऐसी स्थिति में है कि जब अक्सर मामलों में जवाबी कार्यवाही के भय से या पुलिस द्वारा प्रताड़ित किए जाने की वजह से लड़की के परिजन पुलिस में रिपोर्ट ही दर्ज नहीं करा पाते हैं।
आंकड़ों का औसत बताता है कि भारत में प्रत्येक घंटे में एक महिला दहेज की बलि चढ़ रही है। हालांकि दहेज लेना-देना देश में ग़ैर क़ानूनी है, लेकिन इसके बावजूद यह स्पष्ट रूप से लिया और दिया जाता है और इसमें दिन प्रतिदिन वृद्धि देखने में आ रही है। हालिया वर्षों में इस पर अधिक बल दिया जाने लगा है और दहेज के रूप में काफ़ी मंहगी डिमांड रखी जाती है।
वास्तव में दहेज प्रथा की वर्तमान सामाजिक बुराई का मुख्य कारण महिलाओं के प्रति भारतीय समाज का पारंपरिक दृष्टिकोण है। बचपन से ही लड़कियों के मन में यह बातें डाली जाती हैं कि बेटे ही सबकुछ होते हैं और बेटियां तो पराया धन होती हैं। उन्हें दूसरे के घर जाना होता है, इसलिए माता-पिता के बुढ़ापे का सहारा बेटा होता है न कि बेटियां। इसी सोच के तहत लड़कियों को पढ़ाना लिखाना और उनकी पढ़ाई पर ख़र्चा करना व्यर्थ माना जाता है। कन्या भ्रूण हत्या के पीछे भी कहीं न कहीं यही मानसिकता काम करती है।
आज भारतीय समाज नारी-अपमान, लैंगिक भेदभाव एवं शोषण के अनेकानेक निंदनीय कृत्यों से ग्रस्त है। अध्ययनों से पता चलता है कि लैंगिक भेदभाव, अनैतिकता और क्रूरता की इस वर्तमान स्थिति के पीछे धार्मिक मान्यताएं और भौतिकतावाद है।