घर परिवार और बच्चे-३२
बच्चों के बीच लैंगिक भेदभाव और बच्चों एवं समाज पर पड़ने वाले उसके दुष्प्रभावों के संबंध में चर्चा जारी है।
लड़कियों के जन्म लेने से पहले से ही शुरू हो जाने वाला भेदभाग, दुनिया में क़दम रखने के बाद क़दम क़दम पर उन्हें यह एहसास दिलाता है कि इस दुनिया में उनका अस्तित्व व्यवर्थ और मूल्यहीन है, जिसके नतीजे में लड़कियों के आत्म-सम्मान को ठेस पहुंचती है और वे हीन भावना का शिकार हो जाती हैं। लड़कों के मुक़ाबले में जैसे ही उसे दूसरे दर्जे के होने का एहसास कराया जाता है, उसकी पहचान, उसका आत्म-विश्वास और उसकी प्रतिभाएं दम तोड़ देती हैं।
दुर्भाग्य से आज के आधुनिक समाज में भी लैंगिक भेदभाव का सबसे अधिक शिकार लड़कियां ही हो रही हैं। भारतीय समाज में इस अभिशाप के कारणों की समीक्षा करते हुए हमने कहा था कि इसके पीछे तीन मुख्य कारण हैं। आर्थिक उपयोगिता, सामाजिक-आर्थिक उपयोगिता एवं धार्मिक मान्यताएं।
लड़कियों की तुलना में लड़कों को आय अर्जन का स्रोत माना जाता है, जबकि लड़की को केवल भक्षक और आय के स्रोतों पर बोझ समझा जाता है। इसके अलावा ऐसा माना जाता है कि वंश चलाने के लिए कम से कम एक पुत्र का होना अनिवार्य है और कई पुत्रों के होने से परिवार की मान मर्यादा में वृद्धि होती है। विवाह होने पर लड़का, एक पुत्रवधू लाकर घर की लक्ष्मी में वृद्धि करता है, जो घरेलू कार्यों में अतिरिक्त सहायता करती है एवं दहेज के रूप में आर्थिक लाभ पहुंचाती है।
दहेज का लेनदेन एक ऐसा सामाजिक अभिशाप बन गया है जो महिलाओं के शारीरिक, मानसिक, और भावनात्मक शोषण का एक मुख्य कारण है। भारत के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक़, प्रत्येक घंटे में एक महिला दहेज की बलि चढ़ जाती है।
सामाजिक संकट का रूप धारण करते हुए इस अभिशाप पर रोक के लिए भारत में सन् 1961 में दहेज प्रतिरोधक क़ानून पारित किया गया, जिसमें 1984 और 1986 में संशोधन किया गया, जिसके तहत दहेज को एक आपराधिक जुर्म घोषित किया गया। लेकिन दशकों से ग़ैर क़ानूनी होने के बावजूद, समाज में दहेज का लेनदेन बढ़ता ही जा रहा है। भारत में दहेज प्रतिरोधक क़ानून के तहत दोनों पक्षों को सज़ा दी जाती है। यही कारण है कि महिलाओं पर इसका बोझ और बढ़ जाता है और सामाजिक सुरक्षा एवं परिवार के सम्मान की ख़ातिर वे इस ख़ामोशी से शोषण का शिकार होती रहती हैं।
दहेज प्रतिरोधक क़ानून के संदर्भ में क़ानून विशेज्ञों का मानना है कि इस प्रकार के क़ानून देहज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा को रोकने में असफल साबित हुए हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि दहेज रूपी कलंक और सामाजिक बुराई को रोकने के लिए केवल क़ानून पर्याप्त नहीं है, बल्कि इसे रोकने के लिए और लैंगिक भेदभाव को जड़ से समाप्त करने के लिए मानसिकता में बदलाव, पारम्परिक मान्यताओं में परिवर्तन और बच्चों का सही पालन-पोषण ज़रूरी है।
मां-बाप को चाहिए कि एक दूसरे के साथ और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करें और उनके बीच ममता, प्रेम और भावनात्मक संबंधों में किसी प्रकार का भेदभाव न करें। इसलिए कि बच्चों से मोहब्बत करने में किसी भी प्रकार का भेदभाव उनके मन पर अमिट छाप छोड़ता है, जिसके बहुत ही घातक परिणाम सामने आते हैं। लड़की और लड़के या छोटे और बड़े या सफल और असफल के बीच भेदभाव से संभव है कि बच्चों के बीच, ईर्ष्या, प्रतिशोध और टकराव की भावना उत्पन्न हो जाए जो उनके भविष्य के लिए ख़तरनाक होगी।
इस्लामी इतिहास में उल्लेख है कि अंतिम ईश्वरीय दूत पैग़म्बरे इस्लाम (स) अपने साथियों के साथ बैठे हुए थे कि वहां एक बच्चा आया और वह अपने पिता के पास गया। पिता ने उसे दुलार किया और बहुत ही मोहब्बत से अपनी गोद में बैठा लिया। थोड़ी देर बार पैग़म्बरे इस्लाम के उसी साथी की बच्ची वहां पहुंची, पिता ने उसे भी दुलार किया लेकिन गोद में बैठाने के बजाए अपने निकट ज़मीन पर बैठा दिया। पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने जब दोनों बच्चों के साथ इस तरह के भेदभाव देखा तो उस व्यक्ति से पूछा, जब तुम्हारी बेटी तुम्हारे पास आयी तो क्यों तुमने उसे भी बेटे की भांति अपनी गोद में नहीं बैठाया। उस व्यक्ति ने लड़की को भी अपनी गोद में बैठा लिया। पैग़म्बरे इस्लाम यह देखकर प्रसन्न हुए और फ़रमाया, तुमने न्यायपूर्ण व्यवहार किया।
भेदभावपूर्ण व्यवहार पर निंयत्रण के लिए घर की ज़िम्मेदारियों को न्यायपूर्ण तरीक़े से बांटा जाना चाहिए। परिवार में कुछ ज़िम्मेदारियां, अधिकार और विशिष्टताएं होती हैं, जिन्हें न्यायपूर्ण तरीक़े से बांटा जाना ज़रूरी है, ताकि परिवार के समस्त सदस्यों को यह एहसास रहे कि उनकी जो ज़िम्मेदारियां और अधिकार हैं, उनके अनुसार वह उन्हें पूरा करने की कोशिश करें।
ज़िम्मेदारियों को अन्यायपूर्ण ढंग से बांटने से भेदभाव एवं अत्याचार के लिए भूमि प्रशस्त होती है। हालांकि भेदभाव न करने और न्यायपूर्ण व्यवहार करने से हमारा अभिप्राय अंतर और भिन्नताओं की उपेक्षा करना नहीं है। इनाम और सज़ा का प्रावधान अंतर के आधार पर ही होता है और बच्चों की परवरिश की यह एक प्रभावी शैली है। प्रोत्साहन और सज़ा अधिकारों को मान्यता देने का एक आधार है, लेकिन प्रोत्साहन और सज़ा के वक़्त बच्चों की आयु और परिस्थितियों को मद्देनज़र रखना बहुत ज़रूरी है। बहुत छोटी उम्र में बच्चे अंतर के इस आधार को समझने की क्षमता नहीं रखते, इसलिए भावनाओं को प्रकट करने और उन्हें उपहार दिए जाने में समानता का ख़याल रखा जाना ज़रूरी है। अगर बच्चों के लिए अंतर का आधार स्पष्ट नहीं किया जाएगा तो उनके बीच ईर्ष्या बढ़ेगी।
बच्चे जब इतने बड़े हो जाएं कि वह अच्छे और बुरे का अंतर समझने लगें तो मां-बाप को उनके साथ एक समान व्यवहार करने और एक समान ज़िम्मेदारियां सौंपने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि यहां अच्छे और बुरे व्यवहार में अंतर किया जाना चाहिए और क्षमताओं के अनुसार उन्हें ज़िम्मेदारियां सौंपी जानी चाहिए। हज़रत अली (अ) फ़रमाते हैं कि अच्छा काम करने वाले को प्रोत्साहित करके बुराई करने वाले को सज़ा दो। अर्थात जब बुरा काम करने वाला देखेगा कि जो अच्छा काम कर रहा है, उसे उसके बदले में इनाम से सम्मानित किया जा रहा है, तो वह यह समझ लेगा कि मां-बाप अच्छाई और बुराई के साथ एक समान व्यवहार कर नहीं करते हैं।
इतिहास में है कि पैग़म्बरे इस्लाम बच्चों के बीच न्यायपूर्ण व्यवहार की बहुत अधिक सिफ़ारिश किया करते थे। वे फ़रमाते थे कि अगर किसी स्थान पर एक बच्चे को दूसरे पर प्राथमिकता देना भी पड़े, तो लड़कियों को लड़कों पर प्राथमिकता देने की कोशिश करो। यह सिफ़ारिश इसलिए है, क्योंकि लड़कियां अधिक भावुक और नाज़ुक मिज़ाज होती हैं और शीघ्र दुखी एवं प्रसन्न हो जाती हैं। हालांकि अगर मां-बाप को लड़कियों को प्राथमिकता देना भी पड़े तो वह मोहब्बत और प्यार-दुलार में होनी चाहिए न कि प्रोत्साहन एवं अन्य कार्यों में।
दुर्भाग्यवश अधिकांश लोग मोहब्बत प्रकट करने और प्रोत्साहन एवं सज़ा के बीच अंतर नहीं कर पाते हैं। यहां यह समझने की ज़रूरत है कि प्रोत्साहन और दंड भेदभाव करना नहीं है, बल्कि हक़ को हक़दार तक पहुंचाना है। दूसरी ओर मोहब्बत प्रकट करने में भी अगर हम अंतर कर रहे हैं तो इसके लिए हमारे पास मज़बूत तर्क होना चाहिए, ताकि उसके दुष्प्रभावों से बचा जा सके।
आठवें इमाम हज़रत अली रज़ा (अ) से एक व्यक्ति ने पूछा कि क्या कोई अपनी लड़कियों को लड़कों से अधिक प्यार कर सकता है? इमाम (अ) ने जवाब दिया कि हमारी नज़र में लड़के और लड़कियां एक समान हैं। ईश्वर ने अनुकंपा के रूप में हमें इन्हें प्रदान किया है। हम भी उनके साथ मोहब्बत और उन्हें विशिष्टता प्रदान करने में कोई भेदभाव नहीं करते हैं।
जिस प्रकार बच्चे शारीरिक रूप से कमज़ोर होते हैं और छोटी से छोटी घटना के प्रति प्रतिक्रिया जताते हैं, मानसिक रूप से भी उतना ही या उससे कहीं अधिक संवेदनशील होते हैं। अधिकांश आदतें वे अपने बड़ों से सीखते हैं। अगर मां-बाप और शिक्षक उनके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करेंगे और किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं करेंगे तो वे भी अपने बच्चों के साथ कदापि असमानतापूर्ण व्यवहार नहीं करेंगे।
हमें ध्यान देना होगा कि एक ही परिवार में पल रहे बेटों व बेटियों का न्यायपूर्ण तरीक़े से पालन पोषण किया जाए। रहन-सहन, पढ़ाई और भोजन के दोनों को उचित और न्यायपूर्ण अवसर उपलब्ध कराए दोनों को एक समान प्यार व ममता दी जाये। यही प्रयास प्राथमिक पाठशालाओं में भी किये जाने चाहिएं। प्राथमिक शिक्षा ही बच्चे का व्यक्तित्व बनाती है, लिंग के आधार पर स्कूलों और पाठशालाओं में बच्चों के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए।
बेटी पराया धन, जैसी मानसिकता को बदलना चाहिए, इसलिए कि इस प्रकार की दूषित मानसिकता के साथ मां-बाप बेटियों से भावनात्मक तरीक़े से जुड़ नहीं पाते और परिणाम स्वरूप उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करने लगते हैं।
इस्लाम धर्म ने लड़कियों को मां-बाप की विरासत में हक़ दिया है, जिसे अब सीमित पैमाने पर ही सही भारत समेत विश्व के कई दशों ने मान्यता दी है। इसलिए उन्हें उनका यह अधिकार दिया जाना चाहिए, ताकि यह सोच बदले कि बेटियां कल शादी करके पराये घर चली जायेंगी, अगर उन्हें संपत्ति में हिस्सा दिया गया तो वह भी पराये घर चला जायेगा।
हालांकि शारीरिक और मानसिक रूप से महिला और पुरुष के बीच बड़ा अंतर होता हैं। इस्लाम उस प्राकृतिक अंतर को सामने रखते हुए अधिकार और कर्तव्य की सूची बनाता है। इस अंतर को सामने रखते हुए महिलाओं को जो विशेष स्थान मिलना चाहिए वह उसे प्रदान भी करता है और उस का संरक्षण भी करता है, उसे पुरूषों की दया पर नही छोड़ता। इस्लाम चाहता है कि महिलाओं पर उनकी क्षमताओं से अधिक बोझ न डाला जाए। पुरूषों का महिलाओं का रूप धारण कर लेना और उनकी भूमिका निभाना, इसी तरह महिलाओं का पुरूषों का रूप धारण कर लेना और उनकी भूमिका निभाना प्रकृति के विरूद्ध है, जिससे पूरा मानव जीवन अस्त व्यस्त होकर रह जाएगा इसलिए इस्लाम के लिये स्वीकार्य नहीं है।