घर परिवार और बच्चे-३३
बच्चों के बीच लैंगिक भेदभाव के दुष्प्रभावों की समीक्षा और प्राप्त आंकड़ों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि दुर्भाग्य से आज के आधुनिक समाज में भी लैंगिक भेदभाव का सबसे अधिक शिकार लड़कियां ही हो रही हैं।
कुछ समाजों में लड़कियों के साथ भेदभाव की यह अमानवीय प्रतिक्रिया उस समय से शुरू हो जाती है, जब वे अभी मां के गर्भ में होती हैं। जिसके बाद, कन्या भ्रूण हत्या, गर्भवती महिला का उत्पीड़न, पालन-पोषण और पढ़ाने-लिखाने में भेदभाद, यौन शोषण, दहेज के नाम पर उत्पीड़न, लड़के को जन्म न देने का दोष, सामाजिक और धार्मिक संस्कारों में असमानता का यह सिलसिला जीवन की अंतिम सांसों तक थमने का नाम नहीं लेता है।
मां-बाप और परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा लड़कों और लड़कियों के बीच ममता, प्रेम और भावनात्मक संबंधों में भेदभाव का लड़कियों के व्यक्तित्व पर बहुत ही नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और एक मानव के रूप में उनकी हस्ती को तबाह करके रख देता है। इस अभिशाप से मुक़ाबले के लिए जहां शताब्दियों पुरानी मानसिकता और धार्मिक मान्यताओं में सुधार की ज़रूरत हैं वहीं हमें ध्यान देना होगा कि एक ही परिवार में पल रहे बेटों व बेटियों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करें और उनके पालन-पोषण में किसी भी प्रकार का भेदभाव न करें।
बच्चों के सही पालन-पोषण और मां-बाप की ज़िम्मेदारियों के संदर्भ में हम एक अन्य महत्वपूर्ण विषय विवाह की चर्चा करने जा रहे हैं। विवाह मानवीय जीवन में घटने वाली एक महत्वपूर्ण घटना होती है, जो न केवल शारीरिक रूप से इंसान के अधूरे पन को दूर करती है, बल्कि आध्यामिक एवं मानसिक रूप से भी उसे संपूर्णतः प्रदान करती है।
शादी ब्याह और बेटे-बेटियें के लिए जीवन साथी के चयन में मां-बाप की अहम भूमिका होती है। मां-बाप बच्चों के पालन-पोषण और उन्हें बड़ा करने में अपना ख़ून पसीना बहाते हैं और हमेशा उन्हें ख़ुशहाल एवं फलता फूलता देखने की मनोकामना करते हैं। जब यही बच्चे जवान हो जाते हैं और उनके विवाह की बारी आती है तो भी मां-बाप उनके ख़ुशहाल वैवाहिक जीवन के लिए कोई कसर उठा नहीं रखते।
मां-बाप शब्द से ही अपनी संतान के विवाह के प्रति इंसान के कांधों पर एक विशेष ज़िम्मेदारी का एहसास होता है। हालांकि यह ज़िम्मेदारी समाज के हर उस सदस्य पर होती है, जो इस संदर्भ में कुछ करने की स्थिति में होता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि यह एक सार्वजनिक ज़िम्मेदारी होती है, लेकिन इसमें मां-बाप की स्थिति और ज़िम्मेदारी विशेष होती है। उदाहरण स्वरूप, युवाओं की भलाई की चिंता और ग़लत क़दम उठाने से बचाने का प्रयास, ग़लत चयन के प्रति सचेत करना या उस काम को अंजाम देने से रोकना जो उनके हित में नहीं है। ऐसे अवसरों पर युवाओं को सचेत करना ज़रूरी है। वास्तव में यह ऐसी ज़िम्मेदारी है जो समाज के समस्त सदस्यों से संबंधित होती है। अगर किसी को यह पता चलता है कि उसका दोस्त कोई ऐसा काम करना चाहता है जो ग़लत है या काम का परिणाम उसके हित में नहीं है, तो वह इस ओर उसका ध्यान दिलाता है।
जहां तक संतान के विवाह को लेकर मां-बाप की ज़िम्मेदारियों का संबंध है, यह ज़िम्मेदारी प्राकृतिक है। इसलिए भी क्योंकि युवाओं को संयुक्त जीवन का कोई अनुभव नहीं होता है। जीवन के महत्वपूर्ण मोड़ पर उन्हें बुज़ुर्गों और मां-बाप के अमूल्य मार्गदर्शन की ज़रूरत होती है।
इस संदर्भ में युवाओं की सबसे अधिक सहायता वह कर सकता है, जो मानसिक और आध्यात्मिक रूप से सबसे अधिक उनसे जुड़ा हुआ होता है। इसके अलावा उन्हें सबसे अधिक जानता पहचानता है। कभी ऐसा होता है कि मां-बाप अपने बच्चों से अटूट प्यार करते हैं, लेकिन उन्हें अच्छी तरह पहचानते नहीं हैं। वे उनकी प्रतिभाओं और क्षमताओं से अवगत नहीं हैं। इसलिए सबसे पहले अपने बच्चों को पहचानना और उनकी क्षमताओं एवं कमज़ोरियों से अवगत होना ज़रूरी है। इसके अलावा, अपने बच्चों से भावनात्मक जुड़ाव आवश्यक है। इस प्रकार हम अपने बच्चों के विवाह और उनके वैवाहिक जीवन को सफल बनाने में सहायता कर सकेंगे।
मां-बाप को चाहिए कि अपने बच्चों के उचित जीवन साथी के चयन में उनकी सहायता करें और इस संदर्भ में हर प्रकार के पूर्वाग्रह और व्यक्तिगत इच्छा थोपने से परहेज़ करें। मां-बाप को अपने दांपत्य जीवन के अनमोल अनुभवों से अपने बच्चों को अवगत कराना चाहिए और अपने अनुभवों से लाभ उठाते हुए उनका मार्गदर्शन करना चाहिए। जीवन के उतार चढ़ाव, ऊंच नीच और कठिनाईयों से उन्हें परिचित करें। सही जीवन साथी के चयन के लिए मापदंडों का उल्लेख करें। इस संदर्भ में बच्चों से वाद विवाद करके स्थिति को तनावपूर्ण बनाने से बचें, बल्कि उनके लिए शांतिपूर्ण वातावरण उत्पन्न करें और उनका भरोसा जीतने का प्रयास करें।
आजकल अक्सर सुनने को मिलता है कि ज़माना अब बदल चुका है, परिस्थितियां एकदम अलग हैं, इसलिए मां-बाप और परिवार के अन्य बुज़ुर्गों को युवाओं के विवाह एवं वैवाहिक जीवन में किसी प्रकार की कोई दख़ल अंदाज़ी नहीं करनी चाहिए। लेकिन आज भी जब हम सफल एवं असफल वैवाहिक जीवन के कारणों की समीक्षा करते हैं और इस संदर्भ में प्राप्त आंकड़ों पर नज़र डालते हैं, तो इस प्रकार के विचार प्रासंगिक एवं तार्किक नहीं लगते। आज भी बच्चे विगत की भांति परिवार में ही पलते बढ़ते हैं और उनका पालन-पोषण मां-बाप के हाथों होता है। केवल नकनीक के विस्तार और सूचना साधनों के आधुनिकीकरण के आधार पर युवाओं को उनके हाल पर नहीं छोड़ा जा सकता। इस संदर्भ में कुछ परिवार लापरवाही से काम लेते हैं और यह तर्क देते हैं कि उनकी संतान जिस किसी को भी अपने जीवन साथी के रूप में चयन करेगी, उन्हें स्वीकार होगा। इसके पीछे उनका एक और तर्क यह होता है कि अगर हम ऐसा करेंगे तो बाद में आने वाली संभावित समस्याओं की ज़िम्मेदारी भी हमारे कांधों पर होगी। लेकिन इस तरह की सोच पूर्ण रूप से अप्रासंगिक है, इसलिए कि मां-बाप और संतान का रिश्ता एक प्राकृतिक एवं भावनात्मक रिश्ता है जिसे किसी भी स्थिति में नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि एक दूसरे के दुख-सुख और ख़ुशियां एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। इसलिए दोनों का सदैव यही प्रयास रहता है कि एक दूसरे के दुख सुख बाटें और एक दूसरे को हमेशा ख़ुश रखें।
विभिन्न समाजों में 5175 दंपतियों पर किए गए अध्ययन से पता चलता है कि मां-बाप के विरोध के बावजूद शादी करने वाले 88 प्रतिशत लोग अपने वैवाहिक जीवन से संतुष्ट नहीं थे। मां-बाप में से कोई एक अगर उनके विवाह का विरोधी था, तो यह प्रतिशत घटकर 73 प्रतिशत रह जाता है। इसके विपरीत, मां-बाप की सहमति से विवाह करने वाले 85 प्रतिशत दंपतियों ने अपने वैवाहिक जीवन के प्रति पूर्ण संतोष व्यक्त किया। इन तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि जीवन साथी के चयन में आज भी मां-बाप की मर्ज़ी और सहमति का वही महत्व है, जो विगत में था।
लेकिन यह सिर्फ़ सिक्के का एक रुख़ है। कभी कभी मां-बाप का अत्यधिक हस्तक्षेप युवाओं के दांपत्य जीवन में विशेष रूप से जीवन साथी के चयन में बड़ी रुकावट बन जाता है। मां-बाप जिस प्रकार अपने बच्चों पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं, उसी प्रकार नकारात्मक प्रभाव भी डाल सकते हैं। सफल जीवन के लिए इस अंतर को पहचानना ज़रूरी है, जिसके लिए काफ़ी होशियारी और समझदारी की आवश्यकता होती है।
मां-बाप जब कहते हैं कि तुम्हें उस व्यक्ति को अपना जीवन साथी बनाना है, जिसे हम पसंद करते हैं, या तुम जिस व्यक्ति को पसंद करते हो उससे विवाह नहीं कर सकते, इसलिए कि वह हमें नापसंद है, तो वास्तव में वे इस प्रकार से अपने और अपनी संतान के बीच एक दीवार खड़ी कर रहे होते हैं। इस प्रकार की परिस्थितियों में यह सवाल उत्पन्न होता है कि मां-बाप किस हद तक अपने बच्चों के विवाह में हस्तक्षेप कर सकते हैं। मां-बाप को ऐसे व्यवहार करने से बचना चाहिए कि बच्चों को यह एहसास हो कि वह अपने जीवन का कोई निर्णय स्वाधीनता से नहीं ले सकते। यहां पूरा साहस जुटाकर यह कहा जा सकता है कि इस तरह के मामलों में मां-बाप को चाहिए अंतिम निर्णय का अधिकार अपने बच्चों को दें। इसलिए कि यहीं वह हैं जो जीवन भर इस संयुक्त जीवन की ज़िम्मेदारी अपने कांधों पर उठायेंगे। इस प्रकार की परिस्थितियां उत्पन्न होने की स्थिति में मां-बाप को चाहिए अपने निर्णय से अपने बच्चों को अवगत करा दें, लेकिन अंतिम निर्णय का अधिकार उन्हें ही प्रदान करें।
शादी के बाद भी कभी कभी मां-बाप का हस्तक्षेप युवाओं के वैवाहिक जीवन के लिए हानिकारक हो सकता है। क्योंकि ऐसा देखने में आता है कि दंपति के बीच उत्पन्न होने वाले मतभेद का कारण उनके अपने मामले नहीं हैं, बल्कि मां-बाप समेत परिवार के अन्य सदस्यों का अत्यधिक हस्तक्षेप या ग़लत फ़हमी है। आजकल यह ज़्याजा देखने में आता है, परिवार के सदस्य दंपति के कुछ व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप करके नकारात्मक प्रभाव डालते हैं और आपसी मतभेदों का कारण बनते हैं।
मां-बाप के रूप में अगर आप अपने बच्चों के विवाह और जीवन साथी के चयन में कड़ा रुख़ दिखा रहे हैं या अत्यधिक हस्तक्षेप कर रहे हैं, तो संभव है आपका बच्चा प्रतिरोध करे, या उदासीन हो जाए या भविष्य में अपने वैवाहिक जीवन की समस्याओं का ज़िम्मेदार आपको समझे और अपनी ज़िम्मेदारियों से बचने का प्रयास करे। वास्तव में मां-बाप अपने बच्चों से अधिक भावनात्मक लगाव के कारण, चिंतित रहते हैं और यही चिंता उनके हस्तक्षेप का कारण बनती है। संभव है उनके निकट यह कोई हस्तक्षेप ही न हो, इसके बावजूद उनका यह क़दम समस्या उत्पनन्न करने का कारण बन रहा हो।