घर परिवार और बच्चे-३४
हमने बच्चों के सही पालन-पोषण और मां-बाप की ज़िम्मेदारियों के संदर्भ में एक अन्य महत्वपूर्ण विषय विवाह की चर्चा शुरू की थी।
शादी ब्याह और बेटे-बेटियें के लिए जीवन साथी के चयन में मां-बाप की अहम भूमिका होती है। मां-बाप बच्चों के पालन-पोषण और उन्हें बड़ा करने में अपना ख़ून पसीना बहाते हैं और हमेशा उन्हें ख़ुशहाल एवं फलता फूलता देखने की मनोकामना करते हैं। जब यही बच्चे जवान हो जाते हैं और उनके विवाह की बारी आती है तो भी मां-बाप उनके ख़ुशहाल वैवाहिक जीवन के लिए कोई कसर उठा नहीं रखते।
इस संदर्भ में युवाओं की सबसे अधिक सहायता वे मां-बाप कर सकते हैं, जो मानसिक और आध्यात्मिक रूप से अपने बच्चों से जुड़े हुए होते हैं। इसके अलावा उन्हें सबसे अधिक जानते पहचानते हैं। कभी ऐसा होता है कि मां-बाप अपने बच्चों से अटूट प्यार करते हैं, लेकिन उन्हें अच्छी तरह पहचानते नहीं हैं। वे उनकी भावनाओं और प्रतिभाओं से अवगत नहीं हैं। परिणाम स्वरूप, दोनों के बीच ज़रूरी भावनात्मक लगाव का अभाव देखने में आता है। यही कारण है कि जीवन के इस महत्वपूर्ण मोड़ पर वे अपने बच्चों की उस तरह से सहायता नहीं कर पाते, जिस तरह से करनी चाहिए।
इसलिए बच्चों के साथ भावनात्मक लगाव के साथ साथ उन्हें पहचानना और उनकी क्षमताओं एवं कमज़ोरियों से अवगत होना ज़रूरी है। इस प्रकार हम अपने बच्चों के विवाह और उनके वैवाहिक जीवन को सफल बनाने में सहायता कर सकते हैं।
इसी प्रकार हमने उल्लेख किया था कि मां-बाप जिस प्रकार अपने बच्चों पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं और जीवन के अहम मोड़ों पर उनका बेहतरीन मार्गदर्शन करते हुए सफल जीवन के लिए भूमि प्रशस्त करते हैं, उसी प्रकार नकारात्मक प्रभाव भी डाल सकते हैं और उनके असफल जीवन का एक कारण बन सकते हैं। सफल जीवन के लिए प्रभाव के इस अंतर को पहचानना ज़रूरी है, जिसके लिए काफ़ी होशियारी और समझदारी की आवश्यकता होती है।
मां-बाप जब कहते हैं कि तुम्हें उस व्यक्ति को अपना जीवन साथी बनाना है, जिसे हम पसंद करते हैं, या तुम जिस व्यक्ति को पसंद करते हो उससे विवाह नहीं कर सकते, इसलिए कि वह हमें नापसंद है, तो वास्तव में वे इस प्रकार से अपने और अपनी संतान के बीच एक दीवार खड़ी कर रहे होते हैं। बच्चों को कदापि यह एहसास नहीं होना चाहिए कि वे अपने जीवन के महत्वपूर्ण फ़ैसले ख़ुद नहीं कर सकते। ऐसे अवसरों पर मां-बाप को चाहिए कि वे अपनी जानकारी, अनुभवों और बुद्धि के आधार पर अपने बच्चों का मार्गदर्शन ज़रूर करें और उन्हें जीवन की ऊंच नीच से आवश्यक अवगत करवायें, लेकिन अंतिम निर्णय उन्हीं पर छोड़ दें।
मां-बाप अगर जानते हैं कि उनका बेटा या बेटी ग़लत फ़ैसला ले रहे हैं, तो उन्हें स्पष्ट तर्कों के साथ अपनी बात रखनी चाहिए, इसके बावजूद भी अगर उन्होंने स्वीकार नहीं किया तो उनसे कहा जाना चाहिए कि अगर हमारी सलाह स्वीकार नहीं कर रहे तो तुम अपने फ़ैसलों को ख़ुद ज़िम्मेदार होगे। केवल इतना ही नहीं बल्कि उनके सामने पूरी तस्वीर पेश करें कि किन अवसरों और परिस्थितियों में उन्हें यह ज़िम्मेदारी स्वीकार करनी होगी। अधिकांश अवसरों पर देखा गय है कि जब बच्चे अपने मां-बाप की यह तार्किक एवं स्पष्ट बातें सुनते हैं तो अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार ज़रूर करते हैं। मां-बाप को चाहिए कि बिना किसी व्यक्तिगत हित के अपनी बात रखें।
जब संतान के विवाह का समय निकट आता है तो सामान्य रूप से मां-बाप के मन में एक बात आती है कि हमने इनके लालन पालन के लिए वर्षों तक कष्ट झेले और कठिनाईयां सहन की हैं, अब समय आ गया है कि उन्हें उनकी इन कठियाईयों का फल मिले। यह विचार उन्हें कुछ ज़्यादा ही संवेदनशील बना देते हैं और वे अपने बच्चों के विवाह से संबंधित हर मामले को संदेह की नज़रों से देखने लगते हैं और हर मामले में अपनी उपस्थिति ज़रूरी समझते हैं।
निःसंदेह मां-बाप का यह अधिकार होता है कि वे अपने बच्चों के विवाह से संबंधित मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करें, लेकिन समस्या उस समय उत्पन्न होती है, जब मां-बाप अपने बच्चों के प्रति स्वामित्व का एहसास करने लगें और उनका हर फ़ैसला ख़ुद करने लगें यहां तक कि उनकी जगह ख़ुद ही सोचने भी लगें। इस प्रकार के आचरण का परिणाम यह निकलेगा कि मां-बाप और बच्चों के संबंध विच्छेद हो जायेंगे और उनके बीच एक लम्बी चौड़ी खाई उत्पन्न हो जाएगी, या फिर वे पूर्ण रूप से उनपर निर्भर हो जायेंगे और कभी स्वाधीनता से कोई निर्णय नहीं ले पायेंगे।
हालांकि वास्तविकता यह है कि किसी भी स्थिति में मां-बाप अपने बच्चों के मालिक नहीं होते हैं, बल्कि यह उनके पास ईश्वर के वह उपहार होते हैं, जिनके पालन पोषण की ज़िम्मेदारी ईश्वर ने उन्हें सौंपी है और प्राकृतिक रूप से उनके मन में एक दूसरे की मोहब्बत और ममता डाली है। इसलिए मां-बाप को यह बात दिमाग़ से निकाल देनी चाहिए कि क्योंकि अपने बच्चों को उन्होंने जन्म दिया है और उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया है, इसलिए वे उनके मालिक हैं। इस्लामी दृष्टिकोण के मुताबिक़, इंसान इस दुनिया में जिस तरह ख़ाली हाथ आता है, इसी तरह वह इस दुनिया से ख़ाली हाथ चला जाता है। धन-दौलत, संतान और दुनिया की कोई भी चीज़ उसके साथ नहीं जाती। ब्रह्माण्ड और जो कुछ भी उसमें है, उसका स्वामी ईश्वर है, इंसान तो केवल एक मुसाफ़िर है, इसलिए अपनी ज़रूरत के तहत जो कुछ उसे इस दुनिया में चाहिए वह उससे भरपूर लाभ उठाए, लेकिन किसी चीज़ को व्यर्थ न करे, क्यों? इसलिए कि वह स्वामी नहीं है और जो स्वामी है उसने इसे इससे अधिक अधिकार प्रदान नहीं किया है। इन्हीं समस्त चीज़ों और अनुकंपाओं में संतान भी शामिल है। इसलिए मां-बाप को ख़ुद को अपनी संतान के स्वामी के रूप में नहीं देखना चाहिए, बल्कि ईश्वर ने जहां उन्हें यह उपहार दिया है और अनुकंपा प्रदान की है, वहीं उसके प्रति कुछ ज़िम्मेदारियां भी सौंप दी हैं। अतः अपनी संताल के लिए फ़ैसले लेते समय मां-बाप को अपनी सीमा का ज्ञान होना चाहिए और कदापि उस सीमा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।
यह महीना मोहर्रम का महीना है, एक ऐसा महीना जिसमें क़रीब 1400 वर्ष पूर्व एक ऐसी महान घटना घटी जिसने पूरी मानवता को प्रभावित किया और इस्लाम धर्म को एक नया जीवन प्रदान किया। सन् 680 में कर्बला में इमाम हुसैन (अ) ने अपने चंद साथियों के साथ अत्याचारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और अन्याय के मुक़ाबले में सदैव के लिए हक़ को उजागर करने के लिए अपनी जान क़ुर्बान कर दी। लेकिन कर्बला की महान घटना केवल इस संदेश से महान नहीं हुई, बल्कि इस संदेश में जो व्यापकता छिपी हुई है जो मानवीय जीवन के हर आयाम के लिए संपूर्ण आदर्श है उसने इसे दुनिया की सबसे महान और व्यापक घटना बना दिया। मोहर्रम के महीने के पहले दस दिनों में अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में इमाम हुसैन (अ) और उनके साथियों ने आपस में जो आचरण पेश किया और अत्याचारी शासन एवं भ्रष्टतम व्यवस्था के मुक़ाबले में जो व्यवहार किया वह व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन के लिए उत्कृष्टतम आदर्श है। मानवता को मुक्ति प्रदान करने वाले इस आंदोलन के अनगिनत आयाम हैं, जिसमें से एक आयाम इंसान का सही मार्गदर्शन और उसकी सही शिक्षा-दीक्षा है। कर्बला में जहां हम एक तरफ़ इंसानियत को लोभ, कामुकता, भ्रष्टाचार, अत्याचार और इच्छाओं की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ देखते हैं, तो वहीं बिल्कुल इसके विपरीत इंसानियत को निष्ठा, मुक्ति, ईश्वर की बंदगी, बलिदान, स्वाधीनता, स्वतंत्रता और भाईचारे के शिखर पर देखते हैं।
इमाम हुसैन (अ) ने कर्बला में एक ऐसी विचारधारा की बुनियाद रखी कि जिसे अपनाकर इंसान सम्मानजनक जीवन जी सकता है और मुक्ति प्राप्त सकता है। जो कोई भी कर्बला के आंदोलन को आदर्श बनाएगा वह हमेशा उद्देश्यपूर्ण एवं गौरवशाली जीवन व्यतीत करेगा, इसलिए कि इमाम हुसैन के आंदोलन का उद्देश्य उत्कृष्ट एवं ईश्वरीय है जिसका आधार मानवीय मूल्य हैं।
निःसंदेह इंसान की सही परवरिश के लिए कर्बला का आंदोलन एक अद्वितीय आदर्श है और जब तक मानवीय नस्ल बाक़ी है वह इसका मार्गदर्शन करता रहेगा।
इस आंदोलन का एक आयाम मानवीय शिक्षा-दीक्षा है। मानवीय शिक्षा-दीक्षा दो प्रकार से होती है, सामाजिक शिक्षा-दीक्षा और व्यक्तिगत शिक्षा-दीक्षा। इमाम हुसैन (अ) ने समाज में बढ़ते हुए भ्रष्टाचार, अंधविश्वास और इस्लाम धर्म के विश्वासों को बदलने के प्रयासों को चेलेंज किया और समाज का ईश्वीरय मार्ग की ओर मार्गदर्शन करते हुए उसे जागरुक किया।
इमाम हुसैन (अ) ने अपने चमन में ऐसे ऐसे अनमोल पौधों को एकत्रित किया और उन्हें सींचा कि उनमें से हर एक आशूर के दिन या दस मोहर्रम सन् 61 हिजरी को ऐसा फलाफूला कि उसकी महक और ख़ुशबू रहती दुनिया तक इंसानियत का मन मोहती रहेगी। इमाम ने समाज में इधर उधर बिखरे हुए हीरों को अपने प्रकाशमय व्यक्तित्व से आकर्षित किया और उन्हें ऐसा तराशा कि आशूर के दिन दोपहर तक उनके प्रकाश ने अस्तय के अँधेरों को हमेशा के लिए छांट दिया। उस दिन बच्चों, पुरुषों, महिलाओं, बूढ़ों, बूढ़ियों, मां, पिता, बेटा, बेटी, भाई, बहन, दोस्त, मालिक और ग़ुलाम यहां तक कि हर इंसानी रिश्ता संपूर्ण इंसानियत के रूप में उजागर हुआ और हमेशा के लिए आदर्श बन गया।