तकफ़ीरी आतंकवाद-27
हमने बताया कि आले सऊद और वहाबियों ने अपने शासन क्षेत्र में विस्तार के लिए क्या- क्या अपराध अंजाम दिये।
तकफ़ीरी और आतंकवादी गुट और उनमें सर्वोपरि दाइश सीरिया और इराक में जो कुछ अंजाम दे रहे हैं उसकी सीख उन्होंने सौ साल पहले के वहाबियों से ली है। केवल शिया ही नहीं बल्कि सुन्नी मुसलमान भी वहाबियों के अपराधों की मूल भेंट चढ़े हैं। वहाबियों ने उन वर्षों में सुन्नी मुसलमानों का पूरी शक्ति से जनसंहार किया जिन वर्षों में ब्रिटेन की सहायता से उन्होंने नज्द के क्षेत्र पर अपना वर्चस्व पूरा किया। अतिशयोक्ति के बिना और वहाबी लेखकों के अनुसार नज्द और हिजाज़ में कोई ऐसा कोई क्षेत्र नहीं था जहां के लोग स्वतंत्रता और दिल से वहाबी विचार धारा को स्वीकार कियों हो। इसी कारण इब्ने बिश्र की किताब “उनवानुल मज्द” और इब्ने ग़नाम की “तारीख़े नज्द” किताबों के महत्वपूर्ण भागों में उन युद्धों, हत्याओं और लूट खसोट का उल्लेख किया गया है जिसे वहाबियों ने अंजाम दिया है। स्वयं वहाबियों ने दूसरों से बेहतर ढंग से बयान किये हैं कि उन्होंने अपने अपराधों को किस प्रकार अंजाम दिये हैं। “जज़ीरतुल अरब” नाम की किताब का लेखक जो सऊदी सरकार का निकटवर्ती था, लिखता है” अब्दुल अज़ीज़ बिन सऊद कहता था जब हमारे पूर्वज मोहम्मद बिन सऊद हिजाज़ क्षेत्र के क़बीलों से युद्ध करने में व्यस्त थे तो उन्होंने मुतैर क़बीले के गणमान्य लोगों के एक गुट को बंदी बना लिया। इस क़बीले के कुछ गणमान्य व बुज़ुर्ग लोग बंधक बनाये गये लोगों की सिफारिश के लिए मोहम्मद बिन सऊद के पास आये और उनसे कहा कि वह इस गुट को माफ़ कर दें किन्तु मोहम्मद बिन सऊद ने आदेश दिया कि बंदियों के सिरों को उनके शरीरों से अलग कर दिया जाये। उसके पश्चात सिरों को खाने की थालियों में रखा गया और उन थालियों को मुतैर क़बीले के बुज़ुर्गों के सामने लाया गया। मोहम्मद बिन सऊद ने उनसे कहा कि इन भोजनों को वे खायें जिनमें उनके क़बीले के लोगों के सिर रखे हुए हैं और अगर उन्होंने यह काम नहीं किया तो उन सबकी हत्या कर दी जायेगी।“
निर्मम हत्या और युद्ध से जब आले सऊद ने समस्त सुन्नी क़बीलों को अपने और वहाबियों के वर्चस्व में कर लिया तब वह हिजाज़ के पूर्व में स्थित शीया आवासीय क्षेत्र एहसा की ओर बढ़ा। एहसा उन क्षेत्रों में से है जो प्राचीन समय से शिया आवासीय क्षेत्र था और इस क्षेत्र में शिया विचार बहुत प्रचलित थे। यह उन क्षेत्रों में से था जिस पर वर्चस्व जमाने के लिए वहाबियों को बहुत अधिक कठिनाइयों व प्रतिरोधों का सामना करना पड़ा। अंततः लोगों की हत्या करने और लूट -खसोट के बाद वहाबियों ने इस क्षेत्र पर वर्चस्व जमा लिया। अहसा प्रांत या अश्शरक़िया को सऊदी अरब का सबसे बड़ा प्रांत समझा जाता है और हफूफ़, दम्माम और क़तीफ़ जैसे नगर इस प्रांत के शहर हैं। अहसा सऊदी अरब में तेल से सम्पन्न महत्वपूर्ण क्षेत्रों में से एक है। चूंकि इस इलाके में शीया और सामान्य व संतुलित विचार के सुन्नी रहते हैं इसलिए इतिहास के किसी भी समय वहाबी सम्प्रदाय इस क्षेत्र में अपना प्रभाव न जमा सका। यद्यपि इतिहास के कुछ काल में वहाबी संप्रदाय ने इस क्षेत्र को अपने वर्चस्व में कर लिया था परंतु उसे सदैव विभिन्न आंदोलनों व विद्रोहों का सामना रहा और आज भी इस क्षेत्र को सऊदी अरब में शियों का एक महत्वपूर्ण केन्द्र समझा जाता है।
इब्ने बिश्र अपनी किताब “उनवानुल मज्द फी तारीख़िन्नज्द” में अहसा के एक क्षेत्र पर सऊद की सेना के एक हमले के बारे में लिखता है” जब सुबह हो गयी तो सऊद के सैनिक अपने घोड़ों पर सवार हो गये और उन्होंने शहर पर हमला कर दिया। आसमान काला हो गया और ज़मीन हिलने लगी। धुआ और आग आसमान में फैल गये। भय के कारण एहसा की बहुत सी महिलाओं का गर्भपात हो गया। उसके बाद सऊद के सैनिक शहर में घुसे और कई महीनों तक वह शहर में रहे। इस अवधि में उसने जिसकी चाही हत्या की, शहर से निकाला और बंदी बनाया। लोगों का माल लूटा। घरों और आबादियों को बर्बाद किया और इस मध्य उसने बहुत अधिक हत्यायें की। इस युद्ध में सऊद ने उन धनों को प्राप्त किया जिसका न तो वर्णन व्यिक्तयों है और न ही गणना की जा सकती है।“ किन्तु सऊद और वहाबियों के अपराध हिजाज़ के क्षेत्र तक सीमित नहीं थे।
वहाबी सरकार के गठन के आरंभ से ही इराक में शीयों के पवित्र स्थलों पर क़ब्ज़ा करने और उन्हें लूटने की सोच वहाबियों में मौजूद थी। वहाबियों ने जिस तरह दूसरे इस्लामी क्षेत्रों में लूट- खसोट की उसी तरह वे अपने हमलों का औचित्य मूर्तिपूजा से मुकाबला और एकेश्वरवाद की सरकार की स्थापना के नारे से करते थे। वहाबी, शियों को हंबली और दूसरे मुसलमानों की भांति काफिर कहते थे। प्रथम अब्दुल अज़ीज़ के सत्ताकाल में उसके बेटे सऊद ने, जिस पर मुसलमानों के आवासीय क्षेत्रों पर चढ़ाई करने की ज़िम्मेदारी थी, इराक के पवित्र नगर कर्बला पर हमला करने के लिए एक सशस्त्र सेना तैयार की। वहाबी इतिहासकार इब्ने बिश्र इस संबंध में लिखता है” सऊद 1216 हिजरी कमरी में ऐसी सेना के साथ कर्बला की ओर बढ़ा जिसमें नज्द, उसके आस पास के क्षेत्रों, हिजाज़ और तहामा इलाक़ों के लोग शामिल थे और वह इन सैनिकों के साथ कर्बला पहुंच गया। उसके सैनिकों ने दीवारों को ध्वस्त कर दिया और ताक़त के बल पर शहर में घुस गये और बाज़ारों तथा घरों में अधिकांश लोगों की हत्या कर दी।“
रूसी प्रतिनिधि रूसी दूतावास के नाम अपनी रिपोर्ट में सऊद और उसके सैनिकों द्वारा की जाने वाली हत्या और लूट- खसोट के बारे में लिखता है” 12 हज़ार वहाबियों ने अचानक इमाम हुसैन की ज़रीह पर हमला कर दिया और मूल्यवान चीज़ों पर क़ब्ज़ा कर लेने के बाद कि उन जैसी चीज़ों को वहाबियों ने अपने हमलों में कभी नहीं देखा था, आग और तलवार के अतिरिक्त कुछ नहीं था। बूढ़ों, बच्चों और महिलाओं की हत्या कर दी और क्रूरता व निर्दयता में संकोच से काम नहीं लिया। लोगों की हत्या करना बंद नहीं किया और लोभ से भरे इस हमले के परिणाम स्वरूप चार हज़ार से अधिक लोग मारे गये और वह चार हज़ार ऊंटों को भी अपने साथ ले गये। लोगों की हत्या और लूट -खसोट के बाद इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के मज़ार को खून और कूड़ा -करकट के ढ़ेर में परिवर्तित कर दिया।“ उसके बाद सऊद ने पवित्र स्थलों पर कई बार हमला किया परंतु कभी भी वह एक भी हमले में सफल नहीं हुआ।
इब्ने बिश्र 1220 हिजरी क़मरी में इराक के पवित्र नगर नजफ़ पर सऊद के हमले की घटना की ओर संकेत करता है कि जो विद्वानों, धर्मगुरूओं, धार्मिक छात्रों और नजफ के लोगों के कड़े प्रतिरोध व संघर्ष तथा बहुत अधिक जानी नुकसान के बाद पीछे हटने पर बाध्य हुआ और पवित्र नगर नजफ के आस- पास के कबीलों की लूट- खसोट पर ही संतोष कर लिया।
ब्रिटेन के समर्थन से अब्दुल अज़ीज़ की सरकार का वर्चस्व धीरे- धीरे अरब प्रायद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों पर हो गया परंतु पवित्र नगर मक्का और मदीना पर वर्चस्व जमाने की सोच हर वक्त उसे सताती रहती थी। दूसरी ओर ब्रिटेन इस परिणाम पर पहुंचा था कि मक्के में शरीफ हुसैन ब्रिटेन के हितों की पूर्ति नहीं कर सकता। वर्ष 1924 में अब्दुल अज़ीज़ के आदेश से सबसे पहले ताएफ़ पर हमला किया गया। ताएफ़ पवित्र नगर मक्का के निकट एक आबाद और सुन्दर नगर था। सितंबर वर्ष 1924 में अब्दुल अज़ीज़ के सैनिक ताएफ़ नगर में प्रविष्ट हुए। इन सैनिकों ने तीन दिनों तक ताएफ़ नगर को अपने लिए हलाल कर लिया और इस अवधि में जो अपराध करना चाहा उन्होंने उसे किया। नगर के बहुत से लोग भाग गये और जो लोग, महिलाएं और बच्चे वहाबियों के चंगुल में फंस गये वहाबियों ने उन सबकी हत्या कर दी। ताएफ़ पर कब्ज़ा हो जाने के बाद पवित्र नगर मक्के पर भी क़ब्ज़े की भूमि प्रशस्त थी परंतु अब्दुल अज़ीज़ ब्रिटेन के दृष्टिकोण से सुंतष्ट नहीं था कि वह उसकी सहायता करेगा। इसलिए वह पवित्र नगर मक्का पर कब्ज़ा करने में असमंजस का शिकार था और उसे इस बात का भय था कि ब्रिटेन अब भी मक्के में प्रतिष्ठित लोगों की सरकार के बारे में सकारात्मक दृष्टिकोण रखता हो और मक्के पर कब्ज़ा कर लेने से वह उसके विरुद्ध युद्ध में शामिल न हो जाये परंतु ब्रिटेन के इशारे पर अक्तूबर 1924 को वहाबी सेना मक्के में घुस गयी। मक्के के लोग ताएफ़ में वहाबियों के अपराध से अवगत थे इसलिए उन्होंने वहाबी सैनिकों के मुकाबले में कोई प्रतिरोध नहीं किया। इसके बावजूद वहाबियों ने मक्का में लोगों की सम्पत्ति की लूट -खसोट की। पांच दिसंबर वर्ष 1924 को अब्दुल अज़ीज़ पांच हज़ार की सेना के साथ मक्के में प्रविष्ट हुआ। वर्ष 1925-1926 में धीरे- धीरे मक्के और मदीने पर आले सऊद की सरकार हो गयी।
कुल मिलाकर अब्दुल अज़ीज़ के सत्ता में पहुंचने और वहाबियों की सरकार के तीसरे दौर में इख़वान ने, जो अब्दुल अज़ीज़ के महत्वपूर्ण सैनिक थे, अब्दुल अज़ीज़ के दूसरे सैनिकों के साथ मिलकर चार लाख से अधिक लोगों की हत्या की। चार हज़ार लोगों का सिर क़लम किया और साढ़े तीन लाख लोगों के हाथ- पांव काट दिये।
वहाबियों का एक अन्य अपराध इस्लामी स्थलों व चिन्हों को ध्वस्त कर देना था। वहाबी शासकों में से दो ने इस्लामी स्थलों और मुसलमानों के पवित्र स्थलों को ध्वस्त करने का काला कर्मपत्र अपने नाम कर लिया। पहला सऊद बिन अब्दुल अज़ीज़ है जिसने 1216 से 1222 हिजरी कमरी के वर्षों के दौरान बहुत से इस्लामी स्थलों पर हमला किया और बहुत से स्थलों को बर्बाद कर दिया। उसके काल में वहाबियों की सेना ने पवित्र स्थलों पर हमला किया और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के मज़ार को ध्वस्त कर दिया किन्तु केवल शीया मुसलमानों के पवित्र स्थलों को वहाबी सैनिकों ने तबाह नहीं किया।
अहमद ज़ैनी दहलान अपनी किताब “खुलासतुल कलाम फी बयाने ओमराइल बलदिल हराम” में मक्का में वहाबियों द्वारा पवित्र स्थलों के ध्वस्त करने के बारे में लिखता है” अभी सुबह नहीं हुई थी कि जो लोग वहाबियों के साथ थे उनके साथ मिलकर उन्होंने मस्जिदों और भले लोगों के चिन्हों को ध्वस्त करना आरंभ कर दिया। सबसे पहले उन्होंने मोअल्ला क़ब्रिस्तान में मौजूद मज़ार को ध्वस्त कर दिया। उसके बाद उस गुंबद को भी ध्वस्त कर दिया जिसका निर्माण पैग़म्बरे इस्लाम के जन्म स्थान पर किया गया था और उसके बाद वहाबियों ने हर उस चिन्ह को मिटा दिया जिसका संबंध भले लोगों से था। वहाबी जब क़ब्रों को ध्वस्त करते थे तो ढ़ोल बजाते थे, गाते थे और मोमिनों की क़ब्रों को ध्वस्त करने के दौरान वे बहुत सी अपमान जनक कार्यवाहियां करते थे।