Sep २१, २०१६ १५:४६ Asia/Kolkata

इस्लाम में मां-बाप के आदर और अधिकारों के विषय पर हमारी चर्चा जारी है।

इस्लाम ने मां-बाप के आदर और सम्मान पर अधिक बल दिया है, यहां तक कि अगर मां-बाप मुसलमान न भी हों तो उनका आदर और आज्ञापालन अनिवार्य है, जब तक कि वे अनेकेश्वरवाद का आदेश न दें, अर्थात अगर वे अल्लाह के अलावा किसी और ईश्वर की इबादत के लिए कहें या किसी अन्य को उसका साथी क़रार दें, तो उनके आदेश का पालन करना सही नहीं है।

वास्तव में ईश्वर के अलावा किसी की भी इबादत सही नहीं है, बल्कि महा पाप है, इसलिए क़ुराने मजीद में स्वयं ईश्वर ने इबादत के बाद जो सबसे अच्छा कार्य या पुण्य है, उसका मां-बाप के लिए आदेश दिया है। यानी मां-बाप का आदर करो और उनके साथ हमेशा भलाई करो।

इसका अर्थ यह है कि भलाई या शिष्टाचार, इबादत के बाद सर्वश्रेष्ठ कार्य है। इसलिए कि अगर इबादत के बाद, इससे बेहतर कोई अन्य कार्य होता, तो ईश्वर संतान को उसका आदेश देता। हम देखते हैं कि इबादत के अलावा अगर कोई ऐसा काम है, जो ईश्वर के साथ उसके बंदों के लिए सही है, तो ईश्वर ने अपने साथ मां-बाप को भी उसमें शामिल किया है और इंसान को उसका आदेश दिया है। जैसा कि क़ुराने मजीद के सूरए लुक़मान में ईश्वर आदेश देता है, मेरा और अपने मां-बाप का आभार व्यक्त करो।

इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) की सेवा में एक व्यक्ति उपस्थित हुआ और उसने कहा, मेरे मां बाप सत्य के मार्ग पर नहीं हैं। इमाम ने फ़रमाया, उनके साथ वैसा ही अच्छे से अच्छा व्यवहार करो जैसा कि जब करते जब वे मुसलमान होते।

यह विषय इस्लाम में इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि पवित्र ईश्वरीय किताब क़ुरान में और अंतिम ईश्वरीय दूत पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों के कथनों में मां-बाप के मुसलमान न होने की स्थिति में भी उनके आदर एवं सम्मान पर बल दिया गया है।

क़ुराने मजीद में जब ईश्वर मां-बाप के साथ भलाई और अच्छे व्यवहार का आदेश देता है, तो केवल मुसलमानों को ही संबोधित नहीं करता, बल्कि वह समस्त इंसानों को यह आदेश देता है।

सूरए अनकबूत की आठवीं आयत में ईश्वर कहता है कि हमने इंसान को यह नसीहत की है कि वह अपने मां-बाप के साथ भलाई करे। लेकिन अगर वे किसी चीज़ को मेरा सहभागी बनाना चाहें कि जिस के बारे में तुझे ज्ञान नहीं है तो उनका आज्ञापालन न कर।

दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि ईश्वर ने इंसान को मां-बाप के साथ भलाई और सेवा का पूर्ण रूप से आदेश दिया है और इसमें कोई अपवाद नहीं है। साथ ही इंसान विशेष रूप से मुसलमान को यह भी चेता दिया है कि अगर मां-बाप अनेकेश्वरवादी हों और वह तुम्हें भी अनेकेश्वरवाद का आदेश दें तो उनकी बात स्वीकार मत करो और उनका पालन नहीं करो। यहां महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि मां-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करने का आदेश असीमित और स्थायी है, लेकिन उनकी आज्ञापालन को इस बात से सशर्त कर दिया गया है कि उनकी आज्ञापालन उस वक़्त तक ही अनिवार्य है, जब तक वे अपनी संतान को सृष्टिकर्ता से दूर नहीं करते हैं।

 

इस आयत के नाज़िल होने के संबंध में विभिन्न घटनाओं का उल्लेख किया गया है, लेकिन सबसे प्रसिद्ध यह है कि मक्के में जब इस्लाम का उदय हुआ और ईश्वरीय दूत पैग़म्बरे इस्लाम ने ईश्वर के संदेश को लोगों तक पहुंचाया तो लोग विशेष रूप से युवा इस संदेश की ओर आकर्षित होने लगे। अधिकांश मक्का वासी जो अनेकेश्वरवादी थे और मूर्ति पूजा करते थे, जब इस बात से अवगत हुए कि उनके बच्चे अपने पूर्वजों का धर्म छोड़कर इस्लाम स्वीकार कर रहे हैं, तो वे बहुत आहत हुए। विशेष रूप से अनेकेश्वरवादी महिलाओं ने इसका कड़ा विरोध किया और आपत्ति स्वरूप खाना पीना बंद कर दिया और एलान कर दिया कि जब तक वे इस्लाम त्याग कर अपने पूर्वजों के धर्म पर वापस नहीं आयेंगे वे भूख हड़ताल जारी रखेंगी। यद्यपि किसी एक व्यक्ति ने भी इस्लाम का मार्ग नहीं छोड़ा और मक्के की महिलाओं ने भी अपना वादा पूरा नहीं किया और उन्होंने खाना पीना शुरू कर दिया।

इसी से संबंधित सआद विक़ास की घटना है। सआद अपनी मां से बहुत प्रेम करते थे और उसकी बहुत सेवा किया करते थे। जब इस्लाम का संदेश सआद के कानों तक पहुंचा तो अन्य कई युवाओं की भांति सआद ने भी मूर्ति पूजा के अपनी मां के धर्म को अलविदा कहा और इस्लाम स्वीकार कर लिया। इस्लाम स्वीकार करने के बाद भी सआद ने अतीत की भांति अबू सुफ़ियान की बेटी और अपनी मां की सेवा जारी रखी। सआद का कहना है कि जब मेरी मां को मेरे इस्लाम स्वीकार करने की सूचना मिली तो वह बहुत क्रोधित हुई और मुझसे कहा, बेटा यह कौन सा धर्म है जो तूने स्वीकार कर लिया है और अपने मां-बाप के धर्म को त्याग दिया है? यह कैसा धर्म है जो केवल एक ईश्वर की इबादत का पाठ पढ़ाता है और  मूर्ति का विरोध करता है।

सआद की मां ने जब देखा कि बेटे पर उसकी बातों का कोई असर नहीं हो रहा है और वह इस्लाम त्यागने के लिए किसी भी क़ीमत पर तैयार नहीं है, लेकिन इसके बावजूद अपनी मां का बहुत आदर और सेवा करता है, तो मां ने भावनात्मक चाल चली और बेटे से कहा कि अगर तू अपने इस नए धर्म को नहीं छोड़ेगा मैं खाना पीना छोड़ दूंगी और अपने प्राण त्याग दूंगी।

सआद ने अपनी मां को बहुत समझाया और भरपूर प्रयास किया कि वह ऐसा कोई क़दम नहीं उठाए। लेकिन मां ने भूख हड़ताल की अपनी धमकी को व्यवहारिक बना दिया। इसी तरह एक दो दिन बीत गए और सआद की मां ने कुछ नहीं खाया, भूख व प्यास से उसकी हालत ख़राब होने लगी। मां ने सआद से कहा कि बेटा जब तक तू अपने पूर्वजों के धर्म पर वापस नहीं लौटेगा, मैं कुछ नहीं खाऊंगी चाहे यहां तक कि अपने प्राण त्याग न दूं। मेरे मरने के बाद, लोग तुझे बुरा भला कहेंगे, क्योंकि तू मेरी मौत का कारण होगा।

सआद का मन ईमान के प्रकाश से रोशन हो चुका था, इसलिए उन्होंने पूर्ण विश्वास से कहा, मेरी प्यारी मां, यह सही है कि मैं तेरा बहुत आदर करता हूं, लेकिन ईश्वर और उसके पैग़म्बर को तुझसे भी अधिक चाहता हूं। अगर तुझे 100 बार भी जीवन प्राप्त हो और हर बार तू भूख और प्यास से ज़िंदगी की जंग हार जाएगी तो भी मैं इस्लाम का मार्ग नहीं छोड़ूंगा। मां ने जब यह देखा कि बेटा इस्लाम पर इतना दृढ़ विश्वास रखता हू और वह अपने फ़ैसले पर अटल है, तो अपनी ज़िद छोड़ दी और खाना पीना शुरू कर दिया।

 

सआद ने इस्लाम की शिक्षा पर इस तरह अमल किया और मां ने जिस धर्म संकट में उन्हें डाल दिया था, इस प्रकार उन्होंने इस का समाधान निकाल लिया। सआद ने मां के आदर और सेवा में कोई लापरवाही नहीं की, लेकिन सत्य का मार्ग त्यागने के मां के आदेश का पालन नहीं किया। क्योंकि अगर सआद ऐसा करते तो सत्य का मार्ग त्याग देते और अनेकेश्वरवाद का महा पाप करते।

ईश्वर इस प्रकार अपने बंदों की परीक्षा लेता है और उनके सामने ईमान या भावनात्मक रिश्तों में से किसी एक के चयन का उपाय पेश करता है। क़ुरान ने इस संदर्भ में मुसलमानों का दयित्व पूर्ण रूप से स्पष्ट कर दिया है। सर्वप्रथम मानवीय आधार और भावनात्मक रिश्तों की बुनियाद पर एक सार्वभौमिक नियम पेश किया और वह यह कि हमने इंसान को मां-बाप के साथ नेकी और भलाई करने की नसीहत की है। यहां मानवता और ख़ूनी रिश्ते को आधार बनाया गया है और प्रत्येक मां-बाप के हक़ में यह आदेश दिया गया है, वे किसी भी धर्म या मत के अनुयाई हों।

अब जो भी इंसान होगा और जिसमें थोड़ी सी भी इंसानियत होगी, वह उम्र भर अपने मां-बाप के अधिकारों को नहीं भूलेगा और सच्चे मन से उनकी सेवा करता रहेगा। इस्लाम ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि आदर और सेवा से कदापि संतान अपने मां-बाप के अधिकारों को पूरा नहीं कर सकती।

दूसरे क़ुरान ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि जब कभी सत्य और भावनाओं में टकराव हो तो सत्य का मार्ग मत छोड़ो। इसलिए किसी को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि अगर मां-बाप और ईश्वर पर ईमान के बीच टकराव हो तो ईश्वर के मार्ग पर अटल रहो और अज्ञानता के मार्ग का चयन नहीं करो। क़ुरान में इस संदर्भ में जो आयत पेश की गई है, उसका यह अर्थ है कि इसके लिए तुम्हारे मां-बाप भरपूर प्रयास करेंगे। आयत में इस बिंदु की ओर संकेत कि जिस चीज़ का तुम्हें ज्ञान न हो उसका अनुसरण नहीं करो, अनेकेश्वरवाद के अतार्किक होने का सुबूत है। इसलिए कि अगर अनेकेश्वरवाद सही होता तो उसके लिए कोई न कोई तर्क ज़रूर होता। इस प्रकार, अज्ञानता का अनुसरण सही नहीं है, अब अगर मां-बाप भी अज्ञानता के अनुसरण पर आग्रह करें, तो उनकी बात स्वीकार मत करो। किसी भी चीज़ का अँधा अनुसरण ग़लत है। ऐसी स्थिति में मां-बाप की अवज्ञा करना उनके अधिकारों का हनन या उनसे विद्रोह करना नहीं है।

यहां यह निष्कर्ष निकलता है कि कोई भी चीज़ इंसान और उसके वास्तविक सृष्टिकर्ता के बीच रुकावट नहीं बन सकती, यहां तक कि मां-बाप भी जो भावनात्मक रूप से इंसान से सबसे अधिक निकट होते हैं। इस संदर्भ में हज़रत अली (अ) की प्रसिद्ध हदीस स्पष्ट मापदंड है। हज़रत अली फ़रमाते हैं कि सृष्टिकर्ता की अवज्ञा करके किसी सृष्टि का आज्ञापालन उचित नहीं है।        

 

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