घर परीवार और बच्चे-४
इंसान को कोई भी काम इच्छा शक्ति और बौद्धिक निर्णयों के आधार पर अंजाम देना चाहिए
इंसान को कोई भी काम इच्छा शक्ति और बौद्धिक निर्णयों के आधार पर अंजाम देना चाहिए, लेकिन किसी भी ऐसे काम को कि जिसमें बाहरी कारक की कोई भूमिका नहीं है, लेकिन इसके बावजूद निरंतरता से उसे अंजाम दिया जाता है तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि काम को अंजाम देने वाला इच्छा शक्ति एवं बौद्धिक निर्णय के आधार पर उसे अंजाम दे रहा है और उस काम के गुण एवं मूल्य उसके दृष्टिगत हैं।
अभी तक की बातचीत में हमने बच्चों की परवरिश में स्वयं कर्म का मूल्य, उसे अंजाम देने की इच्छा शक्ति एवं बौद्धिक निर्णय और नैतिक मूल्य का उल्लेख किया। अब हम बच्चों की परवरिश को एक दूसरे आयाम से देखेंगे और इस सवाल का जवाब खोजने का प्रयास करेंगे कि बच्चों को संस्कारित बनाने का सही समय किया है? अर्थात किस आयु से उनकी परवरिश शुरू करें?
सृष्टि के नियमों के अनुसार, प्राकृतिक रूप से शिशु में विभिन्न प्रकार की प्रतिभाएं एवं क्षमताएं होती हैं। मां-बाप, शिक्षक, प्रशिक्षक और समाज इत्यादि बच्चों में मौजूद प्रतिभाओं एवं क्षमताओं के विकास का कारण बनते हैं ताकि आगे चलकर वह अपने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में उनका भरपूर उपयोग कर सके और समाज के लिए वह एक उपयोगी नागरिक बन सके।
बच्चे किसी मोम की भांति होते हैं, आप जिस आकृति में उन्हें ढालना चाहेंगे वह ढल जाते हैं। यही कारण है कि दुनिया भर में हमेशा से मां-बाप, शिक्षकों, विद्वानों और धर्मगुरूओं का यही प्रयास रहा है कि परवरिश की सही शैली का चयन करके बच्चे की क्षमताओं को इस फ्रकार विकसित करें कि व्यक्ति, परिवार, राष्ट्र और यहां तक कि पूरी मानवता के लिए उपयोगी हों।
अभी कुछ वर्षों तक पहले की ही बात है, कहा जाता था कि बच्चा जब इस दुनिया में आता है तो वह कोरे काग़ज़ की तरह होता है। उस पर आप जो चाहें इबारत लिख दें। जन्म के समय वह मां के दूध से अतिरिक्त हर चीज़ से अपरिचित होता है, अर्थात प्राकृतिक रूप से वह जो दो एक बातें सीख कर आता है उसके अतिरिक्त उसे सब कुछ इसी दुनिया में आकर सीखना होता है। स्पष्ट है कि इस आधार पर बच्चों की परवरिश की आधारशीला भी उनके जन्म के बाद या उनके किसी हद तक समझदार होने के बाद ही रखी जाती थी। और यह कोई केवल आम धारणा नहीं थी बल्कि विशेषज्ञों एवं चिकित्सकों का भी यही मानना था।
लेकिन हालिया शोधों ने इस धारणा पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। चिकित्सा विशेषज्ञ अपने शोध कार्यों में इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि शिशु गर्भाशय में जो कुछ समझता है, जन्म लेने के बाद उसे याद रखता है, और उसकी यह जानकारी बाहरी दुनिया को समझने में उसकी सहायता करती है। आज मेडिकल विशेषज्ञों का कहना है कि गर्भावस्था की अतिंम तिमाही में अपने इर्दगिर्द की दुनिया को समझने के लिए शिशु अपनी इन्द्रियों का प्रयोग करने लगता है, बल्कि संभावित रूप से इससे पहले ही यह प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
फ़िनलैंड की वैज्ञानिक मिन्ना हॉटिलेनन का कहना है कि मां के गर्भ में शब्दों को सुनकर शिशु में उन्हें याद रखने की क्षमता विकसित हो जाती है। वे कहती हैं कि शिशु जब इस दुनिया में क़दम रखता है तो उसका मस्तिष्क किसी कोरे काग़ज़ की भांति नहीं होता, बल्कि वह यह जानता है कि उसके मां-बाप और परिजन किस तरह बात करते हैं। हेलसिंकी विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर हॉटिलेनन कहती हैं कि शोध यह दर्शाता है कि जीवन के बहुत ही प्रारंभिक चरण में शिशु का मस्तिष्क आवाज़ों को बहुत अच्छी तरह समझने और उनमें अंतर करने लगता है। हॉटिलेनन का मानना है कि यह भाषा सीखने या आवाज़ों को पहचानने के बहुत ही प्रारम्भिक चिन्ह हैं। मेडिकल विशेषज्ञों के मुताबिक़, शिशु गर्भ में ही बहुत सी चीज़ें सीखने की क्षमता रखता है और जन्म लेने के बाद वह उन चीज़ों को याद रखता है कि जो उसने गर्भ में रहते हुए सीखी थीं। उदाहरण स्वरूप अगर कोई गीत या किसी किताब का कोई भाग उसके लिए पढ़ा जाए तो वह जन्म लेने के बाद उसे याद रख सकता है।
आम धारणा के विपरीत वैज्ञानिकों ने गर्भ में शिशु के जीवन की एक चौंकाने वाले नई तस्वीर पेश की है। 9 सप्ताह पूरे होने पर एक विकासशील भ्रूण हिचकी ले सकता है और तेज़ आवाज़ या शोर शराबे पर प्रतिक्रिया देता है। दूसरी तिमाही के अंत तक वह सुन सकता है। मां के गर्भ में शिशु अपनी मां के भोजन का स्वाद लेता है। इसके अलावा शिशु अपनी मां की आवाज़ और अजनबी की आवाज़ में अंतर कर सकता है। वह जानी पहचानी आवाज़ों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। जब मां बात करती है तो शिशु की हृदय गति धीमी हो जाती है, इसका अर्थ यह है कि वह न केवल आवाज़ को सुनता है और पहचानता है बल्कि उससे उसे शांति प्राप्त होती है। वैज्ञानिकों ने जब मां के गर्भ में शिशु के दिनचर्या पर नज़र रखी तो उन्होंने पाया कि शिशु की यह गतिविधियां 24 घंटे जारी नहीं रहती हैं बल्कि 32 सप्ताह की आयु में वह 90 से 95 प्रतिशत तक का समय सोने या झपकी लेने में बिताता है।
इन नए शोधों से यह स्पष्ट हो गया है कि यह आम धारणा कि मनुष्य जन्म लेने के बाद ही सब कुछ सुनता और समझता है और दुनिया में क़दम रखने के बाद ही उसे सब कुछ सीखना है, ग़लत है। जैसा कि वैज्ञानिकों ने मां के गर्भ में शिशु के जीवन के विभिन्न चरणों में उसकी क्षमताओं का उल्लेख किया है, उसके मद्देनज़र मनुष्य के पालन-पोषण का सिलसिला मां के गर्भ से ही शुरू हो जाता है और मां-बाप को इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए शिशु के जन्म का इंतज़ार नहीं करना चाहिए।