Jan २०, २०१६ १६:५३ Asia/Kolkata

तकफ़ीर वह विचारधारा या प्रक्रिया है जो पूरे इतिहास में बिना किसी नियम व मानदंड के किसी एक गुट की ओर से दूसरे गुट के ख़िलाफ़ सक्रिय रही। इसी प्रकार इस प्रक्रिया को ग़ैर प्रजातांत्रिक व तानाशही शासन की ओर से किसी व्यक्ति, लोगों, सांप्रदायों और विरोधी गुटों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाता रहा।

तकफ़ीर वह विचारधारा या प्रक्रिया है जो पूरे इतिहास में बिना किसी नियम व मानदंड के किसी एक गुट की ओर से दूसरे गुट के ख़िलाफ़ सक्रिय रही। इसी प्रकार इस प्रक्रिया को ग़ैर प्रजातांत्रिक व तानाशही शासन की ओर से किसी व्यक्ति, लोगों, सांप्रदायों और विरोधी गुटों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाता रहा। ये वे लोग हैं जिन्होंने भेदभाव और अपनी ग़लत धारणा के कारण दूसरों पर धर्म से बाहर निकल जाने का आरोप लगाया और फिर उनकी जान-माल और सम्मान पर हमले को अपने लिए सही क़रार दिया। विभिन्न गुटों और संप्रदायों तथा ग़ैर प्रजातांत्रिक सरकारों की ओर से तकफ़ीर शब्द का इस्तेमाल किया जाना दुनिया में विभिन्न स्थानों पर झड़प, अशांति और जनसंहार का कारण बना है और समाजों के सामने बहुत सी चुनौतियां खड़ी हो गयी हैं। इन दिनों इस्लामी जगत के कुछ भाग पर जो कुछ घट रहा है और तकफ़ीरियों द्वारा आतंक तथा अपने हमवतन लोगों के जनसंहार का हृदयविदारक जो दृष्य सामने आ रहे हैं, इस बात में शक नहीं कि इससे इस्लाम के दुश्मन को फ़ायदा पहुंच रहा है और वे अपने लक्ष्य साध रहे हैं। क्योंकि पश्चिमी मीडिया तकफ़ीरियों के इस व्यवहार को इस्लामी छवि को ख़राब करने के लिए पेश कर रहे हैं। तकफ़ीरी सिर्फ़ ख़ुद को मुसलमान और दूसरों को इस्लाम से बाहर समझते हैं।

 

 

यह एक सच्चाई है कि इस्लामी शिक्षाओं का ग़लत अर्थ निकालने और तकफ़ीरी रुझान की जड़, पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के कुछ साल बाद पनपने लगी थी। पहली बार जिस गुट ने मुसलमानों के बीच तकफ़ीरी विचार को पेश किया वे ख़वारिज के नाम से मशहूर हुए। हज़रत अली अलैहिस्सलाम को इस गुट की ओर से इस्लामी समाज के सामने ख़तरे का आभास हो गया था और जब वह इस गुट को ईश्वरीय किताब क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण के ज़रिए मार्गदर्शन करके थक गए और यह गुट अपने भ्रष्ट विचारों से पीछे न हटा तब वे इस गुट के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए और इसका अंजाम नहरवान नामक युद्ध के रूप में सामने आया। ख़वारिज नामक गुट हज़रत अली अलैहिस्सलाम के फ़ैसले को समझ न पाने की ग़लती से वजूद में आया और अंत में मुसलमानों के ख़िलाफ़ गतिविधियों के कारण यह गुट इस्लाम धर्म से बाहर हो गया और इस प्रकार नहरवान नामक युद्ध की भूमि समतल हुयी। इस गुट के बड़े सरग़नाओं ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम पर यह आरोप लगाया कि वे धर्म से निकल गए हैं और अपनी गतिविधियों को ईश्वर की प्रभुसत्ता के लिए अभियान का नाम दिया।

 

 

                       

ख़वारिज प्रक्रिया ने शुरु से ही पवित्र क़ुरआन की आयतों के विदित अर्थ और पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण के विदित रूप को आधार बनाकर भ्रष्ट नारे दिए। ख़वारिज का सबसे मशहूर नारा था, ‘ला हुकमा इल्ला लिल्लाह’ अर्थात सिर्फ़ ईश्वर का आदेश मानने योग्य है। उनकी नज़र में पवित्र क़ुरआन का क़ानून अटल है और उसमें किसी प्रकार की व्याख्या की ज़रूरत नहीं है। दूसरे शब्दों में पवित्र क़ुरआन जीवन के लिए एकमात्र व्यवस्था है जिसके अर्थ की व्याख्या की ज़रूरत नहीं है।

ख़वारिज का मानना था कि आदेश देने का अधिकार सिर्फ़ ईश्वर को है और प्रशासनिक अधिकारियों के संबंध में इस प्रकार के अधिकार को नहीं मानते थे इसलिए उनका यह मानना था कि सरकारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्ष होना चाहिए और वे एक प्रकार की अराजकता में विश्वास रखते थे। ख़वारिज अपनी आस्था के अनुसार, पूरे इंसान को दो गुटों में विभाजित करते हैं। एक धर्म की शिक्षा का ज्ञान रखने वाले और दूसरे धर्म से अनभिज्ञ लोग। इंसान के दो गुटों में विभाजन के साथ साथ उनका यह मानना था कि जो लोग उनकी तरह आस्था नहीं रखते वे नास्तिक और दुश्मन हैं।

 

 

इधर कुछ साल में मध्यपूर्व के हालात के कारण विश्व जनमत का ध्यान तकफ़ीरी प्रक्रिया की ओर मुड़ा है। ऐसी प्रक्रिया जो ख़ुद को सही समझती है और इस्लाम की सतही व विदित व्याख्या करते हुए हिंसा व बर्बरता को अपने धार्मिक विचारों के प्रसार का एकमात्र मार्ग समझती है। इन हालात के मद्देनज़र इस बात की ज़रूरत है कि दुनिया को तकफ़ीरियों के भ्रष्ट विचारों और इसके स्रोत तथा पैग़म्बरे इस्लाम के शुद्ध इस्लाम से अवगत कराया जाए। सही इस्लाम को परिचित कराया जाए ताकि दुनिया यह जान ले कि आई एस आई एल और अलक़ाएदा जैसे तकफ़ीरी व आतंकवादी गुटों का इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है।

तकफ़ीरी आतंकवादी ख़ुद को सलफ़ी या सलफ़े सालेहीन कहते हैं। सलफ़े सालेहीन का अर्थ है नेक पूर्वजों के आचरण का अनुसरण करने वाले। वे ख़ुद को ऐसी स्थिति में सलफ़ी कहते हैं जब इस्लामी शिक्षाओं की ग़लत व्याख्या के ज़रिए समाज में पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण को जीवित करने का दावा करते हैं। इस बात में शक नहीं कि तकफ़ीरियों का पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बर इस्लाम के आचरण का ग़लत अर्थ निकालना और तकफ़ीरियों के आपराधिक कृत्य, शुद्ध इस्लाम की शिक्षाओं के पूरी तरह ख़िलाफ़ हैं। सवाल यह उठता है कि सलफ़ी कौन लोग हैं? धर्म की विशेष व्याख्या का स्रोत क्या है? सलफ़िया के अनेक अर्थ हैं। बहुत से लोगों ने अर्थ में भिन्नता के कारण इस शब्द का ग़लत अर्थ निकाला है। उदाहरण के लिए वह्हाबियों को सलफ़ी नहीं कहा जा सकता हालांकि उन्हें सलफ़ी गुटों में बहुत अहम माना जाता है। आपको सलफ़िया के अर्थ और इसके इतिहास के बारे में बताने जा रहे हैं।

 

 

 

शब्दकोश में सलफ़ का अर्थ होता है हर वह चीज़ जो पहले रही हो। हालांकि मुहावरे में पूर्वजों के विशेष गुट को कहा जाता है लेकिन इसके अर्थ में वे सभी लोग शामिल हैं जो वर्तमान काल की तुलना में पहले गुज़र चुके हैं। अर्थात भूतकाल में दुनिया में आकर इस संसार से जा चुके हैं। अब वे चाहे अच्छे हों या बुरे। लेकिन जब सलफ़े सालेहीन का अर्थ नेक पूर्वज लिया जाता है तो इससे अभिप्राय पैग़म्बरे इस्लाम के दौर के अनुयायी, अनुयाइयों का अनुसरण करने वाले और उस नेक पीढ़ी से है जिसने नेक लोगों की पहली पीढ़ी का सही ढंग से अनुसरण किया है न वह व्यक्ति जिसने सिर्फ़ उस दौर में ज़िन्दगी गुज़ारी है। दूसरे शब्दों में, सिर्फ़ दौर की दृष्टि से नेक लोगों की पीढ़ी की ज़िन्दगी के बाद के दौर से, समानता रखने वालों को सलफ़े सालेह या नेक पूर्वज नहीं कहा जा सकता। सुन्नी संप्रदाय में पैग़म्बरे इस्लाम के कथन को इतिहास के सभी दौर में पेश करने वाले वर्णनकर्ताओं के लिए पूर्वज का अनुसरण नामक शब्दावली बहुत परिचित शब्दावली है।

सातवीं शताब्दी में इब्ने तैमिया के काल से पहले तक सलफ़ शब्द, शब्दकोश के अर्थ में इस्तेमाल होता था। सलफ़ का मतलब होता था पूर्वज। दूसरी ओर तीसरी हिजरी के अस्हाबे हदीस के अवतरणों में पूर्वज का अनुसरण या पूर्व मार्गदर्शक शब्द का उल्लेख मिलता है। अगर सलफ़ का अर्थ वही लिया जाए जो शब्दकोश में है तो फिर इसका दायरा इतना व्यापक हो जाएगा कि इसमें शीया और सुन्नी भी शामिल हो जाएंगे इस अर्थ में कि सारे मुसलमान नेक पूर्वज अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम और उनके दौर के अनुयाइयों का अनुसरण करते हैं। इसी प्रकार यह शब्द किसी दौर से विशेष नहीं है। इसलिए इस बिन्दु पर ध्यान देना ज़रूरी है कि अगर कोई व्यक्ति ख़ुद को सलफ़ी कहे तो उससे यह पूछा जाए कि वह सलफ़ से क्या अर्थ समझता है। अब अगर हम यह कहते हैं कि अहले हदीस, पूर्वजों का अनुसरण करते थे इसका अर्थ यह है कि वे सिर्फ़ पैग़म्बरे इस्लाम के कथन को आधार बनाते थे, बुद्धि को नहीं और वे मोअतज़ेला नामक गुट के मुक़ाबले में सामने आए क्योंकि मोअतज़ेला बुद्धि को आधार मानने में अति का शिकार थे। भाग्य, इंसान के मजबूर और आज़ाद होने का विषय, एकेश्वरवाद, ईश्वर की विशेषताओं और दूसरे आस्था संबंधी विषयों में आरंभिक शताब्दियों के मुसलमानों में वैचारिक मदभेद के कारण मोअतज़ेला और सिफ़ातिया सहित अनेक मत वजूद में आए और हर गुट व संप्रदाय अपनी आस्था पर विश्वास रखता था और लोगों को उसी की तरफ़ बुलाता था और हर एक ख़ुद को सत्य के मार्ग और पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण का सही अर्थ में अनुसरणकर्ता कहता था।

 

 

इस प्रकार के विषय के संबंध में बहुत से विचारक मोअतज़ेला की तरह बुद्धि को ही आधार मानते हैं और पैग़म्बरे इस्लाम के कथन को कम अहमियत देते हैं। जबकि धर्मगुरुओं का एक गुट ऐसा भी है जो आस्था और आचरण संबंधी आदेशों के संबंध में पवित्र क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों के सिर्फ़ विदित अर्थ पर बल देते हैं और बुद्धि को पूरी तरह नकारते हैं। इन लोगों में इमाम मालिक बिन अनस, मोहम्मद बिन इदरीस शाफ़ेई, सुफ़यान सौरी, इमाम अहमद बिन हंबल, दाऊद बिन अली मोहम्मद इस्फ़हानी और उनके साथियों का नाम उल्लेखनीय है। ये वे लोग थे जो बुद्धि को पूरी तरह नकारते थे। इन्हें शुरु में ‘अस्हाबे असर’ कहा जाता था। ये लोग आस्था और आचरण संबंधी आदेशों में, पवित्र क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम के कथन के सिर्फ़ विदित अर्थ को मानते थे। यही गुट बाद में ‘अस्हाबे हदीस या अहले हदीस’ कहलाने लगा और अहमद बिन हंबल इसी गुट के अगुवा कहलाए। उनकी किताब ‘मस्नद’ को ही आस्था और आचरण संबंधी मामलों का आधार माना जाता है। अहमद बिन हंबल ने एक ख़त में ख़ुद को ‘अस्हाबे असर’ का अनुसरणकर्ता कहा है और सुन्नी संप्रदाय को ‘अस्हाबे असर’ कहा है। हक़ीक़त में अहमद बिन हंबल को सुन्नी संप्रदाय के बीच सलफ़ी प्रक्रिया का अगुवा समझना चाहिए।

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