तकफ़ीरी आतंकवाद-2
सबसे पहले “खवारिज” नाम का तकफ़ीरी गुट पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं का ग़लत अर्थ निकाल कर हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शासन काल में अस्तित्व में आया।
सबसे पहले “खवारिज” नाम का तकफ़ीरी गुट पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं का ग़लत अर्थ निकाल कर हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शासन काल में अस्तित्व में आया। धर्म से दिग्भ्रमित ख़वारिज गुट ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम पर धर्म से निकलने का आरोप लगाया। यद्यपि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने दिग्रभ्रमित व धर्मभ्रष्ट ख़वारिज गुट को बहुत समझाने का प्रयास किया परंतु इस गुट ने अपनी गुमराही को जारी रखा। आज के तकफीरी, वह्हाबी, अलक़ाएदा और आईएसआईएल जैसे गुट स्वयं को सलफी बताते हैं और पवित्र कुरआन और इस्लाम की शिक्षाओं का ग़लत निष्कर्ष निकाल कर समाज में पैग़म्बरे इस्लाम की परपंरा को जीवित करने का दावा करते हैं जबकि इन धर्मभ्रष्ट गुटों के कार्य पूर्णरूप से पवित्र कुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं के विरुद्ध हैं।
इन गुटों की कार्यवाहियों का आधार इस्लाम में बिदअत है अर्थात उस चीज़ को धार्मिक चीज़ के रूप पेश करना है जिसका धर्म से कोई संबंध नहीं है और इन चीज़ों का शांति और न्याय प्रेमी इस्लाम धर्म की शिक्षाओं से कोई लेना- देना नहीं है। पिछले कार्यक्रम में हमने बहुत संक्षेप में सलफी गुट के बारे में बताया था ताकि सलफी और तकफीरी गुटों तथा उनके एक दूसरे से संबंध को अच्छी तरह पहचाना जा सके। सुन्नी मुसलमानों के एक प्रसिद्ध धर्मशास्त्री, इमाम अहमद बिन हंबल को सलफी संप्रदाय का संस्थापक कहा जाता है।
सुन्नी मुसलमानों के चार मुख्य संप्रदाय हैं हनफी, हंबली, शाफ़ेई और मालेकी और बाद में इनमें से हर संप्रदाय दसियों आसंप्रदायों में बट गया और हर एक की अपनी विशेष आस्थाएं व शिक्षाएं हैं। सबसे पहले हम यह बयान करेंगे कि पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद कैसे यह गुट और इसकी शाखायें अस्तित्व में आईं उसके बाद हम सुन्नी मुसलमानों के एक मुख्य संप्रदाय हंबली और इस संप्रदाय के सलफी गुट से संबंधों की चर्चा करेंगे।
इस्लाम धर्म के उदयकाल में दो बड़ी घटनाएं घटीं जो बाद वाली घटनाओं विशेषकर इस्लाम के संप्रदायों में बट जाने की पृष्ठिभूमि बनी। यह दोनों घटनाएं पैग़म्बरे इस्लाम के जीवन के अंतिम समय में घटीं। पहली ग़दीरे खुम की घटना है जो १८ ज़िलहिज्जा सन् १० हिजरी क़मरी को घटी जबकि दूसरी घटना ११वीं हिजरी क़मरी में घटी और यह घटना इस्लामी इतिहास में सक़ीफ़ा बनी साएदा के नाम से प्रसिद्ध है और इन दोनों घटनाओं में एक दूसरे से समानता और अंतर दोनों है।
ग़दीरे खुम और सक़ीफ़ा बनी साएदा की घटना दोनों पैग़म्बरे इस्लाम के जीवन के अंतिम समय की घटनाएं हैं। दोनों पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम के उत्तराधिकारी के संबंध में हैं। ग़दीरे ख़ुम और सक़ीफ़ा बनी साएदा की घटना का संबंध लोगों से है और उन लोगों ने बैअत अर्थात आज्ञा पालन के वचन से अपनी उपस्थिति की घोषणा की। दोनों इतिहासिक घटनाओं में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के साथी उपस्थित थे। इन दोनों घटनाओं का केन्द्र बिन्दु पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी का चयन था। यह दोनों घटनाएं पैग़म्बरे इस्लाम के पावन जीवन के बाद इस्लाम धर्म में दो मुख्य संप्रदाय के अस्तित्व में आने का कारण बनीं। दूसरे शब्दों में यह दोनों घटनाएं इस्लाम में शीया और सुन्नी मुसलमानों के अस्तित्व में आने का कारण व आधार बनीं किन्तु ग़दीरे ख़ुम और सक़ीफ़ा बनी साएदा की घटना में अंतर भी है।
सबसे पहले ग़दीरे ख़ुम की घटना पेश आयी। यह घटना उस समय पेश आयी जब पैग़म्बरे इस्लाम अपने जीवन का अंतिम हज करके मदीना लौट रहे थे और उस घटना में पैग़म्बरे इस्लाम के अलावा लगभग एक लाख २० हज़ार उनके साथी भी मौजूद थे जबकि सक़ीफ़ा बनी साएदा की घटना की बुनियाद मदीना में रहने वाले कुछ लोगों ने रखी थी और उसमें मक्का से मदीना पलायन करने वाले कुछ लोग मौजूद थे। इस आधार पर सक़ीफ़ा बनी साएदा की घटना में क़बीलावाद का प्रभाव था और वह कोई आम सभा नहीं थी जबकि ग़दीरे ख़ुम की घटना उस समय पेश आई जब पैग़म्बरे इस्लाम जीवित थे और वे अपने जीवन का अंतिम हज करके लौट रहे थे और स्वयं उन्होंने इस बात की घोषणा की थी कि जिसका- जिसका मैं मौला व स्वामी हूं उस- उस के मौला व स्वामी अली हैं जबकि सक़ीफ़ा बनी साएदा की घटना में इस प्रकार की कोई बात नहीं थी।
सक़ीफ़ा बनी साएदा की घटना पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद हुई और कुछ लोगों ने ताक़त के ज़ोर पर अपनी बैअत ली अर्थात आज्ञा पालन का वचन लिया जबकि ग़दीरे खुम की घटना ख़ुले मैदान में हुई थी और सबने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के हाथों पर बैअत की थी और उन्हें अमीरूल मोमेनिनीन अर्थात मोमिनों के सरदार की उपाधि से याद किया था और सबने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को बधाई दी थी और पैग़म्बरे इस्लाम ने ग़दीरे ख़ुम में मौजूद लोगों से कहा कि वे उन लोगों को भी बतायें जो यहां मौजूद नहीं थे जबकि सक़ीफ़ा बनी साएदा की घटना जल्दबाज़ी से और चुपके से हुई।
यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि सक़ीफ़ा बनी साएदा की घटना में पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी के चयन को लेकर अंसार और मुहाजेरीन में गम्भीर मतभेद पैदा हो गये थे। इसका कारण मोहाजेरीन में से तीन लोगों की उस सम्य में उपस्थिति थी। जिस व्यक्ति का चयन ख़लीफ़ा कारी के रूप में किया था लोग अगले दिन सुबह उसे मस्जिद में ले गये और लोगों से कहा कि इसकी बैअत करें जबकि मदीना में रहने वाले अधिकांश मुसलमान सक़ीफ़ा बनी साएदा की घटना में मौजूद ही नहीं थे।
ग़दीरे ख़ुम की घटना अरबी के ज़िलहिज्जा महीने में घटी थी। वह भी महान ईश्वर के आदेश से ख़ुम नामक मैदान में। यही नहीं पैग़म्बरे इस्लाम ने महान ईश्वर के आदेश से अपने उत्तराधिकारी की घोषणा से पहले जो लोग ख़ुम के मैदान में नहीं पहुंचे थे उनकी प्रतीक्षा की और जो लोग ख़ुम से आगे चले गये थे उन्हें पीछे बुलवाया।
बहरहाल ग़दीरे ख़ुम और सक़ीफ़ा बनी साएदा की घटना की समीक्षा के लिए अत्यधिक समय और प्रमाणों की समीक्षा की आवश्यकता है और यहां इस बात के उल्लेख का उद्देश्य केवल यह था कि इस्लाम धर्म किस प्रकार मुख्य रूप से दो संप्रदायों शीया और सुन्नी में बटा। सक़ीफ़ा बनी साएदा की घटना में जब लोगों ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को पैग़म्बरे इस्लाम का उत्तराधिकारी नहीं माना तो हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिससे मुसलमानों के मध्य मतभेद या विवाद हो और उन्होंने मुसलमानों के मध्य एकता की रक्षा का पूरा प्रयास किया जबकि वास्तव में हज़रत अली अली अलैहिस्सलाम पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी थे और पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने पूरे जीवन में विभिन्न अवसरों पर इस बात की घोषणा की थी परंतु उन्होंने इस्लाम धर्म और मुसलमानों के मध्य एकता की रक्षा को प्राथमिकता दी।
अगर हज़रत अली अलैहिस्सलाम ख़िलाफ़त चाहते थे तो इससे उनका उद्देश्य केवल यह था कि वे इसके माध्यम से पैग़म्बरे इस्लाम की परंपरा एवं न्याय लागू करना चाहते थे। इसी तरह वह ख़िलाफ़त के माध्यम से कमज़ोर एवं वंचित वर्ग के अधिकारों को उन्हें दिलाना चाहते थे। क्योंकि इस्लाम के अनुसार सरकार पर लोगों के अधिकारों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी होती है। पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों की दृष्टि में धर्म की सुरक्षा, फूट से परहेज़ और मुसलमानों के मध्य एकता की सुरक्षा हर चीज़ से अधिक महत्वपूर्ण है जैसाकि हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं” तुम जानते हो कि मैं दूसरों की अपेक्षा ख़िलाफ़त के अधिक योग्य हूं ईश्वर की सौगंध जो कुछ तुम लोगों ने अंजाम दिया है मैं उसे स्वीकार करता हूं ताकि मुसलमानों की सीमायें सुरक्षित रहें और मेरे अलावा किसी पर अत्याचार न हो। मैं इस अन्याय को स्वीकार करता हूं और मेरी नज़र इस त्याग की पारितोषिक पर है और तुम जिस दुनिया पर दृष्टि लगा बैठ हो वह मेरी दृष्टि में नहीं है।“
हज़रत अली अलैहिस्सलाम वह महान हस्ती थे जो अपने दायित्वों को भली-भांति पहचानते थे और वे इस्लाम धर्म के आधारों की सुरक्षा को समस्त चीज़ों पर प्राथमिकता देते थे और जब वे युद्ध करने को अपना दायित्व समझते थे तो युद्ध करते थे और जब धैर्य को अपना दायित्व समझते थे तो धैर्य करते थे और जब मौन धारण करने को अपना दायित्व समझते थे तो मौन धारण करते थे। यह सब वह एकता व इस्लाम की रक्षा के लिए करते थे। जब हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से अपने अधिकारों के लिए उठ खड़े होने के लिए कहा तो उस समय अज़ान देने वाले ने कहा मैं गवाही देता हूं कि मोहम्मद ईश्वर के दूत हैं। जब हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने इस आवाज़ को सुना तो उन्होंने अपनी धर्मपत्नी हज़रत फ़ातेमा ज़हरा से कहा क्या इस बात को पसंद करती हो कि ज़मीन पर यह आवाज़ बंद हो जाये? उस समय हज़रत फ़ातेमा ज़हरा ने कहा कदापि नहीं! उस समय हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया तो यह मेरा रास्ता है जिसे मैंने अपनाया है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद २५ वर्षों तक धैर्य किया।
जब मुसलमानों की ओर से बनाये गये तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उसमान की हत्या कर दी गयी तो मुसलमान बैअत के लिए हज़रत अली अलैहिस्सलाम के द्वार पर जमा हो गये। आरंभ में हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने सत्ता स्वीकार नहीं की और जब लोगों ने बहुत आग्रह किया तो हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपनी सरकार की शैली बयान की और कहा कि मेरी सरकार का आधार न्याय होगा जिसे तुम लोग सहन नहीं कर पाओगे तो फिर किसी और के पास जाओ फिर भी लोग हज़रत अली अलैहिस्सलाम का द्वार छोड़कर कहीं नहीं गये। उस समय इमाम पर हुज्जत तमाम हो गयी यानी ख़िलाफ़त को स्वीकार न करने के लिए इमाम के पास कोई विकल्प नहीं रह गया और उन्होंने लोगों की मांग स्वीकार कर लेने को ही अपना दायित्व समझा। अंततः हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने लोगों की मांग स्वीकार कर ली और फ़रमाया उस ईश्वर की शपथ जिसने दाना चीरा और इंसान को पैदा किया है अगर लोग मेरी ख़िलाफ़त को स्वीकार करने के लिए तैयार न होते कि उससे मुझ पर हुज्जत पूरी हो गयी है और वह ज़िम्मेदारी न होती जिसे ईश्वर ने विद्वानों से ली है कि वे अत्याचारियों के एश्वर्य और पीड़ितों की भूख पर मौन धारण न करें तो मैं ख़िलाफ़त को स्वीकार ही न करता।