हम और पर्यावरण-13
डीसर्टिफ़िकेशन (Desertification) या ज़मीन का बंजर होना इंसान द्वारा प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का परिणाम होता है।
सूखे, अर्ध सूखे और कम नमी वाले इलाक़ों में जलवायु के परिवर्तन और इंसान की गतिविधियों के परिणाम स्वरूप ज़मीन बंजर हो जाती है। पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि जलवायु में परिवर्तन और मीठे पानी की कमी के अलावा ज़मीन का बंजर होना पर्यावरण के लिए तीसरी चुनौती है। इसी कारण आज आधी से अधिक उपजाऊ ज़मीन के बंजर होने का ख़तरा है, जिससे सीधे तौर पर 25 करोड़ से अधिक लोगों के जीवन को ख़तरा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के मुताबिक़, परोक्ष रूप से इस समस्या से प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या 100 से अधिक देशों में 2 अरब से अधिक है।
ज़मीन के बंजर होने का परिणाम, केवल खाद्य पदार्थों की कमी और भुखमरी में वृद्धि नहीं है, बल्कि जो लोग अपनी ज़मीनों से हाथ धो बैठते हैं, वह मजबूरी में शहरों और अन्य देशों की ओर पलायन करते हैं। एक अनुमान के मुताबिक़, निकट भविष्य में अफ़्रीक़ा के रिगिस्तानी इलाक़ों से 6 करोड़ लोग बेघर हो जायेंगे या उत्तरी अफ़्रीक़ा और यूरोपीय देशों की ओर पलायन के लिए मजबूर हो जायेंगे।
ज़मीन के बंजर होने से यद्यपि सबसे अधिक अफ़्रीक़ा महाद्वीप प्रभावित हुआ है, जहां दो तिहाई ज़मीन रेगिस्तान है या सूखी है। लेकिन यह समस्या केवल यहीं तक ही सीमित नहीं है। अमरीका में 30 प्रतिशत से अधिक ज़मीन को ख़तरा है। लैटिन और कैरिबियन देशों की एक चौथाई ज़मीन को बंजर होने का ख़तरा है। स्पेन एक बटा पांच ज़मीन बंजर होने की समस्या से ग्रस्त है। इसी प्रकार अमरीका में भीषण सूखा पड़ने और दक्षिणी यूरोप में पानी की कमी से उत्तरी गोलार्ध को इस प्रकार की समस्या का सामना है।
चीन में 1950 के दशक के बाद से अब हवा में उड़ने वाले रेत और बालू के कारण 7 लाख हेक्टेयर उपजाऊ ज़मीन, 20 लाख हेक्टेयर से अधिक चरागाहें और 60 लाख हेक्टेयर जंगलों को नुक़सान पहुंचा है।
2014 में विश्व बंजर दिवस पर राष्ट्र संघ के महासचिव बान कीमून ने इस कड़वी सच्चाई की ओर संकेत करते हुए कहा था कि जलवायु परिवर्तन के कारण ज़मीन के बंजर होने में वृद्धि का होना, न केवल इंसान की आर्थिक स्थिति के लिए ख़तरा है, बल्कि विश्व शांति के लिए भी गंभीर ख़तरा है। बान कीमून के अनुसार, रेगिस्तान के विस्तार के कारण दुनिया में खाद्य पदार्थों की कमी का सामना होगा और लोग सामूहिक रूप से पलायन के लिए मजबूर होंगे।
ज़मीन के बंजर होने का एक मूल कारण, जलवायु परिवर्तन है। हालिया दशकों में लम्बे समय तक सूखा पड़ने के कारण सूखे और अर्ध सूखे इलाक़ों में ज़मीन के पुनः उपजाऊ होने की संभावना कम होती जा रही है और ज़मीनें बंजर हो रही हैं। जलवायु में तेज़ी से होने वाला परिवर्तन और ग्रीन हाऊस गैसों का बढ़ता प्रदूषण सूखी ज़मीनों के लिए अधिक ख़तरा है। इसलिए कि इसके कारण अव्यवस्थित बारिशें होती हैं और ज़मीन में पानी की अधिक कमी हो जाती है।
दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में वृद्धि हो गई है, ज़मीनों के बंजर होने का एक यह भी कारण है। उदाहरण स्वरूप, मंगोलिया में हुए शोध से पता चलता है कि पिछले 40 वर्षों के दौरान, इस इलाक़े में जलवायु परिवर्तन का असर दूसरे इलाक़ों की तुलना में तीन गुना अधिक है। अगर विश्व में 74 सेन्टीग्रेड डिग्री सेल्सियस तापमान में वृद्धि हुई है, तो मंगोलिया में यह वृद्धि 2 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक होती है। स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन ज़मीन के बंजर होने का मूल कारण है। इसके अलावा जलवायु परिवर्तिन के कारण अधिकांश विनस्पतियां नष्ट हो गई हैं और जंगल रेगिस्तान बन गए हैं।
हालिया दशकों में यद्यपि सूखे के कारण अधिकांश ज़मीनें बंजर हो गई हैं और जंगल रेगिस्तान बन गए हैं, लेकिन इंसानों की कुछ गतिविधियां इस संकट को अधिक तीव्रता प्रदान कर रही हैं। जैसे कि कृर्षि के लिए ज़मीन का अत्यधिक इस्तेमाल, चरागाहों में अत्यधिक जानवरों को चराना, जिसके कारण वनस्पतियां नष्ट हो रही हैं और उन्हें दोबारा उगने का अवसर नहीं मिल रहा है, जंगलों का कटाव और खेतों की अनुचित रूप से सिंचाई।
ऑस्ट्रेलिया, मध्यपूर्व और भारत में अनियामित सिंचाई से ज़मीन में नमक की मात्रा अधिक हो गई है। एशिया के अन्य देशों जैसे कि कज़ाख़िस्तान, उज़्बेकिस्तान और उत्तरी चीन में रेगिस्तान में प्रतिवर्ष 3600 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हो रही है। पारम्परिक तरीक़ों से सिंचाई में पानी की बर्बादी के कारण भी ज़मीनें बंजर होती जा रही हैं। स्थानीय सराकरों की ग़लत नीतियां भी इस संकट के गहराने का एक कारण है। बांधों के निर्माण और गहरे कुंए खोदने से यद्यपि स्थायी रूप से कृर्षि का विकास होता है, लेकिन लम्बी अवधि में झीलें और तालाब सूख जाते हैं और ज़मीनें बंजर हो जाती हैं।
ज़मीन के बंजर होने का एक दूसरा महत्वपूर्ण कारण, अत्यधिक जानवरों को चरागाहों में चराना है, जिसके कारण मिट्टी की शक्ति कम हो जाती है और वह बंजर बन जाती है। जानवरों के अत्यधिक चरने और चलने से मिट्टी की शक्ति कम हो जाती है। पारम्परिक रूप से पशुपालन और जानवरों को अत्यधिक चराने से चरागाहों में मौजूद वनस्पतियां तेज़ी से नष्ट हो जाती हैं।
इस संदर्भ में होने वाले शोध भी यही साबित करते हैं। अमरीका की एक शोध संस्था ने जलवायु परिवर्तन पर कृर्षि का असर शीर्षक अपनी रिपोर्ट में यह निष्कर्ष निकाला है कि अत्यधिक जानवरों के चरने और चलने के कारण चरागाहें, बंजर हो रही हैं। बंजर होने से हरियाली कम हो जाती है, जिसके कारण मिट्टी की कार्बन डाइआक्साइड को जज़्ब करने की क्षमता घट जाती है। अमरीका में खाद्य और कृर्षि संस्था के अनुमान के मुताबिक़, पशुपालन से चरागाहें, रेगिस्तान में बदल रही हैं, और इससे प्रतिवर्ष 10 करोड़ टन से अधिक कार्बन डाइआक्साइड का उत्पादन संभव है।
विशेषज्ञों के मुताबिक़, पशुपालन और उनके गोश्त का प्रयोग भी जलवायु के परिवर्तन और ज़मीनों के बंजर होने का एक कारण है। अमरीका के मिनेसोटा विश्वविद्यालय में पर्यावरण विभाग के निदेशक, प्रोफ़ेसर जोनाथन फोले का अनुमान है कि बिना हड्डियों के एक किलोग्राम बीफ़ के उत्पादन के लिए, 30 किलोग्राम अनाज की ज़रूरत होती है। उनका मानना है कि कृर्षि की 35 प्रतिशत ज़मीनों में जानवरों का भोजन पैदा होता है। गोश्त उत्पादन के लिए जो पशुपालन होता है उसके लिए विश्व भर की साढ़े तीन अरब हेक्टेयर ज़मीन विशेष है। दूसरी ओर गोश्त के उत्पादन के लिए पशुपालन के कारण मीथेन गैस का उत्पादन होता है। मीथेन एक हायड्रोकार्बन जलनशील गैस है जो बे-गंध और बे-रंग होती है और 20 वर्ष की अवधि में उससे पैदा होने वाली ऊष्मा कार्बन डाइआक्साइड की तुलना में 72 गुना अधिक होती है। नीदरलैंड की पर्यावरण अनुमानित एजेंसी के शोध से पता चलता है कि अगर विश्व में शाकाहारी भोजन का इस्तेमाल किया जाएगा तो विश्व के तापमान को कम करने पर आने वाले ख़र्च में 80 प्रतिशत की कमी हो जाएगी।
जैसा कि हमने संकेत किया था कि जंगलों की कटाई भी रेगिस्तानों के विस्तार का एक कारण है। सड़कों के निर्माण, आग लगने और दरख़्तों के काटने से जंगल नष्ट हो रहे हैं। प्रतिवर्ष 1 करोड़ 20 लाख से 1 करोड़ 50 लाख हेक्टेयर तक जंगल नष्ट हो जाते हैं। यह हर मिनट में 36 फ़ुटबाल स्टेडियम के नष्ट होने के बराबर है। पर्यावरण का समर्थन करने वालों के अनुसार, अगर जंगलों की कटाई की प्रक्रिया इसी प्रकार जारी रहती है तो 2030 तक 17 करोड़ हेक्टेयर जंगल नष्ट हो जायेंगे और रेगिस्तान में बदल जायेंगे। यह इलाक़ा, जर्मनी, फ़्रांस, स्पेन और पुर्तगाल के बराबर होगा। इन जंगलों में अमाज़ॉन, अटलांटिक, दक्षिणी अमरीका में सेराडो, कांगो नदी का क्षेत्र, पूरबी अफ़्रीक़ा, पूरबी ऑस्ट्रेलिया, दक्षिणी एशिया में ग्रेट मेकांग, ब्रूनेई, गिनी और सुमात्रा शामिल होंगे।
जंगलों की कटाई और ज़मीनों के बंजर होने के चरणबद्ध परिणाम भी हैं, उनमें से बाढ़ के लिए भूमि प्रशस्त होना, पानी की गुणवत्ता का ख़राब होना, नदियों और नहरों में कीचड़ का जमा हो जाना है। इसी प्रकार प्रमुख नदियों और समुद्रों का प्रदूषित हो जाना भी इसके परिणामों में से है।