तकफ़ीरी आतंकवाद-31
हमने इस्लामी क्रांति की सफलता और इस्लामी गणतंत्र ईरान की तस्वीर ख़राब करने में सऊदी अरब के प्रयासों की चर्चा की थी।
सऊदी अरब ने इस काम को कई प्रकार से अंजाम दिया। इस्लामी क्रांति की सफलता के आरम्भिक वर्षों में सऊदी अरब ने अरब देशों को ईरान के ख़िलाफ़ एकजुट करने का प्रयास किया। ईरान पर सद्दाम का अतिक्रमण और अधिकांश अरब देशों द्वारा उसका समर्थन इस गठजोड़ एवं सहयोग का चरम बिंदु था। उन्होंने इस सहयोग के लिए भारी क़ीमत चुकाई। ईरान पर हमले के 8 वर्ष बाद सद्दाम जब पीछे हटने और ईरान के साथ अंतरराष्ट्रीय सीमा समझौतों को औपचारिकता प्रदान करने के लिए मजबूर हो गया तो उसने अपनी असफलता पर पर्दा डालने के लिए कुवैत पर हमला कर दिया।
इस तरह की कोई भी घटना अरब देशों विशेष रूप से सऊदी अरब के लिए पाठ हासिल करने का कारण नहीं बनी। वे ईरान की इस्लामी क्रांति को अपना विरोधी समझते हैं और उसे नुक़सान पहुंचाने के लिए हर संभव कोशिश करते रहते हैं। अमरीका और ईरान के अन्य दुशमनों ने इलाक़े में ईरानोफ़ोबिया के विस्तार में भरपूर प्रयास किया। ईरान के साथ यह लड़ाई सैन्य, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में जारी रही। अरब देशों विशेषकर सऊदी अरब के हथियारों के गोदाम अमरीकी और यूरोपीय हथियारों से पटे पड़े हैं। राजीतिक क्षेत्र में सऊदी अरब और अन्य अरब देश अमरीका और उसके पश्चिमी घटक देशों के नेतृत्व में क्षेत्रीय एवं अतंरराष्ट्रीय संस्थाओं में ईरान को अलग थलग करने का प्रयास करते रहे हैं। सांस्कृतिक मोर्चे पर मूल इस्लाम की तस्वीर ख़राब करके उसके स्थान पर वहाबियत का प्रचार और क़ुरान एवं पैग़म्बर् इस्लाम (स) की हदीसों की ग़लत व्याख्या ईरान के मुक़ाबले में आले सऊद की प्रमुख नीति रही है। इसके लिए आले सऊद ने मुस्लिम देशों में वहाबियों के मदरसों का जाल बिछा दिया। अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान भी ऐसे ही देशों में शामिल हैं। इन मदरसों से ऐसे छात्र पढ़कर निकले जो तालिबान और अलक़ायदा के चरमपंथी विचारों से प्रभावित हुए। वास्तव में सऊदी अरब इस्लाम के नाम पर विश्व में तकफ़ीरीवाद और आतंकवाद का प्रमुख प्रचारक है।
तालिबान ने पाकिस्तान के समर्थन से काबुल में मुजाहिदीन की सरकार पर व्यापक हमला करके 1995 में अफ़ग़ानिस्तान के बड़े भाग पर क़ब्ज़ा कर लिया। उन्होंने युद्ध ग्रस्त एवं निर्धन अफ़ग़ानिस्तान के गांवों और शहरों में एक मध्ययुगीन शासन का उदाहरण पेश किया। लड़कियों को स्कूलों में जाने से रोक दिया गया। पुरुषों को अपनी दाढ़ी छोटी करने का अधिकार नहीं था। छोटे से अपराध के लिए हाथों और पैरों को काटा जाने लगा। महिलाओं को बुर्क़े से चेहरा ढांपे बिना घर से बाहर निकलने का अधिकार नहीं था। टीवी जैसी अनेक आधुनिक चीज़ें हराम क़रार दे दी गईं। प्रतिदिन नित नए फ़तवे जारी होने लगे और अफ़ग़ानिस्तान की ग़रीब जनता के लिए जीवन दूभर बना दिया गया। अफ़ग़ानिस्तान के बड़े भाग पर इस प्रकार की मध्ययुगीन सरकार के बावजूद अधिकांश पश्चिमी देशों ने तालिबान सरकार के अमानवीय कृत्यों की निंदा नहीं की। यहां तक कि तालिबान के कुछ अधिकारी अरब एवं पश्चिमी देशों की राजधानियों की यात्रा करते थे। पश्चिम की समस्त सरकारों को विशेष रूप से अमरीका को सऊदी अरब और पाकिस्तान द्वारा ताबिलान के समर्थन की जानकारी थी। लेकिन यह क़दम क्योंकि अमरीका और पश्चिम के हितों से मेल खाता था, इसलिए तालिबान के अपराधों के प्रति उन्होंने अपने होंठ सी लिए थे। हालांकि अगर किसी भी ऐसे देश में जो पश्चिम का घटक नहीं था, कोई तालिबानी हरकत होती थी, तो राजनीतिक एवं मीडिया के स्तर पर विश्व में काफ़ी हो हल्ला मचाया जाता था।
तालिबान पश्चिम की सहायता करते थे, ताकि इस्लामी गणतंत्र ईरान के शुद्ध इस्लाम के मुक़ाबले में विश्व के सामने इस्लाम का बिगड़ा हुआ चेहरा पेश कर सकें। उनका लक्ष्य ऐसे इस्लाम को पेश करना था जो हिंसा और चरमपंथ को बढ़ावा देता हो। तालिबान सऊदी अरब के वहाबियों की सहायता से इस प्रकार के इस्लाम का उदाहरण पश्चिमी मीडिया के सामने पेश करते थे। यह संचार माध्यम इस तरह की कार्यवाहियों की निंदा नहीं करते थे।
इस प्रकार की परिस्थितियों में अलक़ायदा ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व में पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के समर्थन से अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय था। वास्तव में तालिबान के क़ब्ज़े के बाद अफ़ग़ानिस्तान अलक़ायदा का मुख्य अड्डा बन गया था। अल-क़ायदा को जो भी ज़रूरत होती थी वह विभिन्न तरीक़ों से उसकी आपूर्ति कर लिया करता था। यह स्थिति 2001 तक न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सैंटर की इमारतों और वाशिंग्टन में पेंटागन पर हमले तक जारी रही। इसके बाद तालिबान, जो अमरीका और सऊदी अरब जैसे उसके घटक देशों के हितों की आपूर्ति का एक ज़रिया थे, अमरीका के हस्तक्षेप और आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई का बहाना बन गए। 2001 में नाइन इलेवन की घटना के एक महीने के अन्दर अमरीका के तत्कालीन युद्धोन्मादी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमले का आदेश जारी कर दिया।
इसी बहाने मार्च 2003 में अमरीका ने इराक़ पर सैन्य चढ़ाई कर दी और इराक़ को ज़मीन, आसमान और समुद्र से निशाना बनाया। लेकिन इराक़ में सैन्य हस्तक्षेप के लिए अफ़ग़ानिस्तान की भांति आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई का बहाना नहीं था, इसलिए मीडिया में सद्दाम के सामूहिक विनाश के हथियारों के ख़तरे को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया गया। इराक़ के अतिग्रहण के बाद अमरीकी अधिकारियों के निर्णयों के कारण इस देश में सबसे बड़े आतंकवादी गुट दाइश के गठन की भूमि प्रशस्त हुई। ऐसा आतंकवादी गुट जिसे शुरू में अल-क़ायदा की शाख़ बताया गया। लेकिन समय बीतने के साथ साथ और दाइश के कमांडरों का अल-क़ायदा के नेतृत्व का अनुसरण न करना, दोनों आतंकवादी गुटों के बीच स्पष्ट अलगाव का कारण बन गया। अफ़ग़ानिस्तान की भांति इराक़ में भी अरब और पश्चिमी सरकारों के हित आपस में जुड़ गए। सऊदी अरब की सरकार इराक़ में शिया बहुल सरकार के गठन से चिंतित थी, इसलिए उसने इराक़ में संकट उत्पन्न करने की नीति अपनायी। आले सऊद ने इराक़ में तकफ़ीरी आतंकवादी गुटों का समर्थन करना शुरू कर दिया। इस प्रकार इराक़ में बासियों और तकफ़ीरी आतंकवादियों के बीच मज़बूत गठजोड़ बन गया। उस समय कुछ अरब देशों के चरमपंथी युवा अमरीका से मुक़ाबले के लिए इराक़ में दाख़िल हुए, लेकिन वास्तव में उनका निशाना इराक़ी आम जनता थी।
चरमपंथियों विशेष रूप से युवा आतंकवादियों को धर्म की बिल्कुल सही जानकारी नहीं होती और वे एक ख़ास परिस्थिति में पलते बढ़ते हैं, अंत में राजनीतिक शक्तियां अपने अवैध उद्देश्यों के लिए उनका दुरुपयोग करती हैं।
दाइश समेत तकफ़ीरी आतंकवादी गुटों की समीक्षा के लिए जिस महत्वपूर्ण बिंदु पर ध्यान दिया जाना चाहिए वह मध्यपूर्व एवं मुस्लिम देशों में अमरीका और पश्चिमी देशों द्वारा ऐसे गुटों का समर्थन और उनके गठन में उनकी भूमिका है। तकफ़ीरी आतंकवादी गुट दाइश सलफ़ी जेहादी आतंकी गुटों में शामिल है। यह गुट तकफ़ीरी चरमपंथी विचारों द्वारा सीरिया और इराक़ में तथाकथित इस्लामी ख़िलाफ़त की स्थापना करना चाहता है। 15 अक्तूबर 2006 में इराक़ में एक बैठक के बाद कुछ सशस्त्र गुटों के विलय से यह गुट अस्तित्व में आया। इस बैठक में अबू उमर अल-बग़दादी को इस आतंकवादी गुट का सरग़ना बनाया गया।