हम और पर्यावरण-14
मोटे तौर पर जंगलों के विनाश से अभिप्राय मानव गतिविधियों या प्राकृतिक कारणों से ज़मीनों का बंजर हो जाना और भोमिक इकोसिस्टम का बढ़ जाना है।
उदाहरण स्वरूप, अनियमित कृषि, अत्यधिक खनन, चरागाहों का हद से ज़्यादा इस्तेमाल, पेड़ों की कटाई और जलवायु परिवर्तन। जंगलों के विनाश और ज़मीन के बंजर होने से प्रतिवर्ष विश्व अर्थव्यवस्था को 490 अरब डॉलर का नुक़सान हो रहा है। पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि अभी भी विकास, पर्यावरण और ग़रीबी के बीच मज़बूत संबंध है। इस संदर्भ में प्रकाशित होने वाली रिपोर्टों से भी पता चलता है कि विश्व में अधिकांश ग़रीब लोग उन इलाक़ों में रहते हैं, जहां पर्यावरण को नुक़सान पहुंच चुका है। उदाहरण के रूप में अफ़्रीक़ा में कुल उपजाऊ ज़मीन का दो तिहाई भाग बंजर होने का ख़तरा झेल रहा है, यही कारण है कि इन इलाक़ों में विकास की गति धीमी पड़ गई है। इसी प्रकार, विश्व में ग़रीब लोगों का 50 प्रतिशत उन इलाक़ों में रहता है, जहां की ज़मीनें बंजर हो रही हैं या वहां के जंगल रेगिस्तान में बदलते जा रहे हैं।
इस समय विश्व के 169 देशों में जंगलों के विनाश का ख़तरा है। अफ़्रीक़ा विश्व का सबसे बड़ा सूखा महाद्पीव है। उसकी कुल ज़मीन का दो तिहाई भाग रेगिस्तान या सूखा है। यहां भीषण सूखा कई देशों के लिए चुनौती बन चुका है। सहारा रेगिस्तान प्रतिवर्ष 48 किलोमीटर का विस्तार हो रहा है। हज़ार किलोमीटर लम्बी पट्टी अर्ध सूखी ज़मीनों में है, उसके उत्तर में रेगिस्तान और दक्षिण में गर्म जंगल स्थित है। यह पट्टी बुर्किना फासो, चाड, जिबूती, इरिट्रिया, इथोपिया, माली, मोरिटानिया, नाइजर, नाइजीरिया, सेनेगल और सूडान को प्रभावित करती है। इन इलाक़ों में ज़मीन के बंजर होने से भुखमरी अधिक हो गई है। इन इलाक़ों के किसान दूसरे इलाक़ों या शहरों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि अगले 20 वर्षों के दौरान भी यही स्थिति रहेगी और 6 करोड़ लोग अपना घर बार छोड़ने के लिए मजबूर हो जायेंगे और वे उत्तरी अफ़्रीक़ा और यूरोप की ओर पलायन कर जायेंगे। ऐसे लोगों को पर्यावरण शरणार्थी कहा जाता है।
विश्व के अन्य सूखे इलाक़ों के लोगों को भी इसी तरह का ख़तरा है। आंकड़ों के मुताबिक़, 13 करोड़ 50 लाख लोग अर्थात जर्मनी और फ़्रांस की जनसंख्या के बराबर लोगों को बेघर होने का ख़तरा है। उदाहरण स्वरूप, मैक्सिको में प्रतिवर्ष 7 से 9 लाख लोग गांवो से पलायन करके अमरीका में जाकर मज़दूरी करते हैं। इस तरह के पलायन से अन्य इलाक़ों पर भी बोझ बढ़ता है। जलवायु परिवर्तन के अंतरराष्ट्रीय पैनल ने अनुमान लगाया है कि 2050 तक 15 करोड़ लोग पर्यावरण शरणार्थी होंगे। इन लोगों को कुपोषण, निर्धनता, रोग और अन्य समस्याओं का सामना होगा।
जंगलों का विनाश एक वैश्विक समस्या है जो पर्यावरण और सामाजिक एवं आर्थिक स्थिरता के लिए गंभीर ख़तरा है।। जंगलों के विनाश और ज़मीनों के बंजर होने से चुनौतियों का एक चक्र अस्तित्व में आता है। इसके परिणाम स्वरूप, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संकट उत्पन्न होते हैं। अंततः प्रभावित समाज की समस्याएं बढ़ सकती हैं। राजनीतिक दुनिया में कहा जाता है कि आधी से ज़्यादा सशस्त्र लड़ाईयों का कारण, सूखे इलाक़ों में प्राकृतिक स्रोतों का दोहन और पर्यावरण से जुड़ी समस्याएं हैं। स्पष्ट रूप से जलवायु परिवर्तन, सूखा और रेगिस्तानों का विस्तार इस संकट से जूझ रहे विभिन्न देशों के बीच राजनीतिक खींचतान का कारण है।
दूसरी ओर दुनिया में क़रीब दो अरब लोगों की आजीविका ऐसी ज़मीनों पर निर्भर है जो बंजर हो चुकी हैं। 2014 में राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार, 2012 से 2014 के दौरान क़रीब 80 करोड़ 50 लाख लोग कुपोषण का शिकार हुए हैं, इसका मतलब है कि विश्व में हर 8 में से एक व्यक्ति को खाद्य पदार्थों की कमी का सामना था। इस रिपोर्ट के मुताबिक़, ग़रीबों की अधिकांश संख्या विकासशील देशों में है, जहां खेती की ज़मीनें तेज़ी से कम हो रही हैं। स्पष्ट है कि यह प्रक्रिया भविष्य में भीषण त्रासदी को जन्म दे सकती है।
हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि बंजर होने वाली अकसर ज़मीनें, उपजाऊ होने की क्षमता रखती हैं। राष्ट्र संघ के महासचिव बान कीमून के अनुसार, दुनिया में 20 लाख हेक्टेयर ज़मीन फिर से उपजाऊ बन सकती है। इस प्रकार खाद्य पदार्थों का अधिक उत्पादन किया जा सकता है और जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों से बचा जा सकता है। राष्ट्र संघ में जंगलों के विनाश के मुक़ाबले के कन्वेंशन की कार्यकारी सचिव मूनीक बारबू 2014 में अपने एक संदेश में कहती हैं कि हम चार छोटे क़दमों से इतिहास के मार्ग को बदल सकते हैं। सबसे पहले अधिक इलाक़ों को नुक़सान पहुंचने से रोकें, इसलिए कि संतुलित पर्यावरण हमें प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित रखता है। हमें बंजर ज़मीनों को फिर से उपजाऊ बनाने के लिए प्राथमिकता देनी चाहिए। इस प्रकार, बंजर ज़मीनों के नकारात्मक प्रभावों को कम से कम किया जा सकता है और उनके फिर से उपजाऊ होने के संभावना बढ़ जाती है। दूसरे, सामूहिक रूप से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ज़मीनों के विषय पर ध्यान दिया जाए। इस अभियान को पूरा किया जा सकता है, इसलिए कि सूखे से प्रभावित समस्त 169 देश इस जलवायु परिवर्तन कन्वेंशन के समदस्य हैं। तीसरे, निर्धारित उद्देश्यों के लिए संयुक्त प्रयासों का निर्धारण करना, इससे इस इच्छा को वास्तविकता में बदलने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा। चौथे, संकट ग्रस्त समाजों की समस्याओं के समाधान के लिए प्रयास करना, ताकि भविष्य में संभावित जलवायु की बुरी हालत से निपटा जा सके।
इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए और जंगलों के विनाश एवं ज़मीन के बंजर होने की चुनौती का मुक़ाबला करने के लिए, 1994 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक कन्वेंशन का संकलन किया। अतंरराष्ट्रीय स्तर पर जलपरिवर्तन और पर्यावरण की सुरक्षा को अनिवार्य बनाने के लिए यह एकमात्र नियम है। कन्वेंशन के सदस्य सामूहिक रूप से ज़मीन की सुरक्षा और सूखे और अर्ध सूखे इलाक़ों में सूखे के प्रभावों को कम करने के लिए प्रयास करते हैं। ऐसे इलाक़े जहां जलवायु परिवर्तन के कारण लोगों को विभिन्न प्रकार की चुनौतियों का सामना है। दीर्घकालिक स्ट्रैटेजी द्वारा और विभिन्न देशों के बीच सहयोग से इन उद्देश्यों की प्राप्ति संभव है। अब तक ईरान समेत विश्व के 193 देश इस कन्वेंशन से जुड़ चुके हैं। इस कन्वेंशन के समृद्ध देशों ने विश्व विशेषकर अफ़्रीक़ा में जंगलों के विनाश और ज़मीन को बंजर होने से रोकने के लिए वित्तीय सहायता करने का वादा किया है। हालांकि उन्होंने अपने वादों को पूरा नहीं किया है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय समझौतों के तहत समस्त देशों को यह वास्तविकता समझनी चाहिए कि इको सिस्टम प्राकृतिक रूप से जंगलों को नष्ट होने और ज़मीनों को बंजर होने से सुरक्षित रख सकता है, लेकिन इस शर्त के साथ कि लोग इसकी अनुमति दें। पर्यावरण विशेषज्ञों के मुताबिक़, प्राकृतिक स्रोतों और ज़मीन के सही इस्तेमाल से आने वाली नस्लों के लिए पर्यावरण का पुनर्निमाण किया जा सकता है।
जंगलों के नष्ट होने का एक दूसरा परिणाम हवा में गर्द व ग़ुबार या ख़ाक धूल का उड़ना है, जिससे लोगों का स्वास्थ्य प्रभावित होता है। हवा में ख़ाक धूल के कणों पर निंयत्रण न करने के असंख्य नकारात्मक परिणाम होते हैं, जिनमें से विभिन्न प्रकार के रोगों का फैलना है।