Nov २२, २०१६ १४:५९ Asia/Kolkata

मरुस्थलीकरण के ख़तरनाक परिणाम के रूप में प्रकट होने वाली घटना  दुनिया में बहुत से स्थानों पर पर्यावरण को नुक़सान पहुंचा रही है।

मरुस्थलीकरण और मिट्टी के कटाव का परिणाम आकाश में धुन्ध का फैलना है। यह धुन्ध वास्तव में मिट्टी, धूल, धुएं और बहुत ही छोटे कणों का समूह है जो हवा में फैले रहते हैं जिसके कारण आसमान धुंधला नज़र आता है। धुंध उस समय फैलती है जब-धूल मिट्टी के कण और धुंए की मात्रा शुष्क हवा में बढ़ जाए। यह घटना कभी कभी विकराल रूप अख़्तियार कर लेती है और इसके नतीजे में सूरज की किरणें ज़मीन पर नहीं पहुंचती और फिर मौसम ठंडा हो जाता है। यही कारण है कि बहुत से वैज्ञानिक अब यह मानने लगे हैं कि बहुत सी प्रजातियों जैसे डायनासोर के विनाश या विलुप्त होने का कारण हेज़ या धुंध थी। इसकी एक स्पष्ट मिसाल 1816 में इंडोनेशिया में तंबूरा पहाड़ में ज्वालामुखी फटने से घटी घटना है। जब यह घटना घटी तो ज्वालामुखी के विस्फोट का प्रभाव धीरे-धीरे सुदूर क्षेत्र तक पहुंचा। जैसा कि सन 1816 की इस घटना के नतीजे में लंदन शहर की हवा में लगभग 36 वर्ग मील क्षेत्रफल पर राख, धूल, मिट्टी, कंकरी और धुआ फैल गया था। इतने बड़े स्तर पर धुंध के कारण ज़मीन पर सूरज की किरण नहीं पहुंची जिसके नतीजे में ज़मीन पर ठंड बहुत बढ़ गयी थी। इसी कारण 1816 बिना गर्मी के मौसम का साल कहा गया।    

 

धुंध वास्तव में मिट्टी और धूल के बहुत ही छोटे कण होते हैं जो हवा के दबाव से होने वाले मिट्टी के कटाव और मरुस्थलीकरण के कारण एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचते है। यह छोटे कण चूंकि बहुत हलके होते हैं, इस्लिए ज़मीन की सतह से बहुत ऊपर उठते हैं और लंबे समय तक हवा में मौजूद रहने के बाद ज़मीन पर बैठते हैं। धुंध ज़मीन की सतह से फैलने वाली चीज़ है जो सऊदी अरब, इराक़, कुवैत और दक्षिणी ईरान के भाग सहित दुनिया के सभी मरुस्थलों में नज़र आती है। यह घटना साल के गर्म मौसम में यह स्थिति रहती है। धुंध लगातार कई दिनों तक छायी रहती है और  साल में 20 से 50 दिनों तक है। हवा छोटे छोटे कणों को बहुत ऊंचाई तक ले जाती है और चूंकि इसमें मौजूद कण बहुत हल्के होते हैं इसलिए लंबे समय तक हवा में मौजूद रहते हैं और हवा 40 से 80 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ़्तार से एक बड़े क्षेत्रफल को धुंध से ढाक देती है। जबकि इसके विपरीत रेत का तूफ़ान ज़मीन की सतह से रेत के कण को 15 मीटर ऊंचाई तक ले जाता है और इसकी रफ़्तार 16 किलोमीटर प्रति घंटा होती है।           

अंतर्राष्ट्रीय मानदंड के अनुसार, शहरों में हर वर्ग मीटर में हवा में मौजूद कड़ों की मात्रा 240-260 माइक्रोग्राम तक होनी चाहिए किन्तु धुंध की घटना इस मात्रा को बढ़ा देती है और कभी कभी तो यह मात्रा निर्धारित मानदंड से 15 गुना ज़्यादा हो जाती है। धुंध के ख़तरे को और बढ़ाने वाला एक कारण इसमें मौजूद रासायनिक कण होते हैं जो पर्यावरण के साथ साथ इंसान की सेहत के लिए नुक़सानदेह होते हैं। मिट्टी और धूल जब शहर को दूषित करने वाले कण से मिल कर धुंध का रूप ले लेते हैं तो यही धूल मिट्टी, जैविक पदार्थ से मिल कर चिपकने लगती हैं और वनस्पति पर बैठ जाती है यहां तक कि चीज़ों की सतह से चिपक जाती है जिसके नतीजे में बहुत से बिजली और उद्योग में प्रयोग होने वाले उक़परण बेकार हो जाते हैं। इसी प्रकार ये कण एलर्जी और संक्रमक बीमारी के फैलने का भी कारण बनते हैं।

इराक़ और सऊदी अरब में मिट्टी और धूल के विष्लेशण से पता चला कि इनमें से 56 प्रतिशत कणों का आकार 250 माइक्रोन है जो बड़ी आसानी से श्वास नली से गुज़रकर फेफड़ों में पहुंच जाते हैं जिसके नतीजे में शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती हैं यहां तक कि छींक और खांसी से भी ये कण फेफड़ों से बाहर नहीं निकलते। समय के साथ ये कण ख़ून में मिल कर बीमारी को जन्म देते हैं।

पिछले दो दशक के दौरान हुए वैज्ञानिक शोध के अनुसार, हर साल लगभग 5 लाख लोगों की हवा में मौजूद कण के कारण वक़्त से पहले मौत हो रही है। हवा में मौजूद कण उन लोगों के लिए ज़्यादा ख़तरनाक हैं जिन्हें पहले से सांस की समस्या है। वनस्पति पर धूल-मिट्टी के पड़ने वाले कणों के दूसरे नुक़सान भी हैं। जैसे ये कण वनस्पति में फ़ोटोसिन्थेसिज़ की प्रक्रिया को कम करते हैं जिसके नतीज़े में वनस्पति का विकास रुक जाता है। इसी प्रकार धूल-मिट्टी के कण वनस्पतियों में पॉलिनेशन या परागण की प्रक्रिया को नुक़सान पहुंचाते हैं कि जिसके नतीजे में फल नहीं उगता और वनस्पति की पैदावार भी कम हो जाती हैं। धूल-मिट्टी के कणों से आर्थिक दृष्टि से भी ऐसे नुक़सान होते हैं जिनकी भरपाई नहीं हो पाती और एक प्रकार से ये सामाजिक ख़र्च भी बढ़ाते हैं।               

वैज्ञानिकों की नज़र में जिन क्षेत्रों में वर्षा की मात्रा उचित है और वहां आर्द्रता भी पर्याप्त मात्रा में होती है, वहां मिट्टी के कटाव के बावजूद धुंध फैलने की घटना कम होती है किन्तु यह घटना मध्यपूर्व जैसे शुष्क क्षेत्र में ज़्यादा घटती है ख़ास तौर पर उस समय जब उत्तरी हवा बहती है। यह हवा जून से सितंबर तक बहती है और इराक़  और सीरिया के मरुस्थलों की ओर बढ़ती है यहां तक फ़ार्स की खाड़ी और आज़ाद समुद्री जलक्षेत्र तक पहुंचती है और इस क्षेत्र में बढ़ते मरुस्थल के कारण मिट्टी को काटते हुए धूल के रूप में ले चलती है और इस क्षेत्र के औद्योगिक शहरों तक पहुंचाती है। इस हवा में डायनमिक शक्ति बहुत ज़्यादा होती है और यह ज़मीन की सतह से छोटे-छोटे कण का बहुत बड़ा भाग हवा में उठाती है और कभी कभी तो 2400 से 3000 मीटर ऊपर हवा तक ले जाकर में छोड़ देती है। धूल मिट्टी के इन कणों में नुक़सानदेह पदार्थ भी होते हैं जो आर्द्रता कम होने की स्थिति में पर्यावरण में दस दिन तक मौजूद रहते हैं।

इराक़ में अमरीकी शोध केन्द्र एनओएए के अनुसार, मध्यपूर्व में ख़ास तौर पर ईरान में रेत के तूफ़ान के तेज़ होने का कारण इराक़ के पूर्वी भाग में ख़ास तौर पर आल-जज़ीरा इलाक़े में मरुस्थल का फैलना है। यह इलाक़ा बग़दाद के निकट फ़ुरात और दजला नदियों के बीच में स्थित है जहां विगत में अनेक तालाब और झील मौजूद थीं। लेकिन 80 और 90 के दशक और ईरान पर इराक़ द्वारा थोपे गए युद्ध के दौरान दलदल भूमि का सूखना, इस क्षेत्र में धुंध की घटना बढ़ने का बहुत बड़ा कारण है। उस समय इराक़ के तानाशाह सद्दाम हुसैन के आदेश से इराक़ में दजला और फ़ुरात के बीच दक्षिणी और केन्द्रीय भाग के बहुत बड़े हिस्से पर स्कॉर्चड अर्थ नामक सैन्य नीति अपनायी गयी जिसके तहत इन क्षेत्रों में मौजूद सभी प्राकृतिक स्रोतों को ख़त्म कर दिया गया। सद्दाम के आदेश से हूरुल अज़ीम नामक क्षेत्र को इतना जलाया गया कि अब वहां नर्कुल भी नहीं उगते। सद्दाम ने क्षेत्र के इको सिस्टम को इतना नुक़सान पहुंचाया कि इराक़ के दक्षिणी और मध्यस्थित जलमयभूमि में पलायनकर्ता पक्षियों का पलायन ख़त्म हो गया और ईरान के मुक़ाबले में रक्षात्मक अवरोध पैदा करने के नाम पर दक्षिणी इराक़ के प्रांतों में डेढ़ करोड़ खजूर के पेड़ ख़त्म करवा दिए।

इराक़ी सेना को आदेश दिया गया कि वह इराक़ की दक्षिणी नहरों को बंद करके इस देश कृषि भूमि के कटाव का दायरा बढ़ाए ख़ास तौर पर बसरा प्रांत के ईरान की सीमा से मिलने वाले क्षेत्रों जैसे शलमचे, तनूमे, सालेहिया, अबुलख़सीब, उम्मुर रसास से लेकर फ़ाउ द्वीप तक खजूर के बाग़ ख़त्म करवा दिए और वहां पर बारूदी सुरंग बिछवा दी। इस कार्यवाही का इराक़ी जनता पर सीधे तौर पर तुरंत असर पड़ा। इसके दीर्घकालिक असर से इराक़ में हवा दूषित हो गयी और जगह जगह पर धुंध छाने लगी। आज भी पर्यावरण को हुए इस नुक़सान के कारण ईरान के बहुत से शहरों सहित क्षेत्र के अन्य शहर इस समस्या से जूझ रहे हैं।

यद्यपि 90 के दशक में हूरुल अज़ीम तालाब का विनाश और धुंध की घटना घटने में सद्दाम शासन की संलिप्तता से इंकार नहीं किया जा सकता किन्तु संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट दर्शाती है कि इस संदर्भ में तुर्की की सरकार के क्रियाकलाप को  भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। तुर्क सरकार के हालिया दशकों में बांध निर्माण और दजला और फ़ुरात का पानी बंद करने के कारण इराक़ और सीरिया में तालाब और झीलें सूख गयीं कि जिसके नतीजे में मध्यपूर्व में धुंध की घटनाएं बढ़ीं।