Dec १८, २०१६ १६:११ Asia/Kolkata

फ़ाइन आर्ट्स या ललित कला को हस्तशिल्प की एक शाख़ा माना जाता है, जिसमें कला के कई विषय शामिल होते हैं और इसने अपनी मूल जड़ों को सुरक्षित रखते हुए निंरतर विकास किया है और विभिन्न चरणों को तय किया है।

अतीत में फ़ाइन आर्ट्स को सुन्दर और बारीक कला के लिए इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन आज सौंदर्य या लालित्य के आश्रय से व्यक्त होने वाली कलाएं ललित कला कहलाती हैं। यह कलाएं कलाकारों की रचनाओं को सुन्दरता प्रदान करती हैं और उनके मूल्य में दोगुना वृद्धि कर देती हैं।

विभिन्न प्रकार की चित्रकलाएं, क़लमदानों पर सोने का काम और उन्हें सुन्दर बनाना, आईनाकारी और किताबों के कवर और दरवाज़ों एवं खिड़कियों को सजाना इस कला में शामिल हैं। ईरान में क़ाजारी काल में फ़ाइन आर्ट्स के प्रचलन में अधिक वृद्धि हुई, हालांकि उससे पहले भी इसके कुछ उदाहरण मिलते हैं। इस काम के लिए पहले सजाई जाने वाली वस्तुओं के भीतरी भाग पर विशेष तेल लगाया जाता है और उसके बाद, उस पर चित्रकारी की जाती है। आज कल रंगों को पक्का करने के लिए पारम्परिक तेलों के स्थान पर रासायनिक स्प्रे का इस्तेमाल किया जाता है।

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किसी चीज़ पर सोने का काम करके उसे सुन्दरता प्रदान की जाती है। हालांकि कभी सोने के काम को स्वाधीन कला के रूप में भी पेश किया जाता है। इसी प्रकार की एक कला में पौधों और परिंदों के बहुत बारीक चित्र बनाए जाते हैं, जिन्हें किताबों के कवर पर बनाया जाता है।

इसी प्रकार से विशेष चित्रकारी एक विशेष ईरानी कला है, जिसमें फूलों और वनस्पतियों की पत्तियां बनाई जाती हैं। प्राचीन काल से ही बर्तनों, बुनी हुई चीज़ों, पत्थरों और मोल्डिंग्स पर इस कला का इस्तेमाल होता रहा है, लेकिन सल्जूक़ी और एलख़ानी के काल में उसे असलीमी नाम दिया गया और धीरे धीरे इसका विकास हुआ। असलीमी वनस्पति के रूप में एक तस्वीर होती है, जिसके पत्ते और टहनियां एक दूसरे में उलझे हुए होते हैं। यह चित्र फ़्रेमों और बोर्डों मे देखे जा सकते हैं।

शीशे पर नकक़ाशी या चित्रकारी एक ऐसी कला है, जो सफ़वी काल में पूर्वी यूरोप, चीन और भारत से ईरान पहुंची। ईरान में प्रवेश के बाद इस चित्रकारी ने स्थानीय रूप धारण कर लिया। इस कला के रूप में जो जिन रचनाओं ने जन्म लिया, उसका उदाहरण पश्चिमी कला में कम ही देखने को मिलता है।

सामान्य चित्रकारी के विपरीत, शीशे पर की जाने वाली चित्रकारी आसान नहीं है। जब चित्रकार काग़ज़ या कैनवस पर चित्रकारी करता है तो वह जो करता है उसमें उसे दक्षता प्राप्त होती है और अंत में वह आसानी से इसे अंजाम दे देता है, लेकिन शीशे पर नक्क़ाशी में इस शैली को एक दूसरे प्रकार से अंजाम दिया जाता है। इस तरह से कि अंतिम महत्वपूर्ण भागों को पहले अंजाम दिया जाता है। इस प्रकार की चित्रकारी में, आरम्भ में बारीक कामों को अंजाम दिया जाता है और उसके बाद असली रंग भरे जाते हैं और कैनवस को रंगीन किया जाता है।

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शीशे पर होने वाली चित्रकारी में रंगों के अलावा, मिश्रित पदार्थ का भी इस्तेमाल किया जाता है। अतीत में रचना को सुन्दर बनाने के लिए सोने के वरक़ों का प्रयोग किया जाता था। अन्य मिश्रित पदार्थों में रंगीन काग़ज़, धागा, रेश्मी धागा, चमड़ा और अन्य वस्तुओं का इस्तेमाल किया जाता है।

इस प्रकार की चित्रकारी में अकसर हरे, पीले, लाल, ब्राउन, काले, नीले और सफ़ैद रंगों का प्रयोग किया जाता है। शीशे पर चित्रकारी के डिज़ाइनों में रंगीन किनारे, फूल, फूल और परिंदे, धार्मिक घटनाएं और पौराणिक कहानियां और मानवों एवं जानवरों के चित्र और ज्यामितीय रेखाएं और दृश्यों और क़ुरानी लिपी की तस्वीरें शामिल हैं।

पेपियर मेशी एक प्रकार की ईरानी चित्रकारी है, जिसे किताबों के कवर, आईनों के फ़्रेम, क़लमदानों और आभूषणों के डिब्बों पर दो प्रकार से किया जाता है। इसके लिए पहले काग़ज़ को दो या तीन दिन तक पानी में डुबोया जाता है, ताकि वह नर्म हो जाए। उसके बाद उसे उंगली से घिसते हैं और उसमें गोंद मिलाकर नर्म करते हैं, ताकि जैसा उसे रूप देना चाहते हैं, दे सकें। उसके सूखने के बाद, उसके ऊपर नींबू का पानी डालते हैं, ताकि उसमें चमक पैदा हो जाए। लेकिन दूसरी शैली में जो इससे कठिन है, काग़ज़ की ऊपरी परतों को एक दूसरे से चिपकाते हैं। सुनहरे कैनवस के लिए सोने के वरक़ को उसके ऊपर चिपकाते हैं और गोंद के सूखने के बाद, उसे हिंदी अनार के शीरे से धोया जाता है और सुखाया जाता है। इस कला के कलाकार, उसके बाद सुनहरी सतह पर लाल या हरा रंग लगाया जाता है, इस प्रकार पारदर्शी एवं भिन्न रंग बनते हैं, उस पर चित्रकारी के बाद अद्वितीय कला वजूद में आती है।

पेपियर मेशी की चित्रकारी ज़ंदिए और क़ाजारी काल में, कुछ इमारतों के कमरों के लकड़ी के दरवाज़ों पर और आईनों के फ़्रेम पर की जाती थी और अकसर इसमें ऑयल कलर का इस्तेमाल होता था और उसे एक मोटी परत की कोटिंग से ढांप दिया जाता था। शीराज़, क़ज़वीन, तबरेज़ और माज़ेन्द्रान जैसे कुछ इलाक़ों में यह चित्रकारी छतों और दरवाज़ों पर बाक़ी है, जिसके चित्र बहुत सुन्दर हैं।

चित्रकारी की यह कला, कला के कुछ स्कूलों में प्रचलित थी, जिसमें कलाकार विभिन्न शैलियों में अद्वितीय कलाओं की रचना करते थे। उदाहरण स्वरूप, सफ़वी स्कूल में अधिकांश वृक्ष या पौधों के चित्रों को रचना के किनारों पर बनाया जाता था और चित्रों को सक्रिय चित्रों के रूप में बनाया जाता था, जबकि शीराज़ स्कूल में अकसर दो रचनाओं को मिलाकर चित्रकारी की जाती थी। इसी प्रकार सफ़वी चित्रकारी में परिंदों की तस्वीरों को पहचाना जा सकता है, जबकि ज़ंद और क़ाजारी काल के अधिकांश परिंदों को पहचाना नहीं जा सकता और गुल बूटों पर अधिक ध्यान दिया गया है। सफ़वी काल की रचनाओं पर कलाकार के हस्ताक्षर होते थे, लेकिन उसके बाद रचना पर कलाकार का नाम नहीं होता था। क़ाजारी काल में प्रचलित इस प्रकार की चित्रकारी के विषय इस प्रकार थेः युद्ध और राजनीति, धार्मिक और पौराणिक।

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गुल बूटों के चित्र रचना को भरने के लिए होते हैं, जो इतिहास पूर्व चित्रकारी का अभिन्न अंग होते थे। संभवतः उसका एक कारण यह बिंदु था कि पूर्व लेखकों के लेखों में फूलों और वृक्षों से भरे बाग़ों में बने महलों की ओर संकेत किया गया, ईरानियों को वनस्पतियों में प्राचीन काल से ही रूची रही है।

गुल और बूटों की चित्रकारी का सफ़वी काल में विकास हुआ और यह धीरे धीरे क़लमदानों, आईने के फ़्रेमों, बोर्डों में वरिपर्तित हो गई। ज़ंद और क़ाजार के काल में एक महत्वपूर्ण चित्रकारी, आइरिस की चित्रकारी थी, जो एक प्रकार से गुल और बूटों की चित्रकारी है। यह चित्रकारी शीराज़ स्कूल की एक महत्वपूर्ण विशिष्टता थी और इस स्कूल की चित्रकारी की रचनाओं में इसका एक सम्मानजनक स्थान है। इस फूल की तीन पत्तियां लौ की भांति आसमान की ओर होती हैं और तीन अन्य पत्तियां भी इसी प्रकार से ज़मीन की ओर और आइरिस की पत्तियों से प्रकाश झांकता है।

परिंदों के चित्र भी गुल बूटों के चित्रों के पूरक माने जाते हैं और यह परिंदों के महत्व को उजागर करते हैं। परिंद के बैठने के स्थान के रूप में गुलाब के पौधे की चित्रकारी ज़ंद और क़ाजारी काल के कलाकारों के विचारों में इन दोनों तत्वों के महत्व को दर्शाती है।