Dec २०, २०१६ १४:४३ Asia/Kolkata

हमने तकफ़ीरी गुटों के वैचारिक सिद्धांतों का उल्लेख किया था और यह सिद्ध किया था कि इनमें से सबसे प्रमुख गुट दाइश का वहाबियत विचारधारा से क्या संबंध है।

वहाबियत के जन्म लेने और इसमें ब्रिटेन की भूमिका से पता चलता है कि इस मत को शुरू से ही मुसलमानों के बीच मतभेद उत्पन्न करने और फूट डालने की ज़िम्मेदारी दी गई है। वहाबियों ने एकेश्वरवाद के ध्वजवाहक और मानवता को शांति, न्याय और विनम्रता का पाठ पढ़ाने वाले धर्म इस्लाम की घवि ख़राब करके दुनिया के सामने पेश की है।

वहाबियत के इन्हीं विचारों के कारण, ब्रिटेन ने उसे गोद ले लिया और अन्य मतों के अनुयाई मुसलमानों के जनसंहार के लिए भूमि प्रशस्त की। इसी उद्देश्य से हिजाज़ का नाम बदलकर आले सऊद के नाम पर सऊदी अरब रख दिया गया। अन्य मुसलमानों के ख़िलाफ़ वहाबी मुफ़्तियों के फ़तवों ने निर्दोष मुसलमानों के जनसंहार के लिए तकफ़ीरी युवाओं को प्रेरित किया। क़ुरान और अंतिम ईश्वरीय दूत की शिक्षाओं के विपरीत वहाबियों ने अपने अलावा समस्त मुसलमानों को काफ़िर क़रार दिया और इसे अपना मूल धार्मिक विश्वास मान लिया। वहाबियत के गर्भ से ही अल-क़ायदा और दाइश जैसे ख़ूंख़ार आतंकवादी गुटों ने जन्म लिया। दाइश और अन्य तकफ़ीरी आतंकवादी गुटों को वास्तविक इस्लाम से संबंधित नहीं माना जा सकता।

विश्वसनीय एवं प्रमाणित दस्तावेज़ों के आधार पर वहाबियत जैसे मतों ने पश्चिमी हितों के अनुसार, मुसलमानों के बीच फूट डालने का प्रयास किया है। इस नीति का एक उद्देश्य मध्यपूर्व में गड़बड़ फैलाना और भौगोलिक सीमाओं को बदलना है। इसके अलावा एक प्रमुख उद्देश्य इस्लामी प्रतिरोध को कमज़ोर करके ज़ायोनी शासन के हितों की रक्षा करना है।

मुसलमानों के बीच आपसी लड़ाई और रक्तपात से सबसे अधिक लाभ इस्राईल को पहुंचता है, इसलिए इस प्रकार इस्लामी जगत की शक्ति आपस में टकराव की वजह से नष्ट हो जाती है। आतंकवादी गुट इस्राईल विरोधी कोई क़दम नहीं उठाते हैं और ज़ायोनी शासन तकफ़ीरी आतंकवादियों की विभिन्न प्रकार से सहायता करता है। इससे स्पष्ट रूप से सिद्ध होता है कि इस्राईल का तकफ़ीरी आतंकवादी गुटों से संबंध है और वह उनका समर्थन करता है।

नोम चोमस्की, हिलेरी क्लिंटन और जो बाइडन जैसे पश्चिमी विद्वान और नेताओं ने आतंकवादी गुट दाइश के गठन में पश्चिम की भूमिका को स्वीकार किया है। लीक होने वाले दस्तावेज़ों से पता चलता है कि पश्चिमी देशों पर दाइश के गठन का ठोस आरोप है। यहां हम अमरीका के दो अधिकारियों की स्वीकारोक्ति का उल्लेख कर रहे हैं। अमरीका की पूर्व विदेश मंत्री और राष्ट्रपति पद के लिए डेमोक्रेट उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन ने अपनी एक कठिन वकल्प में स्वीकार किया है कि अमरीका ने परोक्ष रूप से दाइश के गठन में भूमिका निभाई है।

अमरीकी उप राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा है कि तुर्की, क़तर, संयुक्त अरब इमारात और सऊदी अरब जैसे मध्यपूर्व में वाशिंग्टन के घटक देश दाइश के गठन और उसे शक्ति प्रदान करने के लिए ज़िम्मेदार हैं। जो बाइडन का कहना था कि तुर्की, सऊदी अरब, संयुक्त अरब इमारात और क़तर जैसे हमारे क्षेत्रीय घटक देशों ने दाइश को अस्तित्व प्रदान किया है। इसी प्रकार उन्होंने स्वीकार किया कि सीरिया में अमरीका की मूल समस्या भी यही देश हैं, इसलिए कि सीरिया में इन्हीं देशों ने चरमपंथी गुटों को सशस्त्र करने के बारे में वाशिंग्टन की सिफ़ारिशों पर ध्यान नहीं दिया।

अमरीकी उप राष्ट्रपति ने यह भी कहा था कि तुर्क राष्ट्रपति रजब तैय्यब अर्दोगान ने ख़ुद मुझसे कहा था कि तुर्की ने सीरिया में चरपंथी गुटों को हद से ज़्यादा हथियारों की आपूर्ति कर दी है और अन्य सुविधाएं प्रदान कर दी हैं।

वरिष्ठ दार्शनिक एवं विश्लेषक नोम चोमस्की का कहना है कि सलफ़ी-वहाबी चरमपंथी सिद्धांतों ने सऊदी अरब के गर्भ से जन्म लिया है। चोमस्की ने उल्लेख किया कि सऊदी अरब ने इस विचार को न केवल पैसे के बल पर बल्कि मुफ़्तियों और अन्य कई उपकरणों द्वारा पूरी दुनिया में फैलाया है। चोमस्की के अनुसार, सीरिया में दाइश और अन्य चरमपंथी गुट सऊदी अरब के विचारों का ही परिणाम हैं। उनका कहना है कि अल-क़ायदा की एक शाख़ा नुस्रा फ़्रंट सीरिया में है और दोनों के बीच विचारों में कोई अंतर नहीं है। इस गुट की सऊदी अरब, फ़ार्स खाड़ी के अरब देशें और तुर्की ने स्पष्ट रूप से और अमरीका ने अप्रत्यक्ष रूप से सहायता की।

नोम चोमस्की के अनुसार, सीरिया और इराक़ संकट का दूसरा कारण, इराक़ पर अमरीका और ब्रिटेन की चढ़ाई थी। यह दोनों देश किसी हथोड़े की भांति इराक़ के सिर पर गिर पड़े, जिसके भयानक परिणाम हुए और लाखों लोग मारे गए, इस देश का बड़ा भाग नष्ट हो गया और इससे बढ़कर देश में साम्प्रदायिक झगड़े शुरू हो गए, जो अब तक अभूतपूर्व थे और इस लड़ाई की स्थिति और बुरी होती चली गई।

कनाडा में ओटावा यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर माइकल चासूदोफ़ोस्की जो ग्लोबल रिसर्च संस्था के साथ राजनीतिक विशेषज्ञ के रूप में सहयोग भी करते हैं, कहा है कि सीरिया से लेकर इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान और मध्यपूर्व के अन्य देशों में जो हम सलफ़ी तकफ़ीरी गुटों की गतिविधियां देखते हैं, वास्तव में यह रणनीतिक सेवा है, जो अलक़ायदा की छत्रछाया में यह गुट अमरीका के लिए कर रहे हैं।

इसी संदर्भ में न्यूयॉर्क टाइम्स में एक लेख में उल्लेख किया गया है कि दाइश वही सऊदी अरब है, मूर्खतापूर्ण रेडिकल वहाबियत है, वहाबियत इस्लाम का भटका हुआ एक रूप है जो दाइश को वैचारिक भोजन उपलब्ध कराता है, इस मत का जन्म रक्तापात और कठोर नियमों के साथ हुआ, आश्चर्य की बात है कि पश्चिम दाइश को नकारता है, लेकिन मध्यपूर्व में सऊदी अरब का घटक है, दाइश की एक मां है और वह इराक़ पर हमला, लेकिन उसका बाप सऊदी अरब और वहाबी विचारधारा है। दाइश, नुस्रा फ़्रंट और अन्य गुटों के आतंकवादियों को अमरीका, ब्रिटेन और फ़्रांस समेत पश्चिमी देशों की जासूसी एजेंसियां और दूसरी ओर सऊदी अरब, संयुक्त अरब इमारात और क़तर तुर्की, जॉर्डन और इस्राईल के सहयोग से प्रशिक्षण दे रहे हैं और उन्हें सशस्त्र कर रहे हैं।

यह बात पूर्ण रूप से स्पष्ट है कि हालिया घटनाक्रमों में आतंकवाद समर्थक देशों की भूमिका, एक समान और एक स्तर की नहीं रही है। अमरीका, ब्रिटेन और फ़्रांस मूल भूमिका में हैं और रियाज़ एक ओर वहाबियत और तकफ़ीरी विचारों का प्रचार करके आतंकवादी गुटों का पोषण कर रहा है और दूसरी ओर राजनीतिक समर्थन करके इस प्रक्रिया में असली भूमिका निभा रहा है। यहां तक कि कुछ अवसरों पर अन्य देश वहाबियों के साथ साज़िश करने से बच रहे हैं, लेकिन राजनीतिक एवं आर्थिक दबाव डालकर उन्हें इस खेल में खींच लिया जाता है। आले सऊद ने इस्लाम के नाम पर वहाबियत के विचारों का प्रचार किया है और वे इस्लाम के नाम पर ऐसे अपराध कर रहे हैं, जिससे इस्लाम के दुश्मनों को लाभ पहुंच रहा है।