मार्गदर्शन-7
पाप किसी टॉरनेडो या बगूले की भांति होते हैं, जो इंसान की आत्मा को नष्ट कर देते हैं।
इस बगूले का मुक़ाबला केवल भलाई और सद्गुणों से किया जा सकता है, क्योंकि यह इस तूफ़ान के मुक़ाबले में एक मज़बूत पहाड़ की भांति खड़ा हो जाते हैं और इंसान की आत्मा को पतन से सुरक्षित रखते हैं। सद्गुणों से सुसज्जित लोग जागरुक लोग होते हैं और अपनी समस्त गतिविधियों के प्रति सजग रहते हैं, ताकि पापों के जाल में न फंस जाएं। जब वे पापों के परिणामों के बारे में सोचते हैं तो उनका पूरा वजूद भय और डर से थरथरा उठता है और वे स्वयं से कहते हैं, कहीं मेरे ईमान का जनाज़ा न निकल जाए, कहीं पाप के कारण, मैं अपने ईश्वर के समर्थन से वंचित न हो जाऊं और वासना के जाल में न फंस जाऊं। यही ईश्वरीय भय है। ईमान वाले अपने ईश्वर की उपस्थिति को ध्यान में रखते हैं और ख़ुद को बुराईयों से दूर रखते हैं और ईश्वर भी उनकी मदद करता है।
वरिष्ठ नेता के अनुसार, ईश्वरीय भय से ख़ुद इंसान अपनी सुरक्षा करता है। वे कहते हैं, ईश्वरीय भय रखने वाला व्यक्ति स्वयं को लड़खड़ाहट और भटकने से सुरक्षित रखता है, लेकिन ईश्वरीय भय नहीं रखने वाला ऐसा नहीं कर सकता। अगर इंसान हमेशा अपनी गतिविधियों के प्रति सजग रहे और अपने कर्मों एवं सोच पर ध्यान रखे तो परिणाम स्वरूप, ईश्वरीय परीक्षा में सफल रहेगा। इसलिए कि ईश्वरीय भय का अर्थ है, सावधानी और आत्मनिर्माण, स्वयं का ध्यान रखना और लापरवाही से बचना।
इंसान का स्वयं के प्रति सजग रहने का अर्थ यह है कि वह अपनी आँखों, ज़बान, कान, हाथों और दिल के प्रति सावधान रहे, उत्तेजित दृश्यों को देखने से बचे, अपने कानों से दूसरों की बुराई न सुने। अपनी ज़बान के प्रति सावधान रहे ताकि झूठ न बोले और निराधार आरोप न लगाए और ग़लत बात कहने से बचे। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता इस संदर्भ में कहते हैं, इंसान को जानवरों वाली नीच आदतों से बचना चाहिए, मन को भटकने से बचाए और धोखा देने वाली एवं मन मोह लेने वाली चीज़ों के प्रति होशियार रहे, ईर्ष्या न करे, दूसरों का बुरा न चाहे, अपने दिल में बुरे विचार न आने दे, दिल को ईश्वर, उसके दूतों और इंसान के प्रेम का स्थान बना ले। इंसान को विचारों में भी ईश्वरीय भय रखना चाहिए। अर्थात बुद्धि को भटकने और ग़लतियों से बचाए, उसे अप्रासंगिक होने से मुक्ति दिलाए और जीवन में उसका सही प्रयोग करे। इसलिए कहा जा सकता है कि अपने शरीर के अंगों के प्रति सावधान रहना तक़वा या ईश्वरीय भय है।
ईश्वरीय भय का मीठा फल बंदगी है। इस अमूल्य मोती को हासिल करने के लिए और इस अद्वितीय मूल्य के फलने फूलने के लिए अधिक प्रयत्न एवं सावधानी की ज़रूरत है। जो लोग ईश्वर से डरते हैं और स्वयं को पापों की दलदल से मुक्ति दिलाते हैं, वे वास्तविक ईमान वाले हैं। इस स्थान तक पहुंचने के लिए निरंतर प्रयासों एवं प्रयत्नों की ज़रूरत है।
आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनई के अनुसार, इस स्थान तक पहुंचने के कई चरण हैं और कोई भी एकदम से इन चमकते हुए मोतियों तक नहीं पहुंच सकता है। वे कहते हैं, हम जब यह कहते हैं कि पापों से दूरी बनाकर रखना, तो इसका मतलब यह नहीं है कि पहले हमें समस्त पापों को त्याग देना चाहिए, ताकि दूसरे चरण में प्रवेश कर सकें। नहीं, यह सब एक दूसरे के पूरक हैं। हममें दृढ़ विश्वास होना चाहिए और हमारी यह कोशिश होनी चाहिए कि हम से कोई पाप न हो। ईश्वरीय भय का भी यही अर्थ है। नमाज़ और क़ुरान की तिलावत में ध्यान रखना ज़रूरी होना इसलिए है कि इससे हमारी आत्मा की शुद्धि होती है। इससे हमें शांति और सुख हासिल होता है।
ईश्वरीय भय के चरम तक पहुंचने के लिए जीवन के आरम्भ से ही परिस्थितियों को तैयार करना चाहिए। धार्मिक प्रशिक्षण, हलाल भोजन और स्वस्थ वातावरण बच्चों को ईश्वरीय भय की ओर मार्गदर्शित करता है। ईश्वरीय भय की प्राप्ति के लिए बेहतरीन अवसर, युवावस्था है। युवक का दिल सत्य को स्वीकार करने के लिए अधिक तैयार होता है। इस संदर्भ में सिफ़ारिश करते हुए वरिष्ठ नेता कहते हैं, तुम्हारे पास जो यह प्रकाशमय व साफ़ दिल है, इसके मूल्य को समझो, युवक की यही विशेषता है, तुम्हारा दिल पाक साफ़ है, इस पाक एवं स्वच्छ दिल को, महानता, सत्य एवं सुन्दरता के स्रोत अर्थात ईश्वर से जोड़ो और उसके निकट हो जाओ, शरीयत में भी मार्ग खुला हुआ है, यह कोई जटिल मार्ग नहीं है।
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता, ईश्वरीय भय के चरणों का उल्लेख करते हुए कहते हैं, सबसे पहले पापों को त्यागना होगा। यह कहना आसान है, इस पर अमल करना कठिन है, लेकिन अमल करना ज़रूरी भी है। झूठ नहीं बोलना, अमानत में ख़यानत न करना, यौन एवं कामुक भटकाव से बचना, पापों से बचना, एक महत्वपूर्ण क़दम है। पापों को त्यागने के बाद, धर्म की ओर से अनिवार्य चीज़ों को अंजाम देने का नम्बर आता है, इसमें सबसे प्रमुख नमाज़ है। मुसलमान के समस्त कार्य नमाज़ के बाद हैं। नमाज़ को उसके समय पर पढ़ो, ध्यानपूर्वक एवं दिल से पढ़ो। दिल लगाकर पढ़ने का मतलब है कि तुम्हें यह पता होना चाहिए कि किसी से बात कर रहे हो, यह पता होना चाहिए कि तुम्हारे सामने कोई है जिससे बातचीत कर रहे हो। इस स्थिति का अगर अपने भीतर अनुभव करते रहोगे और ध्यान केन्द्रित करने में सफल हो गए तो उम्र के अंत तक यह स्थिति बाक़ी रहेगी। अगर अब नहीं कर सकोगे तो 20 साल बाद यह बहुत कठिन होगा, अभी से नमाज़ की हालत में ध्यान केन्द्रित करने की कोशिश करो। उस समय यह नमाज़ वही नमाज़ होगी जिसके बारे में क़ुरान में कहा गया है, नमाज़ तुम्हें भ्रष्टाचार और बुराई से बचाती है। अर्थात तुम्हें रोकती है, यानी हमेशा तुमसे कहती है कि पाप न करो, अगर प्रतिदिन कई बार इंसान के भीतर से यह आवाज़ आए कि पाप न कर, पाप न कर, तो इंसान पाप नहीं करेगा, यह आवाज़ नमाज़ की है।
ईश्वरीय भय केवल इंसान के भीतर तक सीमित नहीं होता है, बल्कि उसे सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक समस्याओं से सही रूप में निपटने के लिए भी तैयार करता है। इस संदर्भ में वरिष्ठ नेता का मानना है कि धार्मिक व आत्मिक ईमान, सार्थक गतिविधियों में बहुत अहम भूमिका निभाता है। वर्षों से जारी पश्चिमी एवं साम्राज्यवादी शक्तियों के प्रचार के विपरीत, जैसा कि वे ज़ाहिर करते हैं कि धर्म एक नशा है और यह इंसान को अलग थलग और दुनिया से दूर कर देता है, नहीं, धर्म होश नहीं उड़ाता है, इस्लाम धर्म प्रेरणा देने वाला और पुनर्जीवन प्रदान करने वाला है।
वरिष्ठ नेता एक और महत्वपूर्ण बिंदु की ओर संकेत करते हुए कहते हैं, ईश्वरीय भय केवल शरीयत के ज़ाहिरी नियमों का पालन करना नहीं है, बल्कि उससे कहीं व्यापक है। वे कहते हैं, अकसर जब कहा जाता है, ईश्वरीय भय तो पापों से दूर रहना इंसान के ज़हन में आता है, शरीयत द्वारा अनिवार्य किए गए आदेशों का पालन और वर्जित की गई चीज़ों से दूरी, जैसे कि नमाज़ पढ़ना, धार्मिक दान देना, रोज़ा रखना, झूठ न बोलना। हालांकि यह सब भी महत्वपूर्ण हैं, लेकिन ईश्वरीय भय के अन्य आयाम भी हैं, अकसर जिसपर हमारा ध्यान नहीं रहता। मकारेमुल अख़लाक़ दुआ में इन आयामों का उल्लेख एक वाक्य कर रहा है, इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) ईश्वर से दुआ करते हुए कहते हैं, हे ईश्वर, मुझे भले लोगों के आभूषणों से सजा और पुण्य करने वालों की वेशभूषा पहना। अब यहां सवाल यह होता है कि पुण्य करने वालों या भले लोगों की वेशभूषा क्या है? भले लोगों की वेशभूषा न्याय का फैलाना, क्रोध पर निंयत्रण करना, समाज में फैलने वाली आग को बुझाना है। यह ईश्वरीय भय है। जो लोग तुम्हीं में से हैं, लेकिन अलग हो गए हैं, उन्हें पुनः इकट्ठा करने का प्रयास करो। यह ईश्वरीय भय से संबंधित है, जैसा कि सहीफ़ए सज्जादिया की बीसवीं दुआ में संकेत किया गया है। आग भड़काने, चुग़ली करने, लोगों को एक दूसरे से लड़ाने और लोगों के बीच फूट डालने के बजाए उनके बीच शांति की स्थापना करना, मोमिनों के बीच, मुसलमानों के बीच एकता की स्थापना करना ईश्वरीय भय है।