Feb २०, २०१७ १७:१० Asia/Kolkata

हमने तकफ़ीरी आतंकवादी गुट दाइश के संगठनात्मक ढांचे की व्याख्या की थी और इस बिन्दु की ओर इशारा किया था कि दाइश के मद्देनज़र ख़िलाफ़त में देशों के बीच सीमाओं की अहमियत नहीं है बल्कि इस्लाम के संबंध में उनका दृष्टिकोण दाइश के शासन की सीमा को निर्धारित करता है।

इसलिए दाइश के मद्देनज़र दारुल इस्लाम की परिभाषा के दायरे से जो बाहर है वह दारुल कुफ़्र की परिधि में आएगा जिससे लड़ना और उसे क़त्ल करना दाइश की नज़र में सही है। इस तरह दाइश ने अपने मद्देनज़र ख़िलाफ़त का जो नक़्शा तय्यार किया है उसमें इस्लामी जगत का दायरा पश्चिमी चीन से लेकर स्पेन तक है।

जिन इस्लामी मतों के अनुयाइयों को दाइश दुश्मन समझता है उनमें शिया भी हैं। नास्तिकता व अनेकेश्वरवाद के व्यापक दायरे के परिप्रेक्ष्य में दाइश शियों के ख़िलाफ़ अनेक भ्रांति फैलाने वाली बातें करता है और उसी आधार पर उन्हें इस्लाम से बाहर समझता है। वह शियों पर इस्लाम धर्म में बिदअत अर्थात नई चीज़ें शामिल करने का आरोप लगाता हैं।

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दाइश जो वहाबी विचारधारा से प्रेरित है, बिदअत की स्पष्ट परिभाषा पेश नहीं कर पाता और कोशिश करते हैं कि विरोधाभासी बातों के ज़रिए शियों को इस्लाम धर्म से बाहर दर्शाएं। बहुत से दूसरे विषय की तरह बिदअत की भी सीमा है। धर्म में बदलाव लाना बिदअत की व्याख्या का सबसे अहम मानदंड है। किसी ख़ास विषय के संबंध में स्पष्त धार्मिक आदेश के न होने के कारण बिदअत का मार्ग समतल होता है। नस का अर्थ है किसी ख़ास विषय के संबंध में पवित्र क़ुरआन की आयत या पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के आचरण से आदेश का साबित होना। जब इसका उलटा हो तो उसे फ़ुक़दाने नस अर्थात नस का अभाव कहते हैं। अर्थात किसी ख़ास विषय के संबंध में पवित्र क़ुरआन या पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के आचरण से आदेश साबित न हो रहा है। ऐसी हालत में किसी काम का बिदअत होना साबित नहीं होता।

अगर किसी काम के संबंध में शरीअत में कोई सिद्धांत है चाहे वह विदित व प्रत्यक्ष रूप से शरीअत में न आया हो तो उसे बिदअत नहीं कहा जा सकता। मिसाल के तौर पर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम का नाम लेते समय खड़े होने या सम्मान की नियत से मां-बाप का हाथ चूमने के बारे में कोई नस नहीं है और यह घटना उस दौर में नहीं घटी लेकिन इसका धार्मिक दृष्टि से वैध होना उन कथनों से साबित होता है जिसमें मोमिन या पैग़म्बरे इस्लाम का सम्मान करने पर बल दिया गया है।                

तकफ़ीरी विचारधारा बिदअत की चरमपंथी व इस्लामी शिक्षाओं के विपरीत जो व्याख्या करती है, उसका कारण यह है कि वह इस्लामी शिक्षाओं के सिर्फ़ विदित अर्थ को लेती हैं। उन मामलों को जिसके बारे में सीधा आदेश शरीअत में नहीं है और पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण व इस्लाम की आरंभिक तीन शताब्दियों के दौरान व्यवहार से उसका आदेश साबित नहीं होता, तो तकफ़ीरी विचारधारा शरीअत के दायरे से बाहर मानती हैं चाहे उस आदेश की मूल रूप में शरीअत में पुष्टि ही क्यों न की गयी हो। दूसरे शब्दों में दाइश के निकट सिर्फ़ वे मामले वैध हैं जिनका सीधे तौर पर उल्लेख है और वह कर्म व विचार वैध नहीं है जिसका पवित्र क़ुरआन में उल्लेख न हो और पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण से भी साबित न होता हो।

बिन बाज़ सऊदी अरब के वहाबी मुफ़्ती ने बिदअत की यह परिभाषा की है, “हर नई चीज़ बिदअत है जिसकी विगत में मिसाल न मिलती हो।”

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वे पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की इस रिवायत का हवाला देते हैं जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा है, “धर्म में जो चीज़ें नई लायी गयी हैं उनसे दूर रहो, क्योंकि धर्म में किसी नई चीज़ का शामिल करना बिदअत है और हर बिदअत गुमराही की तरफ़ ले जाती है।” कभी कभी तो वहाबियों के फ़त्वों में बहुत ही घटिया बातें नज़र आती हैं और वे अपनी बात के तर्क में यह कहते हैं कि यह चीज़ पैग़म्बरे इस्लाम के अनुयाइयों, अनुयाइयों का अनुसरण करने वालों और अनुसरण करने वालों का अनुसरण करने वालों के दौर में अंजाम नहीं दी गयीं या मौजूद नहीं थीं। इस प्रकार के फ़त्वों की मिसालें यूं हैं, पंखे, कार और टेलीग्राफ़ का इस्तेमाल वहाबियों की नज़र में वर्जित है। इसी प्रकार वहाबी मुफ़्ती पैग़म्बरे इस्लाम का जन्म दिवस मनाना, अज़ान के बाद उनके लिए दुआ करना, रेडियो व टेलीफ़ोन का इस्तेमाल, अंग्रेज़ी ज़बान में बातचीत, देश से बाहर छात्रों को भेजने के लिए उनके लिए छात्रवृत्ति, फ़ुटबाल और सैन्य अभ्यास को वर्जित कहते हैं। वहाबी मुफ़्तियों की नज़र में महिलाएं इंटरनेट सिर्फ़ सगे-संबंधियों की मौजूदगी में इस्तेमाल कर सकती हैं। इसी प्रकार ऊंची एड़ी की सैंडिल या जूते पहना, चम्मच से खाना खाना, घर के लिए सेवक या ड्राइवर रखना, फ़ुटबाल के खिलाड़ियों के लिए हाथ हिलाना, प्रिंट मीडिया में लेख लिखना, कांधे पर लबादा या चोग़ा डालना तकफ़ीरी मुफ़्तियों के निकट वर्जित है। 

तकफ़ीरी विचारधारा की नज़र में हर वह काम जो पैग़म्बरे इस्लाम और उनकी पैग़म्बरी पर नियुक्ति के समय से तीन सौ साल तक अंजाम न पाया हो, वह बिदअत की श्रेणी में आएगा और वर्जित है। ऐसा करने वाले का ख़ून माफ़ है। यहां तक कि मानव ज्ञान के प्रतीकों को भी वे बिदअत कहते हैं। उन्होंने बिदअत के नाम पर मूसिल की उस लाइब्रेरी को आग लगा दी जिसमें बहुत ही दुर्लभ किताबें मौजूद थीं। अपने पूर्वजों के लिए शोकसभा का आयोजन, ईद की नमाज़ का आयोजन, पवित्र काबे की परिक्रमा और पैग़म्बरे इस्लाम के रौज़े के पास दुआ करना भी दाइश के निकट बिदअत है। दाइश अपने नियंत्रण वाले इलाक़ों में इस तरह का कर्म करने वालों को कड़ा दंड देता है। इसी प्रकार दाइश नमाज़ पढ़ने से पहले और उसके बाद पवित्र क़ुरआन की तिलावत को भी बिदअत कहते हैं। धार्मिक मामलों के अलावा बहुत से नए राजनैतिक मामलों को भी दाइशी बिदअत समझते हैं। जैसे दाइश की नज़र में प्रजातंत्र और चुनाव बिदअत है।               

दाइश का पूर्व प्रवक्ता मोहम्मद अलअदनानी अबू मुसअब ज़रक़ावी के दृष्टिकोण का हवाला देते हुए कहता है, “प्रजातंत्र ग़लत विचार है। चुनाव में खड़े होने वाले भी स्वामी होने का दावा करते हैं। ईश्वर के सिवा दूसरों को चुनते हैं। धर्म की नज़र में वे नास्तिक हैं और उन्हें इस्लाम से ख़ारिज करता है।”

पवित्र क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम की रवायतों पर व्यापक दृष्टि के बिना बिदअत का विषय उठाना और इस नाम की आड़ में निराधार आरोप लगाना ख़ुद धर्म में बिदअत पैदा करना है। इस्लाम के वैध मामलों को सिर्फ़ पवित्र क़ुरआन, पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण और शुरु की तीन शताब्दियों पर निर्भर करना अपने आप में धर्म में बिदअत है। शुरु की तीन शताब्दियों की इस्लामी हस्तियों के क्रियाकलापों को शरीअत के स्रोतों में शामिल करना जो पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण से सिद्ध नहीं होता, तकफ़ीरी विचारधारा की ओर से पैदा की गयी सबसे बड़ी बिदअत है। बहुत से ऐसे कर्म जिसे तकफ़ीरी विचारधारा बिदअत कहती है, सलफ़े सालेह के आचरण के मद्देनज़र बिदअत क़रार नहीं पा सकते। सलफ़े सालेह का अर्थ है, पैग़म्बरे इस्लाम के अनुयायी, इन अनुयाइयों के अनुसरणकर्ता और इन अनुसरणकर्ताओं के अनुसरणकर्ता। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम और दूसरे महापुरुषों की सिफ़ारिश से ईश्वर से दुआ करना या पैग़म्बरे इस्लाम के वज़ू से बचे हुए पानी को प्रसाद समझना या उनके बाल को सम्मान देने का उल्लेख सुन्नी समुदाय की अतिविश्वस्नीय किताबों सही मुस्लिम और सही बुख़ारी में है। इसी प्रकार तकफ़ीरियों के क़ब्रिस्तान के मुर्दों की ज़ियारत के बारे में फ़तवे पैग़म्बरे इस्लाम और सलफ़े सालेह के आचरण से विरोधाभास रखते हैं। जैसा कि सही बुख़ारी में रिवायत है, “पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम आधी रात को जब प्रायः हज़रत आयशा सो जाती थीं, बक़ीअ क़ब्रस्तान में मुर्दों की ज़ियारत के लिए जाया करते थे।”

वहाबियत व तकफ़ीरी विचारधारा की ओर से बिदअत और दूसरों को काफ़िर अर्थात अधर्मी ठहराने के बढ़ते दायरे के पीछे एक कारण यह है कि वहाबी और तकफ़ीरी इस्लाम के एक मूल सिद्धांत के ख़िलाफ़ हैं, जिसे मुबाह कहते हैं हालांकि ये सिद्धांत शिया और सुन्नी दोनों मत मानते हैं। मुबाह वह कार्य है जिसके अंजाम देने में न तो कोई सवाब है और न ही उसके अंजाम न देने में कोई पाप है। जब किसी चीज़ को अंजाम देने या न देने के बारे में धर्म में स्पष्ट आदेश न हो तो वह काम मुबाह के दायरे में आता है। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के इनआम सूरे की आयत नंबर 119 के अनुसार, जो चीज़े वर्जित हैं उनका उल्लेख ज़रूरी है न कि जो चीज़ें मुबाह हैं। इसी सूरे की आयत नंबर 145 में आया है कि वर्जित को बयान करने की ज़रूरत है जबकि मुबाह कर्म के लिए यह ज़रूरी नहीं है। इस्लाम में व्यापकता व समावेश के बड़े दायरे और कर्मों के बारे में मुबाह सिद्धांत के मद्देनज़र हर नई चीज़ को, शरीअत के आधार पर ध्यान दिए बिना बिदअत कहना अपने आप में धर्म में बिदअत कहलाएगा।

 

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