इस्लामी जगत-13
हमने ईरान की इस्लामी क्रांति के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी द्वारा मुसलमानों के बीच एकता की स्थापना के लिए किए गए प्रयासों का उल्लेख किया था।
उनका मानना था कि मुसलमानों के बीच फूट का मूल कारण, उनका इस्लमी सिद्धांतों से दूर होना और साम्राज्यवादी शक्तियों पर भरोसा करना है। उनके अनुसार, इस समस्या का सनाधान तीन चीज़ों में हैः इस्लाम, आज़ादी और स्वाधीनता।
ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनई इस्लामी एकता को आज की दुनिया में मुसलमानों के लिए ज़रूरी क़रार देते हैं। एकता के अर्थ को स्पष्ट करते हुए वे उस विचार को ख़ारिज कर देते हैं, जिसमें एकता के नाम पर वैचारिक और ऐतिहासिक मतभेदों को दूर करने पर बल दिया जाता है, बल्कि उसे बाहरी दुश्मन के मुक़ाबले में मुसलमानों की एकजुटता क़रार देते हैं। वे उन लोगों के तर्क को ख़ारिज कर देते हैं, जो एकता के नाम पर धार्मिक वाद विवाद को बंद करने पर बल देते हैं। वे कहते हैः मुसलमानों के बीच एकता का मतलब धार्मिक मतभेदों को समाप्त करना नहीं है, बल्कि धार्मिक विद्वानों के बीच शैक्षिक वाद विवाद का होना ज़रूरी है। लेकिन यह सुनिश्चित भी करना ज़रूरी है कि यह बहसें दुश्मनी का रूप धारण न कर लें, बल्कि इन्हें तर्क वितर्क के रूप में पेश किया जाना चाहिए। इस प्रकार की बहसों का मुख्य केन्द्र क़ुरान, पैग़म्बरे इस्लाम, बुद्धि और तर्क होना चाहिए। इसलिए कि क़ुराने मजीद ने विचार करने का आहवान किया है। इसलिए एकता के नाम पर धार्मिक बहसों को समाप्त नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार, इस तरह की बहसों का हवाला देकर एकता पर भी प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता। अगर केवल वैचारिक मतभेदों से फूट पड़ती, तो समाज और धार्मिक समाज के गठन की बात दूर, कभी एक पारिवारिक इकाई का गठन भी नहीं हो पाता। इसलिए कि एक परिवार के सदस्यों के बीच भी वैचारिक मतभेद पाए जाते हैं। इसलिए हमारे दृष्टिगत जो एकता है, वह इस्लाम के दुश्मनों के मुक़ाबले में एकजुटता है, न कि धार्मिक विश्वासों में एकता।
वरिष्ठ नेता साम्प्रदायिकता को इस्लामी जगत के लिए ख़तरनाक ज़हर बताते हैं और कहते हैं कि इस्लामी देशों के आर्थिक स्रोतों को लूटने वाली साम्राज्यवादी शक्तियां इस प्रकार की फूट डालती हैं। वरिष्ठ नेता के अनुसार, शियों और सुन्नियों से साम्राज्यवादी शक्तियों की दुश्मनी का लक्ष्य, इस्लाम से मुक़ाबला करना है। वे कहत हैः शिया और सुन्नी का मुद्दा इस्लामी जगत को नष्ट करने के लिए दुश्मनों की एक चाल है। सुन्नियों, शियों और ईरान तथा दुनिया में सभी को यह समझ लेना चाहिए कि शियों और सुन्नियों के बीच मतभेद, इस्लामी जगत के ख़िलाफ़ दुश्मन की एक चाल है। वे जिस तरह से चाहते हैं, इसका इस्तेमाल करते हैं। जब फ़िलिस्तीनी सुन्नियों पर दबाव पड़ता है तो वे कुछ लोगों को यह प्रचार करके कि यह तो सुन्नी हैं, तुम शिया हो, कोशिश करते हैं कि वह उनकी मदद न करें। आज जब लेबनानी शियों पर दबाव है तो वे सुन्नियों से कहते हैं कि तुम तो सुन्नी हो, यह शिया हैं, उनकी मदद मत करो। वे न ही शियों का सम्मान करते हैं और न ही सुन्नियों का, वे मूल इस्लाम के ही दुश्मन हैं। इस्लामी जगत के लिए साम्प्रदायिकता एक ज़हर है। यह साम्प्रदायिकता राष्ट्रों में फूट डाल देती है, दिलों में दरार डाल देती है।
वरिष्ठ नेता के अनुसार, दो मतों के अनुयाईयों के बीच वैचारिक मतभेद एक सामान्य सी बात है, लेकिन ऐतिहासिक और धार्मिक बहसों को आम लोगों के बीच प्रस्तुत करना और इन विषयों के ज़रिए भावनाओं को भड़काना, मुसलमानों के बीच फूट डालने की दुश्मनों की एक चाल है। दो विचारधाराओं के मानने वालों के बीच मतभेद होते ही हैं और यह सामान्य बात है और यह केवल शियों और सुन्नियों के बीच ही नहीं है। ख़ुद शियों के विभिन्न मतों के बीच, ख़ुद सुन्नियों के विभिन्न मतों के बीच हमेशा से ही इस प्रकार के मतभेद रहे हैं। इतिहास पर नज़र डालिए, आप देखेंगे कि सुन्नी मतों के बीच, जैसे कि अशाएरा, मोअतज़ेला, हंबली, हनफ़ी और शाफ़ई के बीच, इसी प्रकार शियों के विभिन्न मतों के बीच भी मतभेद पाए जाते हैं।
यह मतभेद जब आम लोगों के बीच पहुंचते हैं, तो यह भयानक रूप धारण कर लेते हैं, लोग एक दूसरे का गिरेबान पकड़ लेते हैं। विद्वान बैठकर आपस में बातचीत करते हैं और बहस करते हैं। लेकिन जब बात उन लोगों तक पहुंचती है जो शिक्षित नहीं हैं, तो वे भावनाओं में बह जाते हैं, यह ख़तरनाक होता है। दुनिया में यह हमेशा होता रहा है, ईमान वालों और भले लोगों ने हमेशा ही इसे रोकने का प्रयास किया है, विद्वानों का हमेशा यही प्रयास रहा है कि आम लोगों के बीच बात झगड़े तक न पहुंचे। लेकिन कुछ समय से एक दूसरे तंत्र ने इसमें हस्तक्षेप किया है और वह साम्राज्य है। हम यह कहना नहीं चाहते हैं कि शिया और सुन्नी मतभेद, हमेशा साम्राज्य से संबंधित रहा है, नहीं, ख़ुद उनकी भावनाएं भी इसमें शामिल रही हैं, कुछ लोगों ने अज्ञानता के कारण, कुछ लोगों ने भावनाओं के कारण और कुछ लोगों ने ग़लतफ़हमियों के कारण इसमें भूमिका निभाई है, लेकिन जब साम्राज्य ने हस्तक्षेप किया तो उसने इस हथियार को भरपूर प्रयोग किया।
आयतुल्लाह ख़ामेनई के अनुसार, कुछ शिया और सुन्नी गुटों द्वारा एक दूसरे का अपमान करना, दुश्मन की लक्ष्य की प्राप्ति में मदद करना है। इन लोगों को ऐसा करने से बचने चाहिए। सुन्नियों और शियों को अपने धार्मिक संस्कार और ज़िम्मेदारियों को अंजाम देना चाहिए, लेकिन इसके लिए रेड लाइन यह है कि उन्हें एक दूसरे की धार्मिक आस्थाओं का अपमान नहीं करना चाहिए, जैसा कि कुछ शिया नादानी में ऐसा करते हैं, या सुन्नियों में सलफ़ी ऐसा करते हैं। क्योंकि यह वही चीज़ है, जो दुश्मन चाहता है। यहां समझदारी से काम लेने की ज़रूरत है।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) की पत्नी आयशा के अपमान के बारे में पूछ जाने पर उन्होंने कहा, पैग़म्बरे इस्लाम (स) की किसी पत्नी समेत सुन्नी मुसलमानों के धार्मिक प्रतीकों का अपमान हराम और पाप है। इसमें अंतिम ईश्वरीय दूत समेत समस्त ईश्वरीय दूतों की पत्नियां शामिल हैं।
दुश्मनों से जुड़े हुए कुछ शिया गुटों द्वारा सुन्नी मुसलमानों की धार्मिक आस्थाओं के अपमान की आलोचना करते हुए वे कहते हैः हमें वह शिया स्वीकार नहीं हैं कि जिनका केन्द्र और प्रचार का ठिकाना लंदन है। यह वह शिया मत नहीं है, जिसका इमामों ने प्रचार किया है। वह शिया मत जिसका आधार मतभेद फैलाकर दुश्मनों के लिए रास्ता साफ़ करना हो, वह वास्तविक शिया मत नहीं है, बल्कि यह रास्ते से भटका हुआ है। शिया मत मूल इस्लाम का प्रतिबिंब है, क़ुरान का प्रतिबिंब है। हम उन लोगों का समर्थन करते हैं, जो एकता के लिए प्रयास करते हैं। जो लोग एकता के विपरीत चलते हैं, हम उनका विरोध करते हैं।
इसी प्रकार वरिष्ठ नेता सुन्नी मुसलमानों के बीच, सलफ़ियों की सक्रियता को मुसलमानों के बीच फूट डालने का प्रयास बताते हैं और उन्हें अमरीकी की पैदावार क़रार देते हैं। तकफ़ीरी और विभाजन उन मुसलमानों के लिए एक मुसीबत है, जो एक ही क़िबले की ओर रूख़ करके नमाज़ पढ़ते हैं और एक ही ईश्वरीय किताब पर ईमान रखते हैं। एक ईश्वर की इबादत करते हैं और पैग़म्बरे इस्लाम से दिल से मोहब्बत करते हैं। इस्लाम के दुश्मन किसी भी समय से अधिक मुसलमानों के बीच फूट डालने का प्रयास कर रहे हैं और इस्लामी देशों पर वर्चस्व का सपना देख रहे हैं। ऐसी स्थिति में एकता, एक ऐसी दवाई है कि जिसका आहवान ईश्वर ने अपने मोमिन बंदों से किया है। इस आहवान पर हां कहने से ईमान लाने वालों के लिए कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा...। हालांकि इस काम के विशेषज्ञ ब्रिटिश थे। साम्प्रदायिकता फैलाने में उन्हें महारत हासिल है, यह काम अमरीकियों ने भी उन्हीं से सीखा है और आज जान लगाकर इस काम को अंजाम दे रहे हैं। आज जिन तकफ़ीरी गुटों को आप देख रहे हैं, उन्हीं की पैदावार हैं।
वरिष्ठ नेता के अनुसार, इस्लामी एकता के लिए दो बातों पर ध्यान देना ज़रूरी है। एक मतभेदों, आपसी झगड़ों और विरोधाभास को दूर करना है और दूसरे अपनी गतिविधियों का रुख़ इस्लाम को शक्तिशाली बनाने के मार्ग की ओर मोड़ना है। वे कहते हैः एकता के बारे में दो बुनियादी बिंदु हैं, जिनमें से हर एक का अपना महत्व है। जब हम एकता का नारा लगाते हैं, उस समय हमें इन दोनों बिंदुओं पर ध्यान देना चाहिए, यही मुसलमानों के लिए सार्थक है। उनमें से एक मतभेदों, आपसी झगड़ों और विरोधाभास को दूर करना है, जो शताब्दियों से इस्लामी मतों के बीच पाया जाता है और इस विरोधाभास ने हमेशा मुसलमानों को नुक़सान पहुंचाया है। दूसरा बिंदु यह है कि यह एकता इस्लाम की सेवा के लिए होनी चाहिए, वरना यह व्यर्थ और लाभहीन होगी।
 
								