हम और पर्यावरण-29
वैज्ञानिकों का मानना है कि हवा के अणुओं के कंपन और हवा के दबाव में आने वाले निरंतर परिवर्तनों से ध्वनि अस्तित्व में आती है।
आवाज़ की ये तरंगें हवा में फैल जाती हैं और निर्धारित फ़्रिक्वेंसी की सीमा में मनुष्य इन्हें महसूस कर सकता है। इस आधार पर आवाज़ की तरंगें, यांत्रिक तरंगों का ही एक रूप हैं जो वातावरण में फैली होती हैं और कानों से टकराने के साथ ही सुनने का आभास पैदा करती हैं। ये तरंगें, विभिन्न फ़्रिक्वेंसियों के रूप में वातावरण में फैली होती हैं लेकिन इंसान के लिए जो फ़्रिक्वेंसियां सुनने योग्य होती हैं वे बीस से बीस हज़ार हर्ट्ज़ के बीच होती हैं। बीस हर्ट्ज़ से कम की तरंगों को सबसोनिक और 20 हज़ार हर्ट्ज़ से अधिक की तरंगों को सुपर सोनिक या पराध्वनिक तरंगें कहा जाता है।
ध्वनि प्रदूषण उन अनिच्छित आवाज़ों को कहा जाता है जो आराम के समय लोगों की शांति या काम के समय ध्यान भंग होने का कारण बनती हैं इसी लिए अगर संगीत की आवाज़ भी एक अनुचित स्थान और समय पर प्रसारित हो तो उसे ध्वनि प्रदूषण का एक स्रोत ही समझा जाएगा। ध्वनि को डेसिबल की इकाई और हवा के दबाव के परिवर्तन के आधार पर नापा जाता है और उसकी मात्रा शून्य डेसिबल से 130 डेसिबल तक बयान की जाती है। शून्य डेसिबल सुनवाई का आरंभिक बिंदु है जबकि 130 डेसिबल बहरेपन की सीमा है। ध्वनि प्रदूषण का तकनीक और विशेष कर औद्योगिक तकनीक से सीधा संबंध है। दूसरे शब्दों में तकनीक की प्रगति के साथ ही ध्वनि प्रदूषण की समस्या भी व्यापक होती जा रही है और इसने अनेक समस्याओं को जन्म दिया है।
ध्वनि प्रदूषण के अनेक और अत्यंत विभिन्न स्रोत हैं लेकिन इनमें सबसे अहम सड़क परिवहन, वायु परिवहन, रेल गाड़ियां और निर्माण उद्योग हैं। शहरों में हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे विशेष स्थानों के अस्तित्व और इसी तरह गाड़ियों के हॉर्न और साइलेंसरों की आवाज़ें, एम्बूलेंसों के सायरन और निर्माण कार्य तथा गाड़ियां बनाने की आवाज़ें ध्वनि प्रदूषण के मुख्य स्रोत हैं जबकि शहर के बाहर राजमार्ग और रेलवे लाइनें ध्वनि प्रदूषण पैदा करने के मुख्य स्रोत समझे जाते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार किसी क्षेत्र में रेलवे लाइन की उपस्थिति वनस्पतियों और पशुओं पर विध्वंसक प्रभाव डालती है क्योंकि ये लाइनें प्राकृतिक एको सिस्टमों के बीच से गुज़रती हैं और रेल गाड़ियों के गुज़रने से पैदा होने वाला ध्वनि प्रदूषण उन क्षेत्रों के पेड़-पौधों और जीवों पर प्रभाव डालता है और वहां रहने वाले इंसानों के जीवन को ख़तरे में डालता है जिसके कारण पर्यावरण को नुक़सान पहुंचता है और बहुत से पशुओं की बहुत सी दुर्लभ जातियों के विलुप्त होने का ख़तरा पैदा हो जाता है।
आज ध्वनि प्रदूषण संसार के अधिकांश औद्योगिक देशों में पर्यावरण की सबसे जटिल समस्याओं में शामिल हो चुका है। अनुसंधानों से पता चलता है कि मशीनी जीवन के शोर हंगामे ने लोगों के लिए अनेक शारीरिक व मानसिक समस्याएं उत्पन्न कर दी हैं जिसके चलते विभिन्न समाजों पर ख़र्चों का भारी बोझ आ पड़ा है। ध्वनि प्रदूषण के कारण लोगों के समक्ष पैदा होने वाली एक समस्या श्रवण शक्ति में कमी है। सिर दर्द, चक्कर, बद हज़्मी, क़ब्ज़, अल्सर, खुजली, त्वचा की एलर्जी, मानसिक पीड़ाएं, रगों का सिकुड़ना, रक्तचाप में वृद्धि, हार्ट अटैक और अनिद्रा भी मनुष्य पर ध्वनि प्रदूषण के नकारात्मक प्रभावों में शामिल हैं।
निरंतर आवाज़ रक्त में एड्रेनालाईन और कोर्टिसोल नामक होर्मोंज़ की मात्रा में वृद्धि का कारण बनती है। एड्रेनालाईन में वृद्धि दिल की धड़कन को बढ़ाती है और कोर्टिसोल से मनुष्य में बेचैनी और तनाव में वृद्धि होती है। बहुत अधिक शोर शराबे में रक्तचाप बढ़ जाता है विशेष कर मस्तिष्क में ख़ून का दबाव बढ़ता है और थूक में कमी आ जाती है जिसके परिणाम स्वरूप मनुष्य का मुंह सूखने लगता है। उदाहरण स्वरूप अनुसंधानों से पता चलता है कि अगर मनुष्य लगातार आठ घंटे तक 70 डेसिबल से ज़्यादा के शोर-शराबे में रहे तो उसका रक्तचाप 5 से 10 मिली मीटर मर्क्यूरी बढ़ जाता है। ध्वनि प्रदूषण इसी तरह से गर्भपात का भी कारण बन सकता है। तेज़ शोर-शराबा, गर्भवती महिलाओं में तनाव का कारण बनता है जिससे बच्चेदानी की रगें सिकुड़ने लगती हैं जिनका काम भ्रूण तक ऑक्सीजन और खाद्य सामग्री पहुंचाना होता है। इन रगों के सिकुड़ने से अधिकांश नवजात बच्चे कम वज़न के साथ संसार में आते हैं।
ध्वनि प्रदूषण ने न केवल मनुष्यों को बल्कि पशुओं के जीवन को भी ख़तरे में डाल दिया है। प्रयोगशाला अनुसंधानों से पता चलता है कि 85 डेसिबल से अधिक की ध्वनि तरंगों से पशुओं की श्रवण शक्ति कम हो जाती है और वे अपने आस-पास की आवाज़ों और अन्य पशुओं की आवाज़ें नहीं सुन पाते। उदाहरण स्वरूप अनुसंधान से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि 95 डेसिबल से अधिक की आवाज़ वाली गाड़ियों का सामना करने के कारण कंगारू में अपने शिकारी अर्थात अजगर सांप से अपने फ़ासले को आंकने की शक्ति कम हो जाती है। जब कंगारू पूरी तरह से स्वस्थ हो और इंद्रियों को प्रभावित करने वाले किसी भी तत्व से दूर हो तो वह चालीस सेंटी मीटर की दूरी से अजगर सांप की उपस्थिति का आभास कर लेता है लेकिन जब उसे तेज़ आवाज़ की तरंगों का सामना हो तो फिर वह केवल दो सेंटी मीटर की दूरी से ही अजगर सांप की उपस्थिति का आभास कर पाता है। इस अनुसंधान के बाद तीन हफ़्ते का समय लगा कि कंगारू अपनी स्वाभाविक इंद्रियों को पुनः प्राप्त कर ले। अलबत्ता यह प्रयोग पिंजरे में किया गया था और स्पष्ट है कि अगर यही काम खुले में किया जाता तो कंगारू अपनी जान नहीं बचा पाता।
संभव है कि ध्वनि प्रदूषण का पशुओं की श्रवण व्यवस्था पर आभास योग्य प्रभाव न हो लेकिन यह उनके दिल की धड़कन बढ़ा कर उनकी ओर से कड़ी शारीरिक व मानसिक प्रतिक्रियाओं का कारण बन सकता है। प्रजनन में कमी और इसी तरह अपने जीवन स्थल को भूल जाना, पशुओं पर ध्वनि प्रदूषण के नकारात्मक प्रभावों में शामिल है। विभिन्न पशुओं पर किए गए अनुसंधानों से भी यह बात सिद्ध हुई है। उदाहरण स्वरूप पिंजरे में बंदरों पर किए गए अनुसंधानों से पता चला है कि आठ महीनों में औसत 85 डेसिबल आवाज़ वाले वातावरण में रहने से उनके रक्तचाप में 30 प्रतिशत की वृद्धि हो गई। इसी तरह ये आवाज़ें बंद करने और स्वाभाविक वातावरण में लौटने के एक महीने बाद तक उनके रक्तचाप में अस्थिरता जारी रहा और अपनी स्वाभाविक स्थिति पर नहीं लौटा।
एक अन्य प्रयोग ने भी, जो चूहों पर किया गया, यह दर्शाया कि ध्वनि प्रदूषण चूहों में तनाव में वृद्धि का कारण बनता है और उनके शरीर में विभिन्न प्रकार के रोगों के ख़तरे को बढ़ा देता है। औसतन 82 से 85 डेसिबल के ध्वनि प्रदूषण में हर दिन आठ घंटे रखने से व्यस्क चूहे में समस्याओं के समाधान की क्षमता कम हो गई और भ्रूण चूहे के वज़न में 66 प्रतिशत की कमी आई। पक्षियों के असमय पलायन, गर्भपात, कान से ख़ून निकलने, भूख न लगने, चिड़चिड़ाहट, दुधारू पशुओं के दूध में कमी और आयु का कम हो जाना पशुओं पर अत्यधिक शोर-शराबे के अन्य नकारात्मक प्रभाव हैं। अनुसंधानों से इसी तरह यह भी पता चला है कि शहरों में ध्वनि प्रदूषण ने पक्षियों की जनसंख्या पर भी बहुत ही नकारात्मक प्रभाव डाला है और इससे उनके व्यवहार में भी काफ़ी परिवर्तन आया है। ध्वनि प्रदूषण के कारण चमगादड़ों को अपना शिकार खोजने में कठिनाई होती है, मेंढक अपना जोड़ा मुश्किल से खोज पाता है और व्हेल मछलियों को आपस में संपर्क के लिए अधिक बड़ी फ़्रिक्वेंसियां इस्तेमाल करनी पड़ती हैं। अलबत्ता यह बात पूरी तरह से स्पष्ट है कि ध्वनि प्रदूषण से सिर्फ़ पशुओं को ही समस्या नहीं है।
बहुत से लोग सोचते हैं कि ध्वनि प्रदूषण का पेड़ों और वनस्पतियों पर कोई प्रभाव नहीं होता क्योंकि सभी को मालूम है कि उनमें पशुओं और मनुष्यों की तरह श्रवण शक्ति नहीं होती लेकिन नए अध्ययनों से पता चलता है कि ध्वनि प्रदूषण से पेड़ों पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। पशु बड़ी सरलता से शोर-शराबे वाले क्षेत्रों से निकल कर अपने जीवन का स्थान बदल सकते हैं लेकिन उन्हीं क्षेत्रों के पेड़, पशुओं की संख्या कम होने के नकारात्मक प्रभावों का सामना करते हैं। गहन अध्ययनों से पेड़ों पर इस प्रदूषण के प्रभावों को भली भांति महसूस किया जा सकता है। उदाहरण स्वरूप पक्षियों और पशुओं के जीवन स्थल के देवदार के पेड़ों की संख्या, इन पक्षियों और पशुओं के नए स्थानों की ओर पलायन कर जाने के कारण कम होने लगी है और इसकी सबसे बड़ी वजह ध्वनि प्रदूषण है।
यह ऐसी स्थिति में है कि जब विशेषज्ञों के अनुसार पेड़, ध्वनि प्रदूषण को कम करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। वे एक ढाल की तरह आवाज़ की तरंगों को बड़ी सीमा तक कम करते हैं और उनके पत्ते, आवाज़ को कम करने वाले तत्व के रूप में काम करते हैं। बहर हाल ध्वनि प्रदूषण, पर्यावरण के प्रदूषण का एक भूला हुआ पहलू है और इस संबंध में सूचनाएं कम होने के कारण अभी इसकी रोकथाम के लिए गंभीर क़दम नहीं उठाए गए हैं। आज वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि ध्वनि प्रदूषण भी पर्यावरण के लिए एक गंभीर ख़तरा है और विश्व समुदाय को इससे मुक़ाबले के लिए मैदान में आना चाहिए।