तकफ़ीरी आतंकवाद-50
हमने इस्लाम की महान हस्तियों की सिफ़ारिश के संबंध में तकफ़ीरियों के ग़लत विचार की समीक्षा की थी।
तकफ़ीरी सलफ़ी शिफ़ाअत अर्थात सिफ़ारिश को पूरी तरह रद्द करते हैं और इस विचार पर आस्था रखने वाले को नास्तिक कहते हैं। यह ऐसी हालत में है कि सिफ़ारिश के विषय पर विभिन्न इस्लामी मतों के बीच मूल रूप से मतभेद नहीं है। जैसा कि सुन्नी समुदाय के प्रतिष्ठित विद्वान अली बिन अहमद समहूदी ने अपनी किताब ‘वफ़ाउल वफ़ा’ में लिखा है, ईश्वर से दुआ करते समय पैग़म्बरे इस्लाम से सिफ़ारिश कराना, उनके जन्म से पहले, ज़िन्दगी में, मरने के बाद, बर्ज़ख़ के दौरान और क़यामत के दिन सही है। उसके बाद उन्होंने उमर बिन ख़त्ताब के हवाले से हज़रत आदम के पैग़म्बरे इस्लाम से सिफ़ारिश कराने की रवायत पेश की। इस रवायत में है, हज़रत आदम ने उन जानकारियों के आधार पर जो उन्हें भविष्य में पैग़म्बरे इस्लाम सलल्ल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के जन्म के बारे में थी, ईश्वर से यूं प्रार्थना की, “हे प्रभु मोहम्मद के हक़ की दुहाई देता हूं कि मुझे क्षमा कर दे।”
एक और विषय जिसके बारे में तकफ़ीरी वहाबियों ने बहुत ज़्यादा झूठ बोला और बहुत से सवाल उठाए हैं, वह महान हस्तियों की क़ब्र का दर्शन है। इस्लामी इतिहास और आम मुसलमानों में महापुरुषों की क़ब्रों का दर्शन अच्छा कर्म कहा गया है। सबसे पहले जिस व्यक्ति ने क़ब्रों की ज़ियारत को वर्जित कहा वह इब्ने तैमिया थे। वह क़ब्र के दर्शन के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम के हवाले से जो कथन आए हैं सबको कमज़ोर, जाली और अस्वीकार्य कहते थे। सऊदी अरब के पूर्व मुफ़्ती बिन बाज़ ने भी पैग़म्बरे इस्लाम और इस्लामी महापुरुषों की क़ब्रों के निकट हर प्रकार की दुआ, मनौती और क़ुर्बानी को मूर्ति, पेड़ और पत्थर के सामने प्रार्थना करने के समान मानते हुए इसे अनेकेश्वरवाद कहा है। इसी प्रकार वह महापुरुषों की क़ब्रों की ज़ियारत के लिए अपने वतन से सफ़र को बिद्अत कहते हैं। वह क़ब्र के दर्शन और पैग़म्बरे इस्लाम की सिफ़ारिश से प्रार्थना के ग़लत होने के बारे में पवित्र क़ुरआन की आयत का हवाला देते हैं, जिसमें ईश्वर कह रहा है, “जो भी ईश्वर के होते हुए किसी दूसरे पूज्य को पुकारे जिसके लिए उसके पास कोई प्रमाण नहीं है, तो बस उसका हिसाब उसके पालनहार के पास है। निःसंदेह इंकार करने वाले कभी मुक्ति नहीं पाएंगे।”
तकफ़ीरी गुट पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के कथन व रिवायत का ग़लत अर्थ निकालते हैं और उसी अर्थ को आधार बनाकर क़ब्र के दर्शन को अनेकेश्वरवाद का प्रतीक कहते हैं और क़ब्र के ध्वस्त करने को अनिवार्य मानते हैं। दाइश का पूर्व सरग़ना अबु उमर अलबग़दादी इस आतंकवादी गुट की आस्था को 2007 में 19 अनुच्छेदों में बयान करता है कि इसके पहले अनुच्छेद में क़ब्र और पुतलों को ध्वस्त करने का उल्लेख है। पहले अनुच्छेद में यूं उल्लेख है, “हम अनेकेश्वरवाद के सभी प्रतीकों को ध्वस्त करने और सभी उपकरणों पर रोक लगाने में आस्था रखते हैं। उस सही रिवायत के अनुसार जो मुस्लिम ने अबुल हय्याज असदी के हवाले से बयान की है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने हज़रत अली से फ़रमाया, तुम्हें उस चीज़ की ओर भेज रहा हूं जिसके लिए मुझे पैग़म्बर बनाया गया है। यह कि सभी पुतलों व मूर्तियों को ध्वस्त करो और उन सभी क़ब्रों को समतल कर दो जो ऊंची हैं।”
दाइश पैग़म्बरों, महापुरुषों, पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजन की औलाद और सहाबियों की ज़रीह को उजाड़ रहा है। इसी प्रकार दाइश कुछ पैग़म्बरों की क़ब्रों व उनसे विशेष स्थलों, विभिन्न धार्मिक हस्तियों की क़ब्रों को ध्वस्त करने के साथ साथ अपने अतिग्रहित इलाक़ों में पुरातात्विक अवशेषों व सांस्कृतिक धरोहरों को ध्वस्त कर रहा है। आतंकवादी गुट नुस्रा फ़्रंट ने दमिश्क़ के उपनगरीय इलाक़े अदरा में पैग़म्बरे इस्लाम के सहाबी हुज्र बिन उदय के रौज़े को ध्वस्त और उनकी क़ब्र खोदने के बाद उनके शव को अज्ञात स्थान पर पहुंचा दिया। इसी तरह दाइश ने एक अन्य अपराध में उत्तरी सीरिया के रक़्क़ा शहर में पैग़म्बरे इस्लाम के सहाबी अम्मार यासिर और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के वफ़ादार साथी उवैस क़रनी के मज़ार को ध्वस्त कर दिया। सिफ़्फ़ीन जंग के शहीदों का रौज़ा रक़्क़ा शहर के दक्षिण-पूर्व में फ़ुरात नदी के तट से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस दर्शन स्थल पर बहुत ही शानदार इमारत बनी थी जहां सिफ़्फ़ीन जंग के तीन शहीद अम्मार यासिर, उवैस क़रनी और उबै बिन क़ैस की क़ब़्रें हैं। ये लोग 37 हिजरी क़मरी में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की तरफ़ से मोआविया के लश्कर से लड़ते हुए शहीद हुए। दाइश गुट ने इसी प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम के सहाबी ‘वाबिसा बिन मअबद अलअसदी’ के रौज़े को ध्वस्त कर दिया जो सीरिया की प्राचीन धरोहरों में थी। इस्लाम की महान हस्तियों के रौज़ों का तकफ़ीरी गुटों के हाथों ध्वस्त होना सिर्फ़ दाइश और नुस्रा फ़्रंट तक सीमित नहीं है।
लीबिया में क़ज़्ज़ाफ़ी के पतन के बाद सलफ़ी तकफ़ीरी गुटों में ख़ास तौर पर अंसारुश्शरीआ नामक गुट ने पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के पोतों और पैग़म्बरे इस्लाम के महान सहाबी की क़ब्र ध्वस्त कर दी। जैसा कि तकफ़ीरियों ने इमाम हसन अलैहिस्सलाम के पोते अब्दुस्सलाम अलअसमर का रौज़ा और मस्जिद को उजाड़ दिया। अब्दुस्सलाम अलअसमर के रौज़े के बग़ल में बहुत बड़ी लाइब्रेरी थी जिसमें हज़ारों साल के इतिहास से जुड़े दस्तावेज़ और शियों की अहम किताबें मौजूद थीं। लीबिया के संस्कृति मंत्री के अनुसार, यह लीबिया की सबसे बड़ी लाइब्रेरी समझी जाती थी जिसमें किताब निकाल कर आग लगा दी गयी।
सुन्नी समुदाय के चारों मतों के धर्मगुरु पैग़म्बरे इस्लाम के रौज़े के दर्शन को सदकर्म मानते हैं। किताब “अलफ़िक़्ह अलल मज़ाहेबिल अरबआ” में यूं उल्लेख है, पैग़म्बरे इस्लाम की क़ब्र का दर्शन ग़ैर अनिवार्य कर्म में सबसे ज़्यादा पुन्य रखता है और इस बारे में बहुत से कथन हैं। तकफ़ीरी वहाबियों ने अपनी किताबों की कुछ रवायतों का हवाला दिया है कि उन रवायतों के वर्णनकर्ताओं के क्रम में गड़बड़ी है या उन रवायतों का ग़लत अर्थ निकाला जा रहा है। तकफ़ीरी वहाबियों का यह ग़लत विचार है कि पैग़म्बरे इस्लाम सहित इस्लाम की बड़ी हस्तियों की क़ब्रों का दर्शन एकेश्वरवाद से समन्वित नहीं है बल्कि इसमें अनेकेश्वरवाद है। तकफ़ीरी वहाबी इतना बड़ा झूठ बोलते हैं कि क़ब्र का दर्शन करना उसकी पूजा करने जैसा है। पवित्र क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों से क़ब्र का दर्शन करना साबित होता है। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के अहज़ाब नामक सूरे की आयत नंबर 56 में एक महत्वपूर्ण बिन्दु का उल्लेख है। इस आयत में आया है, “जान लो कि ईश्वर और फ़रिश्ते पैग़म्बर पर सलाम भेजते हैं तो हे ईमान लाने वालो! तुम भी उन पर सलाम भेजो और उनके आदेश के सामने नतमस्तक रहो।” इस आयत से यह अर्थ निकलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम के इस नश्वर संसार से चले जाने के बावजूद ईश्वर और उसके फ़रिश्ते उन पर सलाम भेजते हैं। ईश्वर ने मोमिनों से भी कहा है कि वह पैग़म्बर पर सलाम भेजते रहें। इसका अर्थ यह है कि वहाबियों व तकफ़ीरियों के दृष्टिकोण के विपरीत पैग़म्बरे इस्लाम तक ईश्वर, फ़रिश्तों और मोमिनों का सलाम पहुंचता है। इस प्रकार यह नतीजा निकला कि पैग़म्बर पर सलाम भेजना निरर्थक नहीं है बल्कि इसके इतने फ़ायदे हैं कि तत्वदर्शी ईश्वर इस पर बल दे रहा है।
पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं के आधार पर पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों से श्रद्धा हम पर अनिवार्य है। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के शूरा नामक सूरे की आयत नंबर 23 में ईश्वर कह रहा है, “हे पैग़म्बर कह दीजिए कि हम तुमसे पैग़म्बरी के बदले में कोई बदला नहीं चाहते सिर्फ़ यह कि हमारे निकटवर्तियों से प्रेम करो।” रौज़े का दर्शन करना श्रद्धा का चिन्ह है और इस बात में शक नहीं कि पैग़म्बरे इस्लाम के निकटवर्तियों से श्रद्धा का एक चिन्ह उनके रौज़ों का दर्शन है। इस तरह इंसान पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करता है और ख़ुद को उनके मार्ग पर चलने के लिए तय्यार करता है। इंसान पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के रौज़े के दर्शन के ज़रिए उनकी करामात का साक्षात अनुभव करता है और नैतिक गुणों की प्राप्ति, न्याय और सत्य के मार्ग पर चलने के लिए आदर्श बनाता है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम का कथन है, “क़ब्रों का दर्शन करो कि इससे तुम्हें परलोक की याद आएगी।” मुसलिम ने अपनी किताब में सही कथन में हज़रत आयशा के हवाले से बयान किया है कि पैग़म्बरे इस्लाम रात के अंत में ‘बक़ी’ जाते और ‘बक़ी’ में दफ़्न लोगों को सलाम करते थे। सुन्नी समुदाय की धार्मिक किताबों में क़ब्र के दर्शन को सदकर्म बताया गया है। इसके अलावा ख़ुद पैग़म्बरे इस्लाम ने लोगों को अपने रौज़े के दर्शन के लिए पहले से प्रेरित करते हुए कहा था, “जिसने मेरी मौत के बाद मेरा दर्शन किया वह उसकी तरह है जिसने अपनी जीवन में मेरा दर्शन किया है।” इस्लाम की महान हस्तियों की क़ब्र के दर्शन के सद्कर्म होने के बादे में बहुत सी रवायते मौजूद हैं जिससे साबित होता है कि क़ब्र के दर्शन के संबंध में तकफ़ीरी गुटों का विचार ग़लत है।