तकफ़ीरी आतंकवाद-8
हमने बताया था कि सलफ़ी मत में अनुसरण का क्या अर्थ है।
हमने बताया था कि सलफ़ी मत में अनुसरण का क्या अर्थ है। अनुसरण के बारे में दो विचार पाए जाते हैं। इसका एक अर्थ तो यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम के काल में तथा उनके बाद जो सहाबी गुज़रे हैं हर क्षेत्र में और हर काम में उनका अनुसरण किया जाए तथा इसमें किसी भी प्रकार के बदलाव को दिशाभेद और हराम माना जाए। यदि अनुसरण का यह अर्थ लिया जाता है तो फिर बड़ी समस्याएं पेश आएंगी। ख़ुद सहाबियों ने जो कार्यशैली अपनाई है वह अनुसरण के इस अर्थ के विपरीत है क्योंकि वह स्वयं भी पहले गुज़र चुके सहाबियों का इस प्रकार अनुसरण नहीं करते थे। इस अंधे अनुसरण के बजाए अनुसरण की एक और शैली भी मौजूद है। यह इस्लामी सिद्धांतों और नियमों का अनुसरण है। इस्लाम धर्म ने इसके लिए तरीक़ा निर्धारित कर दिया है। यदि अनुसरण का अर्थ दृष्टिगत है तो फिर यह पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों का अनुसरण नहीं है जिन्हें सलफ़ कहा जाता है। क्योंकि अनुसरण की यह शैली वास्तव में इस्लाम धर्म और उसके सिद्धांतों के अनुसरण की शैली है जबकि सहाबियों का तौर तरीक़ा इन्हीं सिद्धातों का व्यवहारिक विवरण मात्र है।
किसी भी मत और विचारधारा की समीक्षा के संबंध में पहला क़दम वह शैली जिसे वह मत हक़ीक़त तक पहुंचने और तथ्यों को समझने के लिए प्रयोग करता है। इसका यह अर्थ है कि अमुक मत ने धार्मिक तथ्यों तक पहुंचने के लिए उस शैली को मान्यता दी हो। इसके लिए चार प्रकार की शैलियां हो सकती हैं। हक़ीक़त के ज्ञान के लिए पहला रास्ता है बुद्धि। बुद्धि के कारण ही मनुष्य अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है। इंसान अक़्ल की मदद से बहुत से तथ्यों को समझ पाता है। धार्मिक पुस्तकों में बुद्धि को हक़ीक़त की पहिचान के माध्यम के रूप में मान्यता दी गई है। क़ुरआन ने बार बार बुद्धि से काम लेने और चिंतन करने पर बल दिया है। अक़्ल का शब्द अलग अलग रूपों में क़ुरआन में 43 स्थानों पर दोहराया गया है। क़ुरआन ख़ुद भी कभी हक़ीक़त को समझाने के लिए अक़्ल का प्रयोग करने का निमंत्रण देता है। जैसे एकेश्वरवाद को समझाने के लिए सूरए अंबिया की आयत क्रमांक 22 में कहा गया है कि अगर आकाश और ज़मीन में दो ईश्वर होते तो यह विनष्ट हो जाते। कुछ आयतें चिंतन मनन की बात करती हैं जैसे सूरए ज़ोमर की आयत संख्या 17 और 18 में ईश्वर ने कहा है कि हे पैग़म्बर उन बंदों को शूभसूचना दे दीजिए जो बातें सुनते हैं और फिर उनमें बेहतरीन बात का अनुसरण करते हैं। वह मार्गदर्शित और बुद्धिमान लोग हैं। कुछ आयतों में बुद्धि की बात न मानने के बुरे अंजाम की ओर से सचेत किया गया है। सूरए मुल्क की आयत संख्या 10 में उन लोगों की बात की गई है जो नरक में डाल दिए जाएंगे और वहां कहेंगे कि यदि हमने सुना होता या चिंतन मनन किया होता तो जहन्नम में न डाले जाते।
असल मे इस्लाम की दृष्टि में बुद्धि को बहुत अधिक महत्व दिया जाना बहुत स्पष्ट है। इस संदर्भ में मतभेद वहां पर शुरू होता है जहां बुद्धि को प्रयोग करने की सीमा की बात होती है और यह कि बुद्धि के फ़ैसलों पर कहां तक भरोसा किया जा सकता है। इस बिंदु पर पहुंच कर अलग अलग मतों ने अलग अलग विचार पेश किए हैं कुछ मत अति का शिकार दिखाई देते हैं। एक ओर मोअतज़ेला नामक मत यह कहता है कि धार्मिक तथ्यों को समझने और परखने का एक ही मार्ग अक़्ल है। हालांकि धर्म के कई आयाम हैं। जहां एक आयाम उपासना से संबंधित है वहीं दूसरा आयाम दर्शन और तर्क वितर्क से जुड़ा हुआ है। बंदगी और अलौकिक चीज़ों वाला आयाम केवल बुद्धि के माध्यम से नहीं समझा जा सकता। जैसे तीस दिन रोज़ा रखना। ज़ोहर की नमाज़ का चार रकअत होना आदि। दूसरी ओर एक मत एसा है जो कहता है कि अक़्ल धार्मिक मामलों में बिल्कुल भी भरोसेमंद नहीं है। यह मत भी क़ुरआन की आयतों में दी जाने वाली शिक्षाओं से टकराव रखता है। इस्लाम में यह कहा गया है कि बुद्धि के प्रयोग और उसके फ़ैसलों पर भरोसा करने के मामले में मध्यमार्गी बनना चाहिए। अर्थात धर्म के अलग अलग विषयों की दर्जाबंदी करने की ज़रूरत है। जहां अक़ीदे और मूल सिद्धांतों की बात है तो उनके संदर्भ में बुद्धि का प्रयोग ज़रूरी है जबकि धर्म के कुछ आयाम एसे हैं जिन्हें अक़्ल नहीं समझ सकती। उनके संदर्भ में बस यह देखना होगा कि ईश्वर ने और उसके दूत ने क्या कहा है और किस प्रकार अंजाम देने का आदेश दिया है। इसका उदाहरण बहुत से धार्मिक आदेश हैं प्रलय के दिन पेश आने वाली घटनाएं हैं।
बुद्धि के बाद दूसरा रास्ता यही है कि ईश्वरीय दूत की जीवनी को देखा जाए और उसी के अनुसार अमल किया जाए। कुछ धार्मिक मामले एसे हैं जो बुद्धि से साबित नहीं किए जा सकते। जैसे पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों की जीवनशैली को आने वाली पीढ़ियों तक स्थानान्तरित करना है। इसके लिए लिखना और बयान करना ही एकमात्र रास्ता है। पैग़म्बरे इस्लाम की जीवनी और कथनों को स्थानान्तरित करने का रास्ता यही है। इसे भी सभी इस्लामी मत मानते हैं लेकिन कहां तक इसे मान्यता दी जाए और इसकी क्या शर्तें हो इस बारे में मतभेद है। पैग़म्बरे इस्लाम की जीवनशैली को बयान करने के संबंध में दो शैलियां हैं एक शैली यह है कि कोई एक व्यक्ति जीवनशैली या किसी घटना को बयान करे और दूसरा रास्ता यह है कि बहुत सारे लोग एक घटना को बयान करें।
धार्मिक तथ्यों को समझने का तीसरा रास्ता आध्यात्मिक है। यह रास्ता सबसे विश्वस्नीय है लेकिन सबके लिए इस उच्च चरण तक पहंचना आसान नहीं है। इसके लिए आत्मा की पवित्रता बहुत ज़रूरी है। इस शैली को प्राप्त करने वाले लोगों का कहना है कि बुद्धि बहुत से तथ्यों को समझने में असमर्थ है जबकि कुछ का कहना है कि बुद्धि केवल एक सीमा तक ही इन मामलों में काम कर पाती है। बहरहाल यह शैली केवल उस व्यक्ति के लिए उपयोगी होती है जो आत्मा की पवित्रता के कारण उस महान स्थान तक पहुंच चुका है। यही कारण है कि यह रास्ता औलिया से विशेष है। तथ्यों को जानने का चौथा रास्ता है प्रयोग और परीक्षण। यह रास्ता भौतिक चीज़ों में काम आता है जिन्हें इंद्रियों से महसूस किया जा सकता है। पश्चिमी वैज्ञानिकों ने सामाजिक मामलों के लिए भी प्रयोग और परीक्षण की शैली पर बहुत काम किया है। लेकिन सच्चाई यह है कि यह शैली केवल फ़िज़िक्स और केमिस्ट्री में ही परिणामदायक साबित हुई है। आध्यात्मिक और अलौकिक विषयों में इसकी उपयोगिता नहीं है। मुस्लिम विद्वानों ने धार्मिक विषयों को समझने और परखने के लिए वली और अल्लाह के ख़ास बंदों की आध्यात्मिक शैली के अलावा जो उन्हीं विशेष बंदों तक सीमित रहती है, दो और तरीक़े निर्धारित किए हैं। यह दोनों तरीक़े एक दूसरे के पूरक भी हैं और एक से दूसरे का सुधार भी होता रहता है। इन दोनों में किस तरीक़े को प्राथमिकता हासिल है और इन तरीक़ों की सीमाएं क्या हैं इस बारे में मुसलमानों में अलग अलग विचार पाए जाते हैं। एक तरीक़ा अक़्ल का है और दूसरा तरीक़ा पैग़म्बरे इस्लाम औ उनके परिजनों के कथनों और उनकी जीवन शैली के अनुसरण का है। इन दोनों तरीक़ों की मदद से तथ्यों को समझा जाता है। सलफ़ी विचारधारा के लोग अक़्ल को पूरी तरह ख़ारिज कर देते हैं। उनका कहना है कि धार्मिक मामलों में केवल हदीसों का ही सहारा लेना चाहिए और उसी पर अमल करना चाहिए। सलफ़ी मत की यही चीज़ दूसरे मुसलमानों से अलग है कि वह हदीस और रवायत के मामले में अक़्ल का प्रयोग किए जाने के विरोधी हैं। वह यह भी नहीं देखना चाहते कि जो हदीस सामने है उसे नक्ल करने वाले इतिहासकारों में कौन लोग हैं। कहीं कोई एसा व्यक्ति तो नहीं है जो विश्वसनीय न हो।
सलफ़ी विचार धारा के बारे में एक महत्वपूर्ण बहस यही है कि वह तथ्यों को समझने के लिए जिस शैली का प्रयोग करते हैं उस शैली की कितनी विश्वसनीयता है। उस शैली में ग़लतियों की संभावना कितनी है? तथ्यों के संबंध में सलफ़ी मत के स्रोत क्या हैं? अपनी इस शैली की मदद से सलफ़ी किस सीमा तक सफल हो सके हैं? दूसरी बहस इस संबंध में यह है कि जो तरीक़ा सलफ़ी मत ने तथ्यों को समझने और प्राप्त करने का अपनाया है उस बारे में इस्लाम क्या कहता है? यह बहस इस लिए ज़रूरी है कि ज्ञान प्राप्ति और तथ्यों को समझने की अलग अलग शैलियों के अलग अलग परिणाम और गंतव्य होते हैं। उदाहरण स्वरूप अधिक केवल आंखों से दुनिया को देखा जाए तो इंसान किसी एक परिणाम तक पहुंचेगा लेकिन यदि उसने मन और बुद्धि का प्रयोग किया चिंतन मनन का सहारा लिया तो इंसान कुछ और परिणामों तक पहुंचेगा। तथ्यों को समझने के लिए जिस प्रकार की शैली प्रयोग की जाती उसी प्रवृत्ति है के परिणाम भी सामने आते हैं।