हम और पर्यावरण-30
धरती की सबसे विनाशकारी समस्या है ग़रीबी जिसके अनेक आयाम हैं।
इसके नुक़सानों का कभी न ख़त्म होने वाला सिलिसला सारी दुनिया में इंसानों और पर्यावरण को प्रभावित कर रहा है। अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण व विकास आयोग ने इस बारे में कहा है कि ग़रीबी दुनिया के पर्यावरण संबंधी कठिनाइयों में वृद्धि कर रही है। इस लिए जब हम पर्यावरण की मुशकिलों की समीक्षा करते हैं तो ज़रूरी है कि ग़रीबी और आर्थिक विषमता के कारणों की समीक्षा भी हमें ज़रूर करनी चाहिए इसके बग़ैर पर्यावरण की समस्यों का समाधान संभव नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्टाकहोम में होने वाली कान्फ़्रेन्स में पहली बार ग़रीबी और पर्यावरण के विनाश के संबंधों पर चर्चा हुई। यह सम्मेलन वर्ष 1974 में हुआ था। भारत की तत्काली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस सम्मेलन में पहली बार यह कहा कि पर्यावरण का संबंध सबसे पहले चरण में ग़रीबी और विकासहीनता से है। उन्होंने कहा था कि जनसंख्या में वृद्धि और ज़मीन की कमी से ग़रीबों पर बहुत अधिक दबाव पड़ता है और वह शहरों के आस पास के क्षेत्रों तथा गावों में वृक्षों को काटकर खेती की ज़मीन बढ़ाते हैं जिसके चलते संसाधन भी नष्ट होते हैं और दीर्घकाल में ग़रीबी भी बढ़ती है।
तथ्यों से इस विचार की पुष्टि भी होती है। इस समय तेज़ी से जनसंख्या में वृद्धि, भोगवादी समाजों का बढ़ना देशों की अर्थ व्यवस्थाओं का बोढझ लगातार बढ़ाता जा रहा है। इन परिस्थितियों के कारण लघुकाल में एक समस्या पर्यावरण को पहुंचने वाला नुक़सान है और दूसरी ओर इसके चलते बहुत से आर्थिक व सामाजिक आयाम सिमटते भी जा रहे हैं। हालांकि पर्यावरण को नुक़सान पहुंचना और उसके दुष्परिणाम जैसे ग़रीबी में वृद्धि ऐसी समस्याएं हैं जो दुनिया में हर जगह नज़र आती हैं। इन्हें आद्योगिक व विकसित देशों में भी देखा जा रहा है और तीसरी दुनिया के देशों में भी यह नज़र आती हैं लेकिन तीसरी दुनिया के देशों में यह प्रक्रिया तेज़ी से बढ़ रही है।
वर्ष 2014 में संयुक्त राष्ट्र संघ के विकास कार्यक्रम की ओर से पेश की गई रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में ग़रीबी में कमी तो आई है लेकिन आज भी दुनिया की आबादी का एक तिहाई हिस्सा अर्थात 2 अरब बीस करोड़ लोग दुनिया के 91 देशों में ग़रीबी झेल रहे हैं और 80 करोड़ लोग ग़रीबी की कगार पर हैं। अधिकतर ग़रीब उन क्षेत्रों में रहते हैं जहां का पर्यावरण किसी वजह से तबाह हो गया है। कुछ स्थानों पर तो यह लोग पर्यावरण को नुक़सान पहुंचने की पक्रिया का भाग भी समझते जाते हैं। उनके पास अपना जीवन चलाने के लिए संसाधनों को निरंकुशता से प्रयोग करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। इस तरह देखा जाए तो पर्यावरण के विनाश और ग़रीबी में दोतरफ़ा संबंध जिसे मजबूरी में पर्यावरण का विनाश कहा जाता है। आज इस बुनियादी कारण ने पर्यावरण को नुक़सान पहुंचने की प्रक्रिया को बहुत तेज़ कर दिया है।
ग़रीबी के चलते जंगलों के पेड़ कटते हैं, चरागाहों का निरंकुशता से प्रयोग, खेती की ज़मीनों का अलग उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल, ऊर्जा के स्रोतों तक पहुंच में असमानता और सूखे का अधिक से अधिक भयंकर होना साबित करता है कि ग़रीबी की इस पूरी प्रक्रिया में भूमिका है और इन समस्याओं का सबसे अधिक नुक़सान ग़रीबों को पहुंच रहा है जबकि ग़रीब तबक़ा इन समस्याओं से जूझते हुए पर्यावरण के लिए नई समस्याएं पैदा कर देता है। गरीबों के पास अपना जीवन जारी रखने के लिए संसाधनों के निरंकुश प्रयोग के अलावा कोई रास्ता नहीं रहता। जैसे कि बहुत से क्षेत्रों में ईंधन की ज़रूरत के चलते मजबूरन पेड़ काटे जाते हैं और वह जड़े खोदी जाती हैं जो मिट्टी की क्षरण को रोकती हैं।
इस समय ऊर्जा के अनेक स्रोतों के विकसित हो जाने के बाद भी बहुत से ग़रीब और विकासशील देशों में लोग ख़ुद को जाड़े से बचाने और खाना पकाने के लिए लकड़ी का प्रयोग करते हैं। इससे पर्यावरण को नुक़सान पहुंचता है। जैसे कि नेपाल में प्रयोग की जाने वाली ऊर्जा का 97 प्रतिशत भाग लकड़ी जलाकर प्राप्त किया जाता है। इसी तरह इथोपिया, बोरकीनाफ़ासो, जैसे देश लकड़ी जलाकर अपनी ऊर्जा की आवश्कता का 90 प्रतिशत भाग पूरा करते हैं। इस लिए ऊर्जा के स्रोतों तक समान पहुंच के अभाव के कारण बहुत से ग़रीब लोगों के पास कोई अन्य विकल्प नहीं रहता और वह बुनियादी संसाधनों को ख़र्च करने प मजबूर होते हैं हालांकि उनका भविष्य का जीवन इन्हीं संसाधनों पर टिका हुआ है। इसी तरह दुनिया के देशों में अल्पसंख्यकों के लिए जो विषम परिस्थितियां होती हैं उनके चलते भी यह तबक़ा संसाधनों के अतार्किक प्रयोग पर विवश हो जाता है और इस तरह यह संसाधन बर्बाद होते हैं तथा पर्यावरण को नुक़सान पहुंचता है।
पर्यावरण को नुक़सान पहुंचने की एक और बड़ी वजह सूचनाओं की कमी है। विशेष रूप से ग़रीब इलाक़ों में पर्यावरण की रक्षा के बारे में आवश्यक जानकारियों के अभाव के कारण लोगों को ज़मीन में सही प्रकार से हल चलाने और खेती करने के सिद्धातों की जानकारी नहीं है। नतीजे में मिट्टी का क्षरण होने लगता है और मिट्टी बह जाती है। यूरिया खाद के बहुत अधिक प्रयोग के कारण भी पर्यावरण को नुक़सान पहुंचता है। पर्यावरण प्रेमी स्वभाव न होने के कारण भी पर्यावरण को नुक़सान पहुंचता है। इस संबंध में कूड़े को सही प्रकार से ठिकाने लगाने के बजाए इधर उधर डाल दिए जाने की ओर संकेत किया जा सकता है।
जैसा कि हमने बताया ग़रीबी और पर्यावरण में दो तरफ़ा संबंध है। अर्थात ग़रीबी के कारण पर्यावरण को नुक़सान पहुचता है और पर्यावरण को पहुंचने वाले नुक़सान से समाजों में ग़रीबी बढ़ती है। अंतर्राष्ट्रीय शोधों में भी यह बात सामने आई है कि पर्यावरण तथा जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सबसे कठोर प्रभाव ग़रीबों की ज़िंदगी पर पड़ता है। वर्ष 2014 में जलवायु परिवर्तन संस्था आईपीसीसी ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाली समस्याओं का ग़रीब तबक़े के जीवन पर विनाशकारी प्रभाव पड़ रहा है। इसी संबंध में सीरिया में पर्यावरण के संकट तथा इस देश में बढ़ती अशांति पर इसके गहरे प्रभावों का अध्ययन भी विचार योग्य है। कुछ टीकाकारों का मानना है कि पर्यावरण की चुनौतियों तथा इनके परिणाम स्वरूप सीरिया में हालिया शताब्दियों के भयानक सूखे के कारण जो इस देश में फैली अशांति के समय पैदा हुआ है, किसानों और पशुपालन करने वालों में भुखमरी फैल गई है। सीरिया को वर्ष 2006 से 2011 के बीच कई शताब्दियों के सबसे भयानक सूखे का सामना करना पड़ा। रिपोर्टों के अनुसार इस अवधि में सीरिया की 60 प्रतिशत उपजाऊ भूमि तबाह हो गई। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुमान के अनुसार वर्ष 2011 में पशुपालन करने वाले अपने 85 प्रतिशत पशु गंवा बैठे। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी एक अन्य रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि बीस लाख से अधिक सीरियाई नागरिक सूखे के कारण पूरी तरह ग़रीबी के चंगुल में फंस गए हैं।
पर्यावरण संबंधी बहसों में ग़रीबी और पर्यावरण समस्या के बीच संबंध की बात इतनी अधिक होती है कि बहुत से विशेषज्ञों को ग़लत फ़हमी होने लगी है और वह अपनी रिपोर्टों में पर्यावरण को पहुंचने वाले नुक़सान के लिए पूरी तरह ग़रीबों को ज़िम्मेदार ठहराने लगते हैं। लेकिन इस बिंदु पर ध्यान देना ज़रूरी है कि ग़रीबी और पर्यावरण के संबंध को स्वीकार करने के साथ ही ग़रीबों को ही पर्यावरण की समस्याओं का ज़िम्मेदार मान लेना तथा अन्य कारकों को नज़र अंदाज़ कर देना बहुत बड़ी भूल है। यदि यह भूल में पड़े रहे तो कभी भी पर्यावरण की रक्षा तथा ग़रीबी उन्मूलन के लिए सही रणनीति नहीं तैयार हो पाएगी। इस संबंध में असमानता, ग़लत राजनैतिक ढांचे, प्रबंधन की समस्याओं, प्रबंधन के ग़लत तरीक़ों, बाज़ार की कमियों, पर्यावरण संसाधनों के प्रयोग में स्थानीय समाजों की भागीदारी और भूमिका की अनदेखी की ओर संकेत किया जा सकता है। यह कहना चाहिए कि ग़रीबी अन्य सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारकों के साथ मिलकर पर्यावरण पर विनाशकारी प्रभाव डालती है यदि इन अन्य कारकों को ध्यान में न रखा गया तो ग़लत निष्कर्ष निकालने और ग़लत उपाय अपनाए जाने की समस्या उत्पन्न हो जाएगी।