Apr १२, २०१७ १२:५३ Asia/Kolkata

विश्व बारबार जिस चीज़ का साक्षी रहा है उनमें से एक युद्ध हैं जो शांति, सुरक्षा और न्याय स्थापित करने के नाम पर हुए हैं।

इन युद्धों में प्रायः मरने  और घायल होने वाले सैनिकों व असैनिकों की संख्या देखकर, इसी प्रकार नगरों और गांवों की तबाही और लोगों की अर्थ व्यवस्था के खराब व नष्ट होने को देखकर इस बात का अनुमान लगाया जाता है कि इस युद्ध से कितना नुकसान हुआ है किन्तु इस बारे में कोई रिपोर्ट प्रकाशित नहीं होती है कि युद्धों के दिनों में यहां तक कि युद्ध समाप्त होने के वर्षों बाद भी इन युद्धों से पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ते हैं। समस्त युद्धों में अधिकांशतः पर्यावरण और प्राकृतिक स्रोतों की अनदेखी की जाती है और इसी कारण पर्यावरण प्रायः युद्ध में भुला दिये गये भेंट चढ़ने वाले हैं। यह ऐसी स्थिति में है जब मौजूद प्रमाण इस बात के सूचक हैं कि युद्धग्रस्त क्षेत्रों के लोग युद्ध समाप्त हो जाने के वर्षों बाद भी युद्ध के कारण पर्यावरण को जो नुकसान पहुंचता है उसकी कीमत चुकाते हैं। शांति व पर्यावरण संस्था ने जो रिपोर्ट प्रकाशित की है उसके आधार पर युद्ध और हिंसा के कारण पर्यावरण को जो क्षति पहुंची है उसकी वजह से आज स्वास्थ्य, रोज़गार और सुरक्षा अधिकांश देशों के लिए चुनौती बनी हुई है।

आज सभी इस बात को स्वीकार करते हैं कि पर्यावरण पर युद्धों का पड़ने वाला दुष्परिणाम हर दूसरे कारण से अधिक खतरनाक है।  क्योंकि युद्धों में दोनों पक्षों में आघात पहुंचाने, जीत और प्रतिशोध लेने की भावना अधिक होती है जो दोनों पक्षों द्वारा हर प्रकार के मानवीय सिद्धांतों के भुला दिये जाने का कारण बनती है, निर्दोष लोगों की जिन्दगी खतरे में पड़ जाती है और पर्यावरण को भारी क्षति पहुंचती है। आज युद्धों में खतरनाक बमों और रासायनिक गैसों के प्रयोग के कारण इंसान की ज़िन्दगी के वातावरण को खतरनाक प्रदूषणों का सामना है। आम पर विशेषज्ञों के अनुसार पर्यावरण पर युद्ध के पड़ने वाले दुष्परिणामों को चार भागों में बांटा जा सकता है। जीवन स्थली का तबाह हो जाना, बेघर होना, लोगों का दूसरे स्थानों पर शरण लेना, जानवरों व वनस्पतियों की प्रजातियों का समाप्त हो जाना और नगरों की मूल संरचनाओं का तबाह हो जाना।

पर्यावरण पर युद्ध के जो सीधे प्रभाव पड़ते हैं उसके अलावा बहुत अधिक अप्रत्यक्ष प्रभाव भी पड़ते हैं जो युद्ध के समय बिल्कुल दिखाई नहीं पड़ते हैं।

बारुदी सुरंग प्रयोग न करने के अंतरराष्ट्रीय समझौते ने अपनी रिपोर्ट में घोषणा की है कि अफगानिस्तान, कंबोडिया, बोस्निया हिर्जोगोविना और अफ्रीका महाद्वीप जैसे युद्धग्रस्त क्षेत्रों सहित समूचे विश्व में दसियों लाख टन विस्फोटक पदार्थ युद्ध के काल से अब तक मौजूद हैं जिसने युद्ध के वर्षों बाद भी लोगों के जीवन को दूभर बना रखा है और प्रतिवर्ष विभिन्न रूपों में बहुत से निर्दोष लोग उनके लक्ष्य बनते हैं और पर्यावरण को अपूर्णीय क्षति पहुंचती है।

दूसरी ओर राष्ट्रसंघ की ओर से प्रकाशित होने वाली रिपोर्टों के आधार पर केवल 20वीं शताब्दी के अंतिम दशक में विश्व में 118 सशस्त्र झड़पें और लड़ाइयां हुई हैं जिसके परिणाम में 60 लाख लोग बेघर हो गये और लोगों एवं पर्यावरण पर बहुत अधिक नकारात्मक प्रभाव पड़े। पलायन,संक्रामक बीमारियों में वृद्धि और जल के कुप्रबंधन के कारण अकाल पड़ जाने को सीमा पार युद्ध के दुष्प्रभाव को नमूने के रूप में देखा जा सकता है।

घरेलू युद्ध का एक साधारण और विनाशकारी प्रभाव उन लोगों का बेघर हो जाना है जो हिंसा होने और सुरक्षा न होने के कारण फरार करते हैं। बड़े पैमाने पर लोगों का स्थानांतरण न केवल लोगों की परेशानियों और आर्थिक समस्याओं का कारण बनता है बल्कि इससे पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचता है विशेषकर शुष्क व खेती न होने वाले या उन क्षेत्रों में जो पर्यावरण की दृष्टि से कम दर्जा रखते हैं।

वर्ष 2003 में सूडान के दारफोर क्षेत्र में 20 लाख से अधिक लोगों का बेघर हो जाना धरती के मरुस्थल बन जाने, मिट्टी की गुणवत्ता के कम हो जाने और शरणार्थी शिविरों के आस- पास के भूमिगत जलस्रोतों से सीमा से अधिक लाभ उठाये जाने का कारण बना। सीरिया में हालिया वर्षों में होने वाली लड़ाई बहुत सी खेतीहर भूमियों के नष्ट होने और मरुस्थलों के अधिक होने कारण बनी है। ज्ञात रहे कि सीरिया की लड़ाई में अब तक लाखों लोग बेघर हो चुके हैं।

20वीं शताब्दी के अंतिम और 21वीं शताब्दी के आरंभिक दशक में विभिन्न लड़ाइयां और युद्ध हुए हैं जिनसे मानव जीवन पर दुष्परिणाम के साथ पर्यावरण और प्राकृतिक स्रोतों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़े हैं। हालिया दशक में होने वाले युद्धों व लड़ाइयों के विनाशकारी परिणामों से इस विषय की पुष्टि होती है। मध्यपूर्व में अफ़गानिस्तान से लेकर इराक़, सीरिया, लेबनान और बहरैन और अफ्रीका में लीबिया से लेकर मिस्र, सूडान और कांगो सबको विनाशकारी लड़ाइयों का सामना रहा है। इन लड़ाइयों में राजनीतिक और सैनिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए लोगों और पर्यावरण को लक्ष्य बनाया गया और इसके द्वारा जल स्रोतों, ज़मीन और पर्यावरण की विविधता को जो क्षति पहुंची है उसे लौटाया नहीं जा सकता और कई पीढ़ियों तक उसकी भरपाई नहीं की जा सकती।

इराक़ द्वारा ईरान पर थोपे गये युद्ध से पर्यावरण को जो क्षति पहुंची है उसे युद्ध से होने वाले दुष्परिणाम के एक नमूने के रूप में देखा जा सकता है। इराक के पूर्व तानाशाह सद्दाम ने अपने पागलपन की नीतियों को लागू करके पिछली शताब्दी के 80 और 90 के दशक में इराक के दक्षिण में नरकुल उगने और दलदलीय स्थलों के सूख जाने की भूमि तैयार कर दी। उसने अपने राजनीतिक और सैनिक लक्ष्यों को साधने के लिए आदेश दिया कि इराक के केन्द्रीय और दक्षिणी क्षेत्र के महत्वपूर्ण भाग मैसोपोटिया में भस्म कर देने की नीति लागू की जाये। सद्दाम के आदेश से इराकी सेना ने हूरुल अज़ीम के दलदलीय क्षेत्रों को इस तरह जलाया कि नरकुल भी सूख कर फट गया ज़मीनों में न बढ़ सके। उसने क्षेत्र के एकोसिस्टम को खराब कर दिया जिसके परिणाम स्वरूप इराक के केन्द्रीय और दक्षिणी क्षेत्रों के तालाब सूख गये और पलायनकर्ता पक्षियों का पलायन भी पूरी तरह समाप्त हो गया और ईरान के मुकाबले में रक्षा दीवार उत्पन्न करने के बहाने उसने इराक के दक्षिणी प्रांतों में डेढ़ करोड़ से अधिक खजूर के पेड़ों को काट दिया। इसी प्रकार इराकी सेना को यह ज़िम्मेदारी सौंपी गयी थी कि वह इराक के दक्षिण में नहरों को रोक कर इस देश में खेती न की जाने वाली भूमियों में वृद्धि करे। विशेषकर इराक के बसरा और इस प्रांत के ईरान के साथ लगने वाले क्षेत्रों में खजूर के पेड़ों को जड़ से काट दिया गया और वहां पर विभिन्न प्रकार की बारुदी सुरंगें बिछा दी गयी।

दूसरी ओर इराक के पुराने कारखानों से विभिन्न प्रकार के रासायनिक पदार्थ विशेषकर तेल उद्योग और नगरों व गॉवों के गन्दे पानी फोरात और दजला नदी में बहने लगे इस प्रकार से कि जले हुए तेल और डीज़ल के बड़े- बड़े धब्बों को बसरा की बंदरगाह के तट पर देखा जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। इस चीज का इराकी जनता के जीवन से सीधा संबंध था। साथ ही इसके कुछ दीर्घकालीन प्रभाव भी थे। जैसे इराकी हवा का प्रदूषित हो जाना और हवा में धूल के कणों का भर जाना। इराक के हूरुल अज़ीम या हूरुल हुवैज़ा क्षेत्र के तालाबों का सूख जाना, ज़मीन का मरुस्थल बन जाना, उपजाऊ भूमि और वनस्पियों का समाप्त हो जाना ईरान के दक्षिण और पड़ोसी देशों में हालिया कुछ वर्षों में युद्ध के विनाशकारी परिणाम रहे हैं।

ईरान के दक्षिण में हुरूल अज़ीम के तालाबों का सूख जाना पानी की भारी कमी का परिणाम था। इन सूखे तालाबों को ईरान के दक्षिण में धूल मिट्टी का एक मुख्य स्रोत समझा जाता है। आज भी ईरान के बहुत से नगरों और क्षेत्र के दूसरे देशों को युद्ध के परिणामों और पर्यावरण की समस्या का सामना है। ईरान के पर्यावरण संगठन की प्रमुख मासूमा इब्तेकार अपने एक भाषण में इस विषय की पुष्टि के साथ कहती हैं” धूल- मिट्टी युद्ध का एक परिणाम है जिसका हमारे देश को सामना है और दिन- प्रतिदिन हम इसमें वृद्धि के साक्षी हैं।“

हालिया दशक में फार्स खाड़ी के क्षेत्र के पर्यावरण को जिस चीज़ से बहुत अधिक क्षति पहुंची है वह तेल की जेटियों या तेल ले जाने वाले जहाज़ों से समुद्र में तेलों का बह जाना था। इराक द्वारा ईरान पर थोपे गये आठ वर्षीय युद्ध के दौरान कई बार तेल ले जाने वाले जहाज़ों और तेल की जेटियों पर विस्फोट के कारण इन समुद्री क्षेत्रों के पर्यावरण को काफी अधिक नुकसान पहुंचा।

कुवैत-इराक युद्ध में भी तेल के कुओं में आग लगा दी गयी और कुवैत और इसके पड़ोसी देशों के लोगों पर तेल की बारिश हुई। जब अमेरिका और उसके घटकों ने कुवैत के समस्त तेल के क्षेत्रों पर नियंत्रण कर लिया था तो उस समय भी इराक और अमेरिका की सैनिक कार्यवाहियों के कारण कुवैत के 940 तेल के कुओं में से 640 से समुद्र में तेल का रिसाव हुआ। 19 जनवरी 1991 को इराकी सैनिको ने पांच बड़े तेल टैंकरों से समुद्र में तेल बहाने की कार्यवाही कर दी और अंततः 23 जनवरी से 28 फरवरी तक कुवैत के 730 से अधिक तेल के कुओं में आग लगा दी। इस घटना के बाद कुवैत में प्रतिवर्ष मृत्यु दर में 10 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी और उसके संबंध में अच्छी खबर केवल यह थी कि चालिस लाख टन से अधिक धूंआ और गंधक 5 हज़ार मीटर से अधिक ऊपर चला गया। अगर ऐसा न होता तो क्षेत्र और विश्व की हवा और पानी में गम्भीर खतरा उत्पन्न होने का कारण बनता। दूसरी ओर डामर और तलछट की मोटी चादर ने फार्स खाड़ी के सैकड़ों किलोमीटर के तट को ढक दिया। कुछ रिपोर्टों के अनुसार यह फार्स की खाड़ी के तट पर कम से कम 30 हज़ार समुद्री पक्षियों के मर जाने का कारण बना।

शायद शांति स्थापित करने और युद्ध की समाप्ति के लिए जो प्रयास किये जा रहे हैं वे सहमति या कागजी समझौतों पर हस्ताक्षर या कुछ लेन- देन के साथ समाप्त हो जायें परंतु पर्यावरण की स्थिति की सुधार के लिए युद्ध विराम और शांति का कोई अर्थ नहीं है और ज़मीन हमारी गलतियों को माफ नहीं करेगी।