तकफ़ीरी आतंकवाद-51
हमने महापुरुषों की क़ब्रो के दर्शन के विषय की समीक्षा की थी।
आपको यह बताया कि इस्लामी इतिहास में आम मुसलमान, महापुरुषों की क़ब्रों के दर्शन को पुण्य का काम मानते आए हैं। सबसे पहले जिस व्यक्ति ने क़ब्रों के दर्शन को मना किया वह इब्ने तैमिया थे। तकफ़ीरी गुट पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं और रिवायतों का ग़लत अर्थ निकालते हुए क़ब्र के दर्शन को अनेकेश्वरवाद का प्रतीक बताते हैं और क़ब्र पर बने रौज़ों को ध्वस्त करने को अनिवार्य बताते हैं। तकफ़ीरियों ने पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं का ग़लत अर्थ निकालते हुए सीरिया, इराक़ और उत्तरी अफ़्रीक़ा में पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के पोतों व नातियों, पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों और बहुत से ऐतिहासिक स्थलों को ध्वस्त कर दिया। यह ऐसी हालत में है कि धर्मशास्त्र के चारों सुन्नी मत पैग़म्बरे इस्लाम की क़ब्र के दर्शन को पुण्य मानते हैं। सुन्नी समुदाय की मशहूर किताब ‘अलफ़िक़्ह अलल मज़ाहेबिल अरबा’ में आया है, “पैग़म्बरे इस्लाम की क़ब्र का दर्शन सबसे बड़ा ग़ैर अनिवार्य पुण्य का काम है कि जिसके बारे में बहुत से कथन हैं।”
तवस्सुल अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों की सिफ़ारिश से ईश्वर से उसका सामिप्य हासिल करने की प्रार्थना के विषय का भी तकफ़ीरियों ने ग़लत अर्थ निकाला है। शब्दकोष में तवस्सुल का अर्थ है किसी व्यक्ति या चीज़ को किसी दूसरे के निकट माध्यम क़रार देना। तवस्सुल का आम अर्थ यह है कि बंदा किसी व्यक्ति या चीज़ को ईश्वर के निकट माध्यम क़रार दे ताकि वह ईश्वर की निकटता हासिल करने का माध्यम बने। पवित्र क़ुरआन और धार्मिक स्रोतों में तवस्सुल की परिभाषा है, ईश्वर की निकटता प्राप्त करने का माध्यम हासिल करना।
वहाबी विचारधारा और तकफ़ीरी गुट ईश्वर की निकटता हासिल करने के लिए पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों को माध्यम बनाना वर्जित कहते हैं और इसे अनेकेश्वरवाद का प्रतीक मानते हैं। उनकी नज़र में पैग़म्बरों और पवित्र परिजनों को माध्यम बनाना ऐसा काम है जिसका उदाहरण नहीं मिलता इसलिए यह ‘बिदअत’ है। मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब का तवस्सुल के वर्जित होने के बारे में यह विचार है, “जो लोग फ़रिश्तों, पैग़म्बरों और महापुरुषों को माध्यम बनाते हैं, उनके ज़रिए सिफ़ारिश करते और उनके माध्यम से ईश्वर का सामिप्य पाने की कोशिश करते हैं, उनकों जान से मारना हलाल है और उनकी संपत्ति को लूट सकते हैं।” सऊदी अरब के पूर्व मुफ़्ती शैख़ अब्दुल अज़ीज़ बिन बाज़ ‘तवस्सुल’ को सही नहीं समझते और इसे धर्म में अलग से शामिल की गयी चीज़ और अनेकेश्वरवाद से दूषित कर्म कहते हैं। सऊदी मुफ़्ती शैख़ अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल्लाह आले शैख़ का कहना है कि तवस्सुल इसलिए हराम है क्योंकि मौत के बाद पैग़म्बर का संपर्क इस दुनिया से टूट जाता है। वह किसी के लिए प्रार्थना नहीं कर सकते और किसी भी काम को अंजाम देने में अक्षम हैं। इसलिए ऐसे व्यक्ति को माध्यम बनाना जो किसी काम को अंजाम देने में अक्षम हो बुद्धि के निकट निरर्थक और ऐसा कर्म अनेकेश्वरवाद से दूषित होगा।
तकफ़ीरी आतंकवादी गुट दाइश तवस्सुल के ग़लत अर्थ के आधार पर शियों का ख़ून बहाना सही समझता है क्योंकि शिया पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों की सिफ़ारिश को ईश्वर की प्रार्थना में माध्यम क़रार देते हैं। दाइश का पूर्व प्रवक्ता मोहम्मद अलअदनानी इस बारे में कहता है, “शियों को मार डालो। वे अब्बास और फ़ातिमा को माध्यम बनाते हैं। वे अनेकेश्वरवादी हैं। उनके घरों में घुस कर उनके सिर धड़ से अलग कर दो।” तकफ़ीरी वहाबियों का मानना है कि ईश्वर से प्रार्थना में सिर्फ़ उसके नामों को सिफ़ारिश का माध्यम क़रार देना चाहिए और दूसरे माध्यम को अनेकेश्वरवाद से दूषित कर्म कहते हैं। यह ऐसी हालत में है कि पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम की रिवायतों में तवस्सुल अर्थात सिफ़ारिश के बारे में बहुत सी बातों का उल्लेख है। पवित्र क़ुरआन की अनेक आयतों से साबित होता है कि महापुरुष को ईश्वर से प्रार्थना में सिफ़ारिश का मध्यम बनाना एकेश्वरवादी विचाराधारा के ख़िलाफ़ नहीं है। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के मायदा सूरे की आयत नंबर 35 में ईश्वर कह रहा है, “हे ईमान लाने वालो! ईश्वर से डरो और उसका सामिप्य पाने के लिए लिए माध्यम ढूंढो। उसके मार्ग में जेहाद करो ताकि मुक्ति पा जाओ!” इसका एक और उदाहरण हज़रत याक़ूब के बेटों का ईश्वर से प्रायश्चित को स्वीकार कराने के लिए अपने बाप को माध्यम क़रार देना है। जैसा कि यूसुफ़ नामक सूरे की आयत नंबर 97 और 98 में आया है, “उन लोगों ने कहा हे मेरे पिता! ईश्वर से हमारे पापों की क्षमा के लिए सिफ़ारिश कीजिए इस बात में शक नहीं कि हमने ग़लती की। (याक़ूब) ने कहा जल्द ही ईश्वर से तुम्हारे लिए माफ़ी की सिफ़ारिश करुंगा। वह क्षमाशील व मेहरबान है।” ये आयतें बता रही हैं कि हज़रत यूसुफ़ के भाई यह चाहते थे कि कोई माध्यम ईश्वर से उनके पाप की क्षमा के लिए सिफ़ारिश करे। उन्होंने अपने पिता हज़रत याक़ूब से जिनका ईश्वर के निकट उच्च स्थान था, यह निवेदन किया कि ईश्वर के निकट उनकी सिफ़ारिश करें कि ईश्वर उनके पाप को क्षमा कर दे। हज़रत याक़ूब ने जो ईश्वर के पैग़म्बर थे, इस तरह की सिफ़ारिश की अपील को रद्द नहीं किया। उन्होंने यह नहीं कहा कि तुम्हारा यह निवेदन अनेकेश्वरवादी क़दम है। तुम लोग ख़ुद सीधे ईश्वर से अपने पाप की क्षमा मांगो। बल्कि यह कहा कि जल्द ही ईश्वर से तुम्हारे पाप की क्षमा मांगूगा। तो पवित्र क़ुरआन की आयत के आधार पर पाप की क्षमा के लिए महापुरुषों को ईश्वर के सामने माध्यम क़रार दिया जा सकता है ताकि वह ईश्वर से पाप की क्षमा की सिफ़ारिश करें। यह ख़ुद ईश्वर का सामिप्य हासिल करने के लिए महापुरुषों को माध्यम क़रार देने की सबसे बड़ी पुष्टि है।
पवित्र क़ुरआन के निसा नामक सूरे की आयत नंबर 64 में सिफ़ारिश के संबंध में एक अहम बिन्दु का उल्लेख है। इस आयत में ईश्वर कह रहा है, “हमने एक भी दूत नहीं भेजा मगर यह कि ईश्वर की इजाज़त से उनका आज्ञापालन हो और जब वे स्वंय पर अत्याचार करने के बाद आपके पास आए कि ईश्वर से क्षमा मांगे और पैग़म्बर आप भी उनके लिए ईश्वर से क्षमा की सिफ़ारिश करते तो उसको रहम करने वाला व प्रायश्चित स्वीकार करने वाला पाते।” इस आयत के अनुसार, ईश्वर से अपने पापों की क्षमा और उसका सामिप्य हासिल करने का एक रास्ता पैग़म्बरे इस्लाम को माध्यम क़रार देना है और उनकी दुआ से पापियों के पाप माफ़ हो जाते हैं। इसलिए पापियों से कहा गया है कि वे पैग़म्बरे इस्लाम के पास जाएं और उनके ज़रिए ईश्वर से अपने पाप की क्षमा के लिए सिफ़ारिश कराएं। इस आयत से यह नतीजा निकलता है कि लोगों का अपने पाप की क्षमा के लिए पैग़म्बरे इस्लाम से सिफ़ारिश कराने की पवित्र क़ुरआन से पुष्टि होती है। यहां पर वहाबी यह शक पैदा करने की कोशिश करते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम अपने स्वर्गवास के बाद किसी के लिए प्रार्थना नहीं कर सकते जबकि इस संदर्भ में पवित्र क़ुरआन के आले इमरान नामक सूरे की आयत नंबर 169 और 170 में बहुत ही विचार योग्य बिन्दु का उल्लेख है। इन आयतों में ईश्वर कह रहा है, “जो लोग ईश्वर के मार्ग में क़त्ल कर दिए गए उन्हें मृत मत समझना बल्कि वे जीवित हैं और अपने ईश्वर से आजीविका पाते हैं। वे ईश्वर की ओर से मिलने वाली कृपा से प्रसन्न हैं और उन लोगों को जो उनके पीछे रह गए हैं शुभसूचना देते हैं कि उन्हें किसी चीज़ से डरना नहीं चाहिए। ईश्वर की कृपा व अनुकंपा की शुभसूचना देते हैं और बेशक ईश्वर सदाचारियों के प्रतिफल को बर्बाद नहीं करता।” सऊदी अरब के वरिष्ठ मुफ़्ती कहते हैं, “तवस्सुल इसलिए वर्जित है क्योंकि पैग़म्बर से उनके स्वर्गवास के बाद संपर्क नहीं हो सकता। वह किसी के लिए सिफ़ारिश नहीं कर सकते और किसी भी काम को अंजाम देने में अक्षम हैं।” लेकिन पवित्र क़ुरआन से यह दृष्टिकोण पूरी तरह रद्द होता है। जिन आयतों का अभी उल्लेख किया उनके अनुसार, शहीद जीवित होते हैं और उन्हें ईश्वर के पास से रोज़ी मिलती है। इन आयतों से शहीदों की ख़ुशी का पता चलता है। वे जीवित लोगों की स्थिति से अवगत होते हैं और वे उनके उनसे जुड़ने का इंतेज़ार करते हैं और उज्जवल भविष्य की ख़ुशख़बरी देते हैं। यह कैसे मुमकिन है कि पैग़म्बरे इस्लाम जिनका स्थान सब शहीदों से ऊंचा है, अपने स्वर्गवास के बाद किसी काम को अंजाम देने में अक्षम हों और उनकी सिफ़ारिश वर्जित व अनेकेश्वरवादी कर्म क़रार पाए।
सुन्नी संप्रदाय के मशहूर धर्मगुरु इब्ने हजर मक्की अपनी किताब ‘सवाएक़ अलमुहर्रेक़ा’ में इमाम शाफ़ेई के हवाले से लिखते हैं कि वह पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों को अपना माध्यम क़रार देते थे। इमाम शाफ़ई कहते थे, “पैग़म्बरे इस्लाम के परिजन हमारे लिए माध्यम हैं। वे उसके निकट मेरे सामिप्य का माध्यम होंगे। मुझे उम्मीद है कि प्रलय के दिन उनकी सिफ़ारिश से मेरा कर्मपत्र मेरे सीधे हाथ में दिया जाएगा।” यह बात स्पष्ट है कि मौत से सब कुछ ख़त्म नहीं हो जाता बल्कि मौत दूसरी दुनिया में नए जीवन का आरंभिक बिन्दु है। वहाबियों के विपरीत जो मृत हस्ती के माध्यम से दुआ को अनेकेश्वरवादी कर्म कहते हैं, पैग़म्बरे इस्लाम का स्थान सिर्फ़ सांसारिक जीवन से जुड़ा नहीं है कि उनके स्वर्गवास के बाद ख़त्म हो जाए। पैग़म्बरे इस्लाम के गुण और ईश्वर के निकट उनका स्थान सिर्फ़ सांसारिक जीवन तक सीमित नहीं है। पैग़म्बरे इस्लाम अपने स्वर्गवास के बाद भी वैसी विशेषताओं के स्वामी हैं जैसी विशेषताओं के स्वामी अपने सांसारिक जीवन में थे। तो पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों की सिफ़ारिश चाहना सिर्फ़ उनके सांसारिक जीवन तक सीमित नहीं है बल्कि उनके इस सांसारिक जीवन से चले जाने के बाद भी उनकी सिफ़ारिश हासिल करना मुमकिन है।