Apr १७, २०१७ १६:१३ Asia/Kolkata

हमने इस्लामी पंथों विशेषकर सुन्नी और शिया मुसलमानों के बीच एकता उत्पन्न कराने के लिए किये जाने वाले प्रयासों की चर्चा की थी।

हमने यह भी बताया था कि इस्लामी पंथों को आपस में निकट लाने में इन प्रयासों की कितनी प्रभावी भूमिका रही है। 

आपको ज्ञात हो चुका होगा कि इस एकता को स्थापित करने में अलअज़हर के महान मुफ़्ती शेख शलतूत और शिया मुसलमानों के वरिष्ठ धर्मगुरू आयतुल्लाह बोरोजर्दी ने कितनी मेहनत की है।  दोनो पंथों को निकट लाने के लिए अलअज़हर विश्वविद्यालय के महान मुफ़्ती का फ़त्वा भी बहुत प्रभावी सिद्ध हुआ है।  शेख शलतूत के फ़त्वे के अनुसार सुन्नी मुसलमानों के चार महत्वपूर्ण पंथों के मानने वाले, शिया असनाअशरी या इमामिया मत की शिक्षाओं का अनुसरण कर सकते हैं।  उनके फ़त्वे के अनुसार सभी सुन्नी मुसलमान, शिया मत की शिक्षाओं पर चल सकते हैं। 

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सुन्नी मुसलमानों से संबन्धित एक भ्रष्ट प्रक्रिया है जिसे तकफ़ीरी या सलफ़ी कहा जाता है।  वे लोग अलअज़र के महान धर्मगुरू शेख शलतूत के उस फ़त्वे को नहीं मानते जिसके अनुसार शिया मत की शिक्षाओं का  सुन्नी मुसलमानों द्वारा अनुसरण किया जा सकता है।  वे लोग शेख शलतूत के फ़त्वे को रद्द करते हुए इस बात के पक्षधर हैं कि शिया मुसलमानों की हत्या करना वैध है।  इस प्रकार उन्होंने मुसलमानों के बीच मतभेद के बीज बोए।  सफली विचारधारा के मानने वाले इस हिसाब से भ्रष्ट कहे जा सकते हैं कि एक ओर तो वे सुन्नी मुसलमानों के 4 मसलकों या पंथों से ख़ारिज हो गए दूसरे वे मुसलमानों को ही काफ़िर बताकर उनकी हत्या को वैध बताने लगे।  वहाबी जैसी भ्रष्ट एवं अतिवादी विचारधारा, चौथी हिजरी क़मरी में बनना आरंभ हो गई थी जिसे बाद में इब्ने तैमिया और उसके शिष्यों ने आगे बढ़ाया।  बाद में मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब और वर्तमान समय में सऊदी अरब के शासकों द्वारा इसे पूरी शक्ति के साथ लागू किया जा रहा है।  मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के कारण सलफ़ियों को वहाबी कहा जाता है।  मुसलमानों में सलफ़ियों का विरोध इसलिए किया जाता है क्योंकि वे हर उस मुसलमान की हत्या को वैध मानते हैं जो उनकी विचारधारा का विरोध करता हो।

यूसुफ़ अज़्ज़रक़ावी उन लोगों में से एक है जिसने इस्लामी जगत में वहाबी विचारधारा को प्रचलित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।  उसने पहले शेख शलतूत के फ़त्वे को संदिग्ध बताया और फिर शिया विरोधी गतिविधियां या शिया विरोधी सोच को प्रचलित किया।  अलअज़हर के वरिष्ठ सुन्नी धर्मगूर शेख शलतूत के फ़त्वे को रद्द करते हुए अज़्ज़रक़ावी ने कहा कि शेख शलतूत ने शिया या जाफ़री पंथ के अनुसरण करने पर आधारित कोई भी फ़त्वा नहीं दिया है।  उसने कहा कि यदि एसा है तो फिर वह फ़तवा मुझको भी लाकर दिखाओ।  यह कहां है? मैंने एसा कोई भी फत्वा नहीं देखा है।  यूसुफ़ अज़्ज़रक़ावी ने कहा कि मैंने अलअज़र के शेख शलतूत के साथ लंबा समय व्यतीत किया है।  मैं उनका बहुत निकट सहयोगी रह चुका हॅं।  मैंने तो अभी तक एसा कोई भी फतवा नहीं देखा है।  उसने कहा कि मैंने ही शेख शलतूत की उन चार किताबों को संकलित किया जिन्हें बाद में प्रकाशित किया गया।  यूसुफ़ अज़्ज़रक़ावी का कहना था कि इस्लामाबाद के इस्लामी विश्वविद्यालय के प्रमुख शेख अहमद अलएसाल मेरे सहायक रहे हैं।  उसने कहा कि शेख शलतूत ने अपनी पहली किताब की भूमिका में हमारा आभार व्यक्त किया है।

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हालांकि यूसुफ़ अज़्ज़रक़ावी और दूसरे कई तकफ़ीरी धर्मगुरूओं ने शेख शलतूत के फ़तवे को रद्द किया है हालांकि उनके पास इसका कोई भी प्रमाण नहीं है।  इसके लिए वे कोई भी लिखित प्रमाण पेश नहीं कर सके।  अरबी भाषा की एक पत्रिका “अलबसाएर” ने 14 मार्च 2009 के अपने संस्करण में अलअज़हर विश्वविद्यालय के एक धर्मगुरू, शेख जमाल क़ुत्ब के हवाले से लिखा है कि यूसुफ़ और शेख अहमद अलएसाल ने शेख शलतूत की सारी रचनाओं का संकलन नहीं किया है।  इस पत्रिका के अनुसार कोई इस बात का इन्कार भी नहीं कर सकता कि शेख शलतूत से पहले भी जाफ़री और ज़ैदी फ़िक्ह, अलअज़हर में नहीं पढाई जाती थी।  अलबसाएर पत्रिका में छपे इस लेख के एक दिन के बाद शेख एसाम का एक लेख इस्लाम आनलाइन वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ।  वे लिखते हैं कि पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि शेख शलतूत ने यह फतवा दिया है।  शेख एमाद लिखते हैं कि शेख शलतूत का यह फ़तवा, “रेसालतुल इस्लाम” नामक पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है जिसे क़ाहेरा के इस्लामी पंथों को निकट लाने वाली संस्था, “दारुत्तक़रीब बैनल मज़ाहिबुल इस्लामिया” ने छपवाया था।  इसका शीर्षक था “एतेहासिक फ़तवा”।

अपने लेख में शेख एसाम आगे लिखते हैं कि वरिष्ठ सुन्नी धर्मगुरू शेख शलतूत ने यूंही यह फ़त्वा नहीं दिया था कि सुन्नी मुसलमानों के चार पंथ, जाफ़री पंथ की शिक्षाओं का अनुसरण कर सकते हैं बल्कि अपने फ़त्वे के कुछ दिनों के बाद, “अलमुजतमे अलअरबी” नामक पत्रिका को उन्होंने विस्तृत साक्षात्कार दिया था जिसको “अलएहराम” समाचारपत्र ने भी बाद में प्रकाशित किया था।  शेख एसाम अपने लेख के अंत में लिखते हैं कि अलअज़हर विश्वविद्यालय के अथक प्रयासों के बावजूद शेख शलतूत की सारी रचनाओं को एकत्रित नहीं किया जा सका है।  वे लिखते हैं कि यूसुफ़ अज़्ज़रक़ावी और शेख अहमद अलएसाल इसलिए यह कहते हैं कि उन्होंने शेख शलतूत का एसा कोई फ़तवा देखा ही नहीं क्योंकि सन 1960 में अहमद अलएसाल का और सन 1961 में क़रज़ावी का निधन हुआ था जबकि शेख शलतूत का निधन दिसंबर सन 1963 में हुआ था।  सन 1961 से 1963 के बीच भी शेख शलतूत ने कई लेख लिखे, फ़तवे दिये और किताबे लिखीं जिनमें से कई का अभी तक प्रकाशन नहीं हो सका है।  एसे में यह स्वभाविक है कि अलअज़हर के पूर्व प्रमुख शेख शलतूत ने यह फ़तवा उनकी मृत्यु के बाद दिया हो क्योंकि वे इन दोनों की मौत के दो वर्षों बाद तक जीवित रहे थे।

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तकफ़ीरी प्रक्रिया का एक हथकण्डा, शिया विरोधी भावनाओं को भड़काना है।  अपने इस हथकण्डे के लिए वहाबी जिस बात को पेश करके मुसलमानों को वरग़लाते हैं वह यह है कि शिया मुसलमानों का मानना है कि पवित्र क़ुरआन में फेरबदल हुआ है।  इस बात का दुष्प्रचार वहाबी व्यापक स्तर पर करते हैं।  जब मुसलमानों के मन में यह बात डाली जाएगी कि मुसलमानों के एक पंथ का यह मानना है कि क़ुरआन में तहरीफ़ हुई है तो स्वभाविक सी बात है कि उनके मन में एसे लोगों के विरुद्ध घृणा पैदा होगी।  इस प्रकार से उस पंथ के विरुद्ध दूसरे आरोप भी आसानी से मढे जा सकते हैं जो कि वहाबी विचारधारा शिया मुसलमानों के विरुद्ध कर रही है।  वहाबी विचारधारा के लोग एसी स्थिति में शिया मुसलमानों पर पवित्र क़ुरआन में तहरीफ़ या फेरबदल करने का आरोप लगा रहे हैं कि जब समस्त शिया धर्मगुरू इस बात को रद्द करते आए हैं कि क़ुरआन में किसी भी प्रकार का फेरबदल नहीं हुआ है।

इसके अतिरिक्त वहाबी विचारधारा, शिया मुसलमनों की आस्था को यहूदी आस्था कहते हैं।  शियों के विरुद्ध वहाबियों का यह एक अन्य आरोप है।  इस निराधार आरोप को वे सामान्यतः अब्दुल्लाह बिन सबा की कहानी के साथ जोड़कर पेश करते हैं।  इस गढ़ी हुई निराधार कहानी के आधार पर बताया गया है कि अब्दुल्लाह बिन सबा नामक व्यक्ति, पहले यहूदी था जो बाद में मुसलमान हो गया था।  वहाबियों का दावा है कि अब्दुल्लाह बिन सबा ने यहूदी शिक्षाओं के आधार पर शिया मुसलमानों की विचारधारा निर्धारित की थी।  उनका मानना है कि उसके द्वारा निर्धारित की गई बातें ही शिया विचारधारा है।  यही कारण है कि सऊदी अरब के उम्मुलक़ुरा विश्वविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर ने इसी तथाकथित कहानी के आधार पर कहा है कि शिया पंथ की शिक्षाएं, यहूदी शिक्षाओं के समान हैं।  बहुत से शिया धर्मगुरूओं ने अब्दुल्लाह बिन सबा नाम के काल्पनिक व्यक्तित्व को पूर्ण रूप से झूठ बताया है।

यहा पर यह बात उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार से वहाबी विचारधारा सुन्नी मुसलमानों के नामपर मुसलमानों के बीच खुलकर मतभेद फैला रही है उसी प्रकार से एक गुट जो अपने आप को शिया मुसलमान बताया है, इस्लाम के महापुरूषों का अपमान कर रहा है जिससे स्वंय शिया मुसलमन बहुत दुखी हैं।  इसी प्रकार के एक व्यक्ति ने धर्मगुरूओं की वेशभूषा में संचार माध्यमों के सामने पैग़म्बरे इस्लाम (स) की धर्मपत्नी का अनादर किया जबकि पैग़म्बरे इस्लाम की धर्मपत्नी का सम्मान करना मुसलमानों के लिए आवश्यक है।  कुवैत ने इस तथाकथित धर्मगुरू की नागरिकता रद्द कर दी है।  यहां पर विशेष बात यह है कि वह व्यक्ति जो धर्मगुरू के रूप में मुसलमनों की भावनाओं को ठेस पहुंचा रहा है, वास्तव में धर्मगुरू है ही नहीं।  यह व्यक्ति कुवैत से भागकर ब्रिटेन गया जहां पर उसने शरण हासिल की।  इसने किसी धार्मिक शिक्षा केन्द्र मे शिक्षा प्राप्त नहीं की जबकि वह धर्मगुरूओं वाली पोशाक पहनकर मुसलमानों के बीच मतभेद फैलाने में व्यस्त है।  इन बातों से पता चलता है कि इस षडयंत्र के पीछे साम्राज्यवादी शक्तियों का हाथ है।

मुसलमानों के बीच मतभेद फैलाने के इन प्रयासों के बावजूद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मुसलमानों की बहुत सी हस्तियां, इस्लामी जगत में एकता स्थापित करने के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं।  उदाहरण स्वरूप इन लोगों में सर्वोपरि, ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई है।  पैग़म्बरे इस्लाम की धर्मपत्नी का अपमान किये जाने के संबन्ध में अपने एक फ़त्वे में आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं पैग़म्बरे इस्लाम की पत्नी का अनादर करना हराम है।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई के इस फ़त्वे का इस्लामी जगत में व्यापक स्तर पर स्वागत किया गया।  शिया मुसलमानों के कई वरिष्ठ धर्मगुरूओं जैसे आयतुल्लाह मग़रिक शीराज़ी, आयतुल्लाह सैयद सादिक़ रूहानी और बहुत से धर्मगुरूओं और बुद्धिजीवियों ने आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई के फत़्वे का समर्थन किया है।

मुसलमानों के बीच मतभेदों को दूर करने में मिस्र के अलअज़हर विश्वविद्यालय की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।  अलअज़हर के उप कुलपति अब्बास शूमान ने कहा है कि शिया मुसलमान, इस्लामी पंथों में से एक है अतः शिया भी मुसलमान हैं।  उनके अतिरिक्त अलअज़हर विश्वविद्दलाय के बहुत से धर्मगुरू शियों को मुसलमान मानते हैं।