इस्लामी जगत-18
हमने आपको बताया था कि इस्लामी जगत में एकता स्थापित करने के लिए मुसलमान धर्मगुरूओ, बुद्धिजीवियों और समाज सुधारकों ने अथक प्रयास किये हैं।
आपको यह बता चुके हैं कि पूरी दुनिया के मुसलमानों को एकजुट करने के लिए बहुत से इस्लामी आधार मौजूद हैं जैसे एकेश्वर पर विश्वास, क़ाबे को मानना, क़ुरआन को मानना, पैग़म्बरे इस्लाम (स) को अन्तिम ईश्वरीय दूत समझना और इसी प्रकार की अन्य बातें आदि। इस आधार पर कहा जा सकता है कि मुसलमानों को इस्लामी आधार पर ही एकजुट किया जा सकता है और उनको एकजुट करने के लिए किसी अन्य कारक की आवश्यकता नहीं। मुसलमानों को संगठित करने के लिए राजनीति और अर्थव्यवस्था को कभी भी आधार नहीं बनाया जा सकता क्योंकि यह दो ऐसे क्षेत्र हैं जिनमे कोई स्थाई मित्र या स्थाई शत्रु नहीं होता बल्कि हितों, परिस्थितियों, प्रतिस्पर्धियों और घटकों के बदलने के साथ ही शत्रु और मित्र बदलते रहते हैं।

यहां पर एक सवाल यह पैदा होता है कि जिन इस्लामी आधारों का उल्लेख किया गया वे तो पहले से ही मौजूद रहे हैं किंतु इनके बावजूद मुसलमानों के बीच अब भी मतभेद क्यों पाए जाते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि यह बात सही है कि इस्लामी जगत को इस्लामी आधारों पर ही संगठित किया जा सकता है और वे आधार हमारे पास पहले से मौजूद हैं किंतु यहां पर इस बात को भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि इस्लामी जगत में पाए जाने वाले मतभेदों के कुछ अन्य कारण निजी एवं जातीय हित और देशों की आर्थिक एवं राजनैतिक नीतियां हैं जो राष्ट्रहित के नाम से लागू की जाती हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि यह वही कारक हैं जिनका उल्लेख पैगम्बरे इस्लाम (स) अपने जीवनकाल में कर चुके हैं और इनके पनपने के बारे में उन्होंने चेतावनी भी दी है। अर्थात मुसलमानों के बीच मतभेद उत्पन्न करने वाले कारक समाज में कभी भी उभर सकते हैं। यह विषय इसलिए विशेष महत्व का स्वामी है कि यदि हम वर्तमान परिस्थितियों में मुसलमानों के बीच एकता स्थापित करना चाहते हैं तो हमको इन अस्थाई कारकों की ओर विशेष रूप से ध्यान देना होगा अन्यथा सारी मेहनत बेकार हो जाएगी।
यह बात इस अर्थ में नहीं है कि धार्मिक एंव आस्था की दृष्टि से लोगों को एकजुट कराने के प्रयासों से हाथ रोक लिया जाए बल्कि कहने का तात्पर्य यह है कि परस्पर एकता स्थापित करने के अस्थाई कारकों की ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। इसी आधार पर यह दावा किया जा सकता है कि इस्लामी देशों में एकता के मूल या स्थाई नियमों को सुदृढ करने के साथ ही साथ एकता स्थापित करने वाले अस्थाई कारकों को अनेदखा नहीं करना चाहिए।
इस्लामी जगत में मतभेद फैलाने के संबन्ध में दो प्रकार के कारकों की समीक्षा की जानी चाहिए भीतरी और बाहरी। जब हम इस्लामी जगत में पाए जाने वाले मतभेदों पर नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि इनके पीछे जहां कुछ आंतरिक कारक हैं वहीं पर कुछ बाहरी कारक भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। मुसलमान विद्धवानों, विचारकों, बुद्धिजीवियों और इतिहासकारों का मानना है कि राष्ट्रवाद और तानाशाही दो एसे कारक हैं जो इस्लामी जगत में मतभेदों के कारण रहे हैं। नैश्नलिज़्म का विस्तार, आधुनिक युग विशेषकर पुनर्जागरण के बाद अधिक हुआ है। इस काल में होने वाली सामाजिक उथल-पुथल के बाद वैश्विक स्तर पर कुछ नए समीकरण सामने आए। आधुनिक काल के इन्सान ने अपने काल के सामाजिक मूल्यों को नकारते हुए नए मूल्यों को अपनाया। पुनर्जागरण काल में इसाई साम्राज्य धराशाई हो गया जिसके बाद राष्ट्रवादी सरकारें अस्तित्व में आईं। “निकोलो मेकियवेली” को इसाई साम्राज्य के पतन और राष्ट्रवादी सरकारों के उत्थान का कारक बताया जाता है। उसका मानना था कि इटली को समस्याओं से मुक्ति दिलाने के लिए नैतिकता को राजनीति से अलग करना आवश्यक है।
वैचारिक खींचतान से अलग संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रवाद एक बहुत ही जटिल बहुआयामी अवधारणा है जिसमें एक भौगोलिक क्षेत्र के भीतर सामान्यतः विशेष संस्कृति, भाषा, धर्म, वंश, जाति और क़बीले के हितों को दृष्टिगत रखा जाता है। राष्ट्रवाद जहां एक ओर एक काल में प्रभुत्वशालियों की सेवा में रहा है जबकि यही राष्ट्रवाद एक अन्य ज़माने में साम्राज्यवादी शक्तियों के वर्चस्व का शिकार देशों की स्वतंत्रता में भी सहभागी रहा है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बहुत से लोगों ने नैश्नलिज़्म के सहारे अपने देशों को साम्राज्यवादी शक्तियों के चंगुल से स्वतंत्र करवाया। हालांकि इसके बावजूद यही राष्ट्रवाद कुछ अवसरों पर विभिन्न देशों के बीच रक्तरंजित युद्धों का भी कारण बना है। अब हम यह बताना चाहते हैं कि राष्ट्रवाद और इस्लामी विचारधारा में क्या संबन्ध है और मुसलमानों के बीच एकता या विघटन में इसकी क्या भूमिका है? इस्लाम की दृष्टि से राष्ट्रवाद के संबन्ध में मुसलमान विद्धानों के बीच विभिन्न विचारधाराएं पाई जाती हैं जिनको मुख्य रूप से 3 भागों में बांटा जा सकता है।
मुसलमान विद्वानों के एक वर्ग का यह मानना है कि इस्लाम के विश्वव्यापी नियमों और विश्व में राष्ट्रों के अलग-अलग होने के बावजूद इन नियमों का उनसे कोई टकराव नहीं है। इस बारे में यह वर्ग पवित्र क़ुरआन की एक आयत पेश करता है जिसका अनुवाद हैः हे लोगो, हमने तुमको पुरूषों और स्त्रियों में पैदा किया और तुमको जातियों तथा क़बीलों में बांट दिया ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। इस हिसाब से राष्ट्रवाद, अपनों तथा अपने देशवासियों के प्रति लगाव की भावना का नाम है। राष्ट्रवादी विचारधारा के समर्थक अपनी बात की पुष्टि में पैग़म्बरे इस्लाम के इस कथन को पेश करते हैं कि देशप्रेम ईमान है। उनका कहना है कि देशप्रेम, धर्म के विरोध के अर्थ में बिल्कुल नहीं है जबकि एक वर्ग का कहना है कि राष्ट्रवाद का इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि यह तो पश्चिम की देन है जिसका इस्लाम से कोई लेनादेना नहीं है।
मुस्लिम विद्वानों के इस वर्ग ने अपनी बात को सिद्ध करने के लिए क़ुरआन की एक आयत पेश की है जिसका अनुवाद हैः हे लोगो! तुमसब आदम की संतान हो और आदम, मिट्टी से बने हैं। इस्लाम की दृष्टि में किसी को भी दूसरे पर किसी प्रकार की वरीयता नहीं है। एक-दूसरे पर वरीयता का मानदंड केवल ईश्वरीय भय है। इस विचार के अनुसार इस्लाम का किसी जाति विशेष या राष्ट्र विशेष से कोई संबन्ध नहीं है बल्कि इस्लामी राष्ट्र विभिन्न जातियों और राष्ट्रों का ऐसा समूह है जिसका संयुक्त बिंदु धर्म के मूल नियमों के प्रति अडिग आस्था रखना है। पवित्र क़ुरआन के स्पष्ट आदेश के अनुसार मुसलमानों में वरीयता का आधार धन-दौलत, रंगरूप, वंश या कोई अन्य चीज़ नहीं है बल्कि जो ईश्वरीय भय रखता है वह ही वरिष्ठ और सम्मानीय है।
राष्ट्रवाद के बारे में इस्लामी दृष्टिकोण से अपना तर्क रखने वाला एक तीसरा वर्ग भी है जिस विचारधारा के ध्वजवाहक शहीद मुतह्हरी रहे हैं। वे कहते हैं कि एक आयाम से तो राष्ट्रवाद, प्रशंसनीय हो सकता है वह उसमें पाई जाने वाली प्रेम भावना है। इसका यह आयाम तो सकारात्मक है किंतु राष्ट्रवाद का एक नकारात्मक आयाम भी है। वे कहते हैं कि जब हम राष्ट्रवाद और इस्लामी एकता के बारे में वैचारिक दृष्टि से चर्चा करते हैं तो हमें यह समझ में आता है कि जहां पर राष्ट्रवाद ने साम्राज्यवादी शक्तियों के चंगुल से स्वतंत्र कराने में बहुत से देशों में सकारात्मक भूमिका निभाई है वहीं पर इस्लामी देशों में इसकी भूमिका मतभेद फैलाने वाली ही रही है।
यदि हम एकल राष्ट्र और राष्ट्रवाद के संबन्ध में शहीद मुतह्हरी की परिभाषा को स्वीकार करते हैं तो फिर यह कहा जा सकता है कि नैश्नलिज़्म का नकारात्मक रूप, उसके सकारात्मक रूप पर हावी रहा है। हम देखते हैं कि इस्लामी देशों में राष्ट्रवाद, मतभेदों का कारण रहा है न कि एकता का। इस्लामी देशों के बीच एकता की कोशिश करने वाले, स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी इस बारे में कहते हैं कि विश्व की वर्चस्ववादी शक्तियां, जो मुसलमान राष्ट्रों पर वर्चस्व बनाए रखने के साथ ही साथ उनके देशों के संसाधनों का दोहन करना चाहती हैं वे लंबे समय से राष्ट्रवाद को हथकण्डे के रूप में प्रयोग कर रही हैं। वे कहते हैं कि इस्लाम, इर प्रकार के मतभेदों को समाप्त करके एकल इस्लामी जगत का पक्षधर है। उनका कहना है कि वे लोग जो राष्ट्रवाद के नाम पर मुसलमानों के बीच मतभेद फैलाते हैं वे शैतान की सेना के सिपाही हैं जो अपने संरक्षकों की सेवा में ऐसा करते हैं।