Apr १९, २०१७ ११:४३ Asia/Kolkata

पिछले सप्ताह के दौरान फ़िलिस्तीन में होने वाले परिवर्तन, ज़ायोनी शासन की विस्तारवादी नीतियों से प्रभावित रहे हैं। 

इन दिनों, बैतुल मुक़द्दस, व्यवहारिक रूप में ज़ायोनियों की सैन्य छावनी में परिवर्तित हो गया।  इस बात से पता चलता है कि बैतुल मुक़द्दस के बारे में अवैध ज़ायोनी शासन की नियत साफ नहीं है।

इसी दौरान सीरिया में भी भारी परिवर्तन हुए।  सीरिया पर संदिग्ध रासायनिक हमले के बाद इस हमले को बहाना बनाकर अमरीका ने सीरिया की सैन्य छावनी पर मिज़ाइलों की बारिश कर दी।  अमरीका के इस खुले हस्तक्षेप पर क्षेत्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आईं हैं जो अब भी जारी हैं।

फ़िलिस्तीन और सीरिया के बाद यमन संकट भी हालिया दिनों के दौरान मीडिया का केन्द्र रहा है।  क्षेत्रीय ख़बरों में तो यह लगभग सर्वोपरित रहा।  बहुत से यमनी अधिकारियों ने सऊदी अरब के विरुद्ध अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में कार्यवाही करने की मांग की है।

एक अन्य विषय जिसने पिछले सप्ताह आम जनमत के ध्यान को अपनी ओर आकृष्ट किया वह है सऊदी शासन द्वारा अपने ही नागरिकों का दमन।   आले सऊद शासन के अत्याचार केवल यमन तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि यह शासन अपने ही नागरिकों के विरुद्ध भी अत्याचार कर रहा है।  इस संदर्भ में मानवाधिकार संगठन ने बताया है कि सऊदी शासन, अपने ही नागरिकों पर बक्तरबंद गाड़ियों से हमले कर रहा है।   इस संगठन ने क़तीफ़ और अलअवामिया में सन 2017 के दौरान सऊदी अरब द्वारा मानवाधिकारों के हनन की कई घटनाओं को पंजीकृत किया है।  इसका मूल कारण यह है कि आले सऊद परिवार, वहाबी विचारधारा का अनुयाई है।  यही कारण है कि उसके निकट मानवाधिकार, लोकतंत्र या इस प्रकार के विषयों का कोर्य महत्व ही नहीं है।  वर्तमान समय में सऊदी अरब, विश्व में मानवाधिकारों का हननकर्ता माना जाता है।  वैसे तो सऊदी अरब में मानवाधिकारों का हनन खुलकर किया जाता है कि किंतु इसका अधिकांश शिकार, यहां पर रहने वाले शिया मुसलमान ही होते हैं।  अपनी धर्मोन्मादी विचारधारा के कारण सऊदी शासन, सऊदी अरब में रहने वाले शिया मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक मानता है।  यही वह सोच है जिसके कारण सऊदी में रहने वाले शिया मुसलमान, अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित हैं और उन्हें नाना प्रकार के अत्याचारों का सामना करना पड़ रहा है।

जैसाकि हम बता चुके हैं कि यमन पर सऊदी अरब की सैन्य कार्यवाहियों के कारण उसपर तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं।  इसी बीच यमनवासियों ने सऊदी अरब के अत्याचारों की अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में जांच की मांग की है।  यमन में बढ़ती इस मांग के दृष्टिगत इस देश के अटार्नी जनरल ने घोषणा की है कि सऊदी अरब के अत्याचारों की लिस्ट तैयार कर ली गई है।  अब्दुल अज़ीज़ अलबग़दादी ने इस संदर्भ में कहा है कि अदालतें इस बारे में अपने दायित्वों का निर्वाह करते हुए यमन के विरुद्ध सऊदी अरब और अमरीका के अत्याचारों के अपराधों की फाइल बनाकर उसे अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में पेश करें।  यहसब एसी स्थिति में है कि जब यमन के एक वरिष्ठ अधिकारी ने घोषणा की है कि सऊदी अरब ने अपने अरब और पश्चिमी घटकों की सहायता से यमन को बमों की प्रयोगशाला बना रखा है।  उन्होंने कहा कि यमन में आम लोगों के विरुद्ध अप्रचलित शस्त्रों का भी प्रयोग किया गया है।  उन्होंने कहा कि यह वह बात है जो इतिहास के पन्नों से मिट नहीं सकती।

सऊदी अरब ने अमरीका, ब्रिटेन और कुछ अरब देशों की सहायता से मार्च 2015 से यमन पर आक्रमण किया था जो अब भी जारी हैं  इस आक्रमण में अबतक लगभग ग्यारह हज़ार यमनी नागरिक मारे जा चुके हैं जबकि घायलों की संख्या बहुत अधिक है।  यमन पर सऊदी अरब के आक्रमण से इस निर्धन देश को अरबों डालर की क्षति पहुंची हैं और उसकी मूलभूत संरचना लगभग पूरी तरह से नष्ट हो चुकी है।  इन हलात में संयुक्त राष्ट्र संघ, सऊदी अरब की फाइल को अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय भेजकर उसपर मानवता के विरुद्ध अपराध के आरोप में मुक़द्दमा चलवा सकता है।  लेकिन खेद की बात यह है कि यह अन्तर्राष्ट्रीय संगठन इस काम में अबतक आनाकानी करता आया है।  हालांकि न केवल यमनवासी बल्कि बहुत से देश, सऊदी अरब के विरुद्ध न्यायिक कार्यवाही की मांग कर रहे हैं।

 

एक अन्य विषय जिसने पिछले सप्ताह लोगों के ध्यान को आकृष्ट किया वह फ़िलिस्तीन के परिवर्तन थे।  फ़िलिस्तीन के विदेश मंत्रालय ने इस बात पर विश्व समुदाय के मौन की कड़ी निंदा की है कि ज़ायोनी शासन ने विभिन्न बहानों से बैतुल मुक़द्दस को सैन्य छावनी में परिवर्तित कर दिया है किंतु विश्व समुदाय इसपर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहा है।  यहूदी अपने त्योहारों के उपलक्ष्य में बैतुल मुक़द्दस में बड़ी संख्या में सैनिक तैनात करके उसे छावनी में बदल देते हैं।  अपने त्योहारों के अवसर पर यहूदी, मुसलमानों को मस्जिदुल अक़सा में जाने से रोकते हैं।  इसके अतिरिक्त बहुत से विभिन्न बहानों से ज़ायोनी, फ़िलिस्तीनियों को मस्जिदुल अक़सा जाने से रोकते रहते हैं।  मस्जिदुल अक़सा जैसे पवित्र स्थल के सबन्ध में ज़ायोनी शासन की कार्यवाहियां, न केवल अन्तर्राष्ट्रीय नियमों का खुला उल्लंघन हैं बल्कि फ़िलिस्तीन के बारे में दिये गए उसके वचनों के भी विरुद्ध हैं।  सन 1994 में ज़ायोनी शासन और जार्डन के बीच जो समझौता हुआ था उसके आधार पर यह तै पाया था कि मस्जिदुल अक़सा के प्रांगड़ में यहूदी किसी भी प्रकार की उपासना नहीं करेंगे और न ही अपना कोई धार्मिक कार्यक्रम वहां पर आयोजित करेंगे।  हालांकि यह अवैध शासन इस प्रकार के किसी भी समझौते के प्रति पाबंद नहीं है।

पिछले कुछ दिनों के दौरान सीरिया संकट ने एक नया मोड़ लिया है।  अमरीका द्वारा सीरिया पर किये गए मिज़ाइल हमले के बाद पूरे विश्व का ध्यान सीरिया की ओर मुड़ गया है।  अमरीका ने जिस बात को बहाना बनाकर सीरिया पर मिज़ाइलों की वर्षा की वास्तव में वैसा कुछ है ही नहीं।  अमरीका ने सीरिया में रासायनिक शस्त्रों के प्रयोग के बाद इसका आरोप सरकार पर लगाते हुए सीरिया पर हमला किया।  इस हमले में कई आम लोग मारे गए।  यह एसा आरोप है जो अमरीका के ही कई पश्चिमी घटकों के गले से उतर नहीं रहा है।

वास्तविकता यह है कि सीरि या के विरुद्ध आरोप मढ़ने से अमरीका और उसके घटक देशों का उद्देश्य यह है कि सीरिया की सेना की बढ़त वाली कार्यवाहियों को रोका जाए।  वास्तव में हालिया कुछ दिनों के दौरान आतंकवादियों के विरुद्ध सीरिया की सेना ने उल्लेखनीय उपलब्धियां अर्जित की हैं।  अमरीका और उसके घटक देश, इस बात को पचा नहीं पा रहे हैं इसीलिए उन्होंने एक नया बहाना पेश करके सीरिया पर हमला किया है।  इस प्रकार से यह देश सीरिया सरकार के विरुद्ध सक्रिय आतंकवादियों की सहायता कर रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि चार अप्रैल को सीरिया के ख़ान शैख़ून नामक क्षेत्र में जो इस देश के दक्षिण में स्थित है एक संदिग्ध रासायनिक हमला किया गया था।  इस रासायनिक हमले में 100 से अधिक लोग मारे गए और लगभग 400 अन्य घायल हो गए थे।  इस संदिग्ध हमलें के बाद अमरीका, उसके घटकों और सीरिया में सक्रिय आतंकवादियों ने इस बात का भरसक प्रयास किया कि इस हमले का ज़िम्मेदार, सीरिया की सरकार को ठहराया जाए।  इसी हमले को बहाना बनाकर अमरीका ने सीरिया के होम्स प्रांत की अश्शईरात सैन्य छावनी पर हमला करके 59 मिसाइल बरसाए।  उल्लेखनीय बात यह है कि सीरिया पर अमरीका की एकपक्षीय कार्यवाही, संयुक्त राष्ट्रसंघ की अनुमति के बिना है।  टीकाकारों का कहना है कि ट्रम्प द्वारा अमरीका की सत्ता संभालने के बाद से सीरिया संकट में तेज़ी आ गई है और यह बहुत ही जटिल चरण में पहुंच गया है।