Apr २३, २०१७ १३:३५ Asia/Kolkata

धरती पर जीवन के शुरू होने और जीवजंतुओं की विभिन्न ज़रूरतों को दूर करने के प्रयासों के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होने वाली समस्याओं में से एक कूड़े का उत्पादन है।

हालांकि शुरू में कचरा ख़ुद खाद्य पदार्थों के रोटेशन का एक भाग था और यह प्रकृति का हिस्सा बन जाता था, लेकिन जबसे इंसान ने तकनीक का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया और कच्चे माल के रूप में प्राकृतिक स्रोतों का इस्तेमाल किया तो अन्य प्राणियों के लिए जीवन कठिन हो गया।

विशेषज्ञों के मुताबिक़, समाज के औद्योगि की करण, जनसंख्या में वृद्धि, ज़रूरतों में वृद्धि और औद्योगिक देशों द्वारा अधिक उत्पादन प्राकृतिक स्रोतों के अंधाधुंध इस्तेमाल का कारण बना है। उत्पादन में प्रतिस्पर्धा और चयन के विभिन्न विकल्पों के कारण, उत्पाद अधिक बिकता है, जिससे नई समस्याएं जन्म लेती हैं, उनमें से एक उपभोग का प्रचलन और दूसरी मानवीय तकनीक से प्राप्त होने वाला कचरा है।

उत्पादन में लोगों की अधिक रूचि और परिणाम स्वरूप अधिक इस्तेमाल से अन्य प्राणियों के जीवन पर हानिकारक असर पड़ता है और पर्यावरण को दूषित करता है। कचरा विभिन्न प्रकार का होता है, इसीलिए उससे होने वाला नुक़सान भी विभिन्न प्रकार का होता है। कचरे से मिट्टी, पानी और हवा को हानि पहुंचती है। इसांनों, जानवरों, उद्योग और कृर्षि से उत्पादित कचरे के लिए अगर स्वास्थ्य नियमों का पालन नहीं किया जाएगा तो यह निपटान के चरण में मिट्टी या पानी में परिवर्तित हो जाएगा।

आजकल नदियों और समुद्रों में अत्यधिक मात्रा में कचरा डाला जाता है। प्रदूषित पानी से पैदा होने वाले ख़तरों में प्रदूषण के एक जगह से दूसरी जगह पहुंचना और विश्व भर में बीमारियों का फैलना है, जो अविश्वसनीय रूप से पानी के बहने के साथ तेज़ी से सभी जगहों पर फैल जाता है। पिछले कुछ दशकों में पूर्वी अमरीका में लोग नाव द्वारा एटलस सागर के खुले भागों में जाते थे और वहां कचरा फेंक दिया करते थे। 1988 के गर्मियों के मौसम में अचानक अस्पतालों और शहरों का कचरा मैसाचोसेट्स से न्यू जर्सी तक के तटों पर वापस लौट आया। इस घटना के बाद लोगों का विरोध शुरू हो गया। अमरीकी कांग्रेस ने जन समुदाय के दबाव में सागर में कचरा फेंकने पर पाबंदी का क़ानून पारित कर दिया। इस क़ानून के आधार पर किसी भी प्रकार का कचरा वहां नहीं फेंका जा सकता था। इसके बावजूद अभी भी सागर के प्रदूषण में 10 से 20 प्रतिशत तक कचरे की भूमिका है। नॉर्वे के वैज्ञानिक टोर हीरडल ने कोलतार का काला पदार्थ एटलस सागर के मध्य में रेत में देखा था। वहां इतना अधिक प्रदूषण था कि हीरडल ने उसे शहर की गंदगी की निकासी की भांति बताया था।

पर्यावरण की इस समस्या के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं, लेकिन हालिया दिनों में विशेषज्ञों का ध्यान प्लास्टिक कचरे की ओर अधिक गया है। मानव उत्पादों में सबसे अधिक प्लास्टिक का इस्तेमाल होता है। प्लास्टिक उत्पाद इस्तेमाल के बाद, कचरे के रूप में फेंक दिए जाते हैं और यह मिट्टी में विघटित नहीं होते हैं। इसलिए कि आर्टिफ़िशियल पॉलिमर जैसे कि नाइलोन, प्राकृतिक पॉलिमर के विपरीत, एनज़ाइम के अभाव के कारण, वर्षों तक प्रकृति में अपनी असली हालत में बाक़ी रहता है। इन पदार्थों के कारण, पर्यावरण को नुक़सान पहुंचता है। उदाहरण स्वरूप, प्लास्टिक के कारण, उसके आसपास की वनस्पतियां सामान्य रूप से पानी और खाद को सोख नहीं पातीं और समय बीतने के साथ साथ जड़ के चारों ओर, गर्मी, नमी और अंसतुलित रासायनिक पदार्थों में वृद्धि हो जाती है, जिसके कारण उसके विकास की गति धीमी हो जाती है या वह सूख जाती है। इनमें सबसे अधिक पॉलिथिन बैग या प्लास्टिक की थैलियां पर्यावरण को नुक़सान पहुंचाती हैं।

प्लास्टिक की थैलियां, कि जिन्हें कचरे में डाल दिया जाता है, 500 वर्ष तक मिट्टी में डीकम्पोज़्ड या विघटित नहीं हो पाती हैं। इससे पर्यावरण को बहुत हानि होती है। हवा इन थैलियों को एक जगह से दूसरी जगह उड़ाकर ले जाती है। यह नदियों, नहरों और नालों में जाकर अट जाती हैं। इस प्रकार, पानी की निकासी रुक जाती है और प्रदूषण में वृद्धि हो जाती है। प्रति वर्ष हज़ारों व्हेल, डॉलफ़िन, मगरमच्छ और कछुए और इसी प्रकार जलीय परिंदे प्लास्टिक की थैलियों को खाने के कारण, मर जाते हैं।

पर्यावरणविद् डेविड लाइस्ट अपनी एक रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं, प्लास्टिक, तेल के रिसाव और भारी धातुओं की तरह जलीय जीवों की मौत का कारण बनती है। उदाहरण स्वरूप, जेलीफ़िश कि जो कछुओं और जलीय परिंदों के भोजन का भाग है, संभव है कछुए और परिंदे उसके धोखे में प्लास्टिक खा लें। समुद्र में कचरा फेंकने के लिए अंतरराष्ट्रीय नियमों के बावजूद, एक अंदाज़े के मुताबिक़ प्रतिदिन जहाज़ों से पांच लाख टन प्लास्टिक के बर्तन और अन्य चीज़ें समुद्र या महासागर में फेंकी जाती हैं।

दुर्भाग्यवश प्लास्टिक इस प्रकार की होती है कि ज़मीन में दबाने के बावजूद भी वह पर्यावरण को नुक़सान पहुंचाती है। इसलिए कि बहुत धीमे रूप से विघटन एवं पैट्रोलियम प्रोडक्ट होने के कारण, दबाने की जगह में लाटेकस का उत्पाद होता है, जो भूमिगत पानियों तक पहुंच जाता है। इस संदर्भ में कहा जाता है कि प्लास्टिक को जलाने से भी पर्यावरण को काफ़ी नुक़सान पहुंचता है। प्लास्टिक को जलाने से कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फ़र एनहाइड्राइड और क्लोरीनयुक्त गैसों का उत्पादन होता है, जो हवा को प्रदूषित कर देती हैं।

उल्लेखनीय है कि कचरा ज़मीन में दबाने की जगह से जो गैसें निकलती हैं वह ज़मीन की निचली परतों तक पहुंच जाती हैं और मिट्टी को नुक़सान पहुंचाती हैं। अध्ययनों के मुताबिक़, कचरा दबाने के इलाक़े के आसपास, 60 प्रतिशत मिथेन गैस, 30 प्रतिशत से अधिक कार्बन डाइऑक्साइड की पुष्टि हुई है, जो पेड़ पौधों पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।

हालांकि हालिया वर्षों में कई देशों को ऐसे कूड़े संकट का सामना है, जिसे कचरा नहीं माना जाता है, जबकि यह पर्यावरण के लिए हानिकारक होता है। विकसित देशों में इलैक्ट्रोनिक वस्तुओं को कचरा पेटियों में डाल दिया जाता है। उदाहरण स्वरूप, ऑस्ट्रेलिया में प्रतिवर्ष 1 लाख टन टेलिवीज़न, कम्पयूटर और उससे जुड़ी चीज़ों को कचरा पेटियों में फेंक दिया जाता है, यानी प्रति व्यक्ति लगभग पांच किलोग्राम। लेकिन ऐसा लगता है कि इन देशों ने अपनी इस समस्या का हल खोज लिया है, वे अपने इलैक्ट्रोनिक कचरे को चीन और भारत जैसे विकासशील देशों को निर्यात कर देते हैं, जिसमें से अधिकांश मात्रा को वहां अनुचित रूप से दबा दिया जाता है। इससे इन देशों के पर्यावरण को नुक़सान पहुंचता है।

चीन की एक न्यूज़ वेबसाइट के अनुसार, दुनिया भर के इलैक्ट्रोनिक कचरे का 70 प्रतिशत भाग चीन पहुंचा दिया जाता है। राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम की रिपोर्ट के मुताबिक़, चीन अन्य देशों से आयात किए गए कचरे के अलावा, ख़ुद भी बड़ी मात्रा में इलैक्ट्रोनिक कचरे का उत्पादन करता है। 2010 में चीन ने 1 करोड़ 3 लाख टन कचरे का उत्पादन किया। एक अनुमान के मुतबिक़, 2020 में 2007 की तुलना में 200 से 400 प्रतिशत तक कचरे के उत्पादन में वृद्धि हो जाएगी। इस अवधि में मोबाइल और टीवी के कचरे में कई गुना वृद्धि हो जाएगी।

इलैक्ट्रोनिक कचरे के कारण तीसरी दुनिया के देशों में प्रदूषण अधिक फैल रहा है। इसी कारण, राष्ट्र संघ ने 1998 में विकसित देशों से विकासशील देशों के लिए निर्यात होने वाले कचरे पर निंयत्रण के लिए एक समझौता किया। इस समझौते के आधार पर कोई भी देश एकपक्षीय रूप से इन कचरे के आयात पर प्रतिबंध लगा सकता है। अमरीका और चीन ने इस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। आज भी दुनिया के 70 प्रतिशत कम्पयूटर और मोबाइल चीन में डीकम्पोज़्ड होते हैं। विकसित देशों से केवल इलैक्ट्रोनिक कचरा विकासशील देशों के लिए नहीं भेजा जाता है, बल्कि ज़हरीला और परमाणु कचरा भी विकासशील देशों की जनता के लिए सिर दर्द बन गया है।