Apr २४, २०१७ १४:२४ Asia/Kolkata

विशेषज्ञों और विद्वानों के अनुसार, इस्लामी जगत में फूट डालने के कारकों में राष्ट्रवाद और तानाशाही शासनों का नाम लिया जा सकता है।

जबकि विदेशी शक्तियों में यह भूमिका साम्राज्यवाद ने निभाई है।

हमने उल्लेख किया था कि मुसलमानों के पिछड़ेपन और उनके बीच साम्प्रदायिकता के लिए मुस्लिम विद्वानों ने किसी हद तक इस्लामी देशों में पश्चिमी देशों के हस्तक्षेप को ज़िम्मेदार माना है। इस्लामी जागरुकता के ध्वजवाह सैय्यद जमालुद्दीन अफ़ग़ानी ने जागरुकता आंदोलन उस समय शुरू किया जब मुस्लिम जगत को यूरोप के राजनैतिक एवं सैन्य हमलों का सामना था। पहले उन्होंने इस्लामी देशों के पिछड़ेपन के घरेलू कारणों पर ध्यान दिया, लेकिन धीरे धीरे उनके सामने यह वास्तविकता उजागर हो गई कि घरेलू कारक और विदेशी हस्तक्षेप एक ही सिक्के के दो रुख़ हैं। इसी कारण उन्होंने ख़ुफ़िया राजनीतिक संगठन अलउरवा का गठन करके पश्चिमी साम्राज्यवाद से मुक़ाबला करना शुरू किया।

सैयद जमादुद्दीन अफ़ग़ी ने साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ मुसलमानों को एकजुट करने के लिए प्रस्ताव रखा कि विश्व भर के मुसमलानों को एक बड़े और शक्तिशाली इस्लामी देशों को अपने प्रतिरोध के ठिकाने के रूप में चुन लेना चाहिए, ताकि एकजुट होकर पश्चिमी साम्राज्यवाद का मुक़ाबला किया जा सके। इसीलिए उन्होंने अपने लेखों और भाषणों में साम्राज्यवाद के अजेय होने के मिथक को तोड़ने का प्रयास किया, ताकि इस्लामी देशों की जनता और शासकों को प्रोत्साहन मिले। इसी संदर्भ में उन्होंने ऐसे लोगों कि जो इस्लामी देशों में साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए भूमि प्रशस्त करते थे और जो लोग उनका मुक़ाबला करने से इनकार करते थे, देशद्रोही बताया है। बाद में आने वाले सुधारकों ने भी इसी दृष्टिकोण को अपनाया।

साम्राज्यवाद पर केवल प्रारम्भिक समाज सुधारकों और विद्वानों ने ध्यान नहीं दिया, बल्कि समय बीतने के साथ साथ साम्राज्यवाद का हस्तक्षेप अधिक जटिल रूप लेता गया, जिस पर समकालीन इस्लामी विद्वानों ने भी ध्यान दिया। इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले पांच दशकों के दौरान इमाम ख़ुमैनी ने इस अभियान का बीड़ा उठाया। उन्होंने इस्लामी देशों के पिछड़ेपन की समीक्षा करते हुए तानाशाही शासनों और साम्राज्यवाद के बीच संबंधो से पर्दा उठाया और स्पष्ट किया कि बड़ी शक्तियों और साम्राज्यवादी शक्तियों के हित इस्लामी जगत में एकता में सबसे बड़ी रूकावट हैं। उनका कहना था कि विभिन्न तरीक़ों से इस्लाम को रोकने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। साम्राज्यवादी शक्तियां इस नतीज़ें पर पहुंची हैं कि यह इस्लाम ही है जो उनके हितों में रुकावट बनता है, अगर इस्लामी जागृति आ जाए और इस्लामी शासन की स्थापना हो जाए तो उनकी दाल नहीं गलेगी। इसीलिए वे मुसलमानों के बीच फूट डालने का प्रयास कर रहे हैं।

एक दूसरी जगह इमाम ख़ुमैनी कहते हैं जो लोग चाहते हैं कि इस्लामी देशों से लाभ उठाएं, जो लोग चाहते हैं कि मुसलमानों के स्रोतों को लूटें, जो लोग इस्लामी देशों को अपने अधीन करना चाहते हैं, वे और उनके एजेंट मुसलमानों के बीच फूट डालने का प्रयास करते हैं।

इस्लामी देशों में घटने वाले राजनीतिक घटनाक्रमों पर नज़र डालने से भी पता चलता है कि साम्राज्यवाद ने हमेशा फूट डालो और हुकूमत करो वाला फ़ार्मूला अपनाया है। इसी हथकंडे का इस्तेमाल करके उसने इस्लामी और विश्व के अन्य देशों के आर्थिक स्रोतों को लूटा है। यहां हम इस्लामी देशों में साम्राज्यवाद की इस चाल के कुछ उदाहरणों का उल्लेख करेंगे।

सबसे पहला उदाहरण उस्मानी और ईरानी साम्राज्यों के बीच फूट डालना है। जिस समय उस्मानी साम्राज्य एक शक्तिशाली इस्लामी साम्राज्य के रूप में पश्चिमी शक्तियों के सामने डटा हुआ था और पश्चिम में इसका मुक़ाबला करने का साहस व शक्ति नहीं थी, उस समय उसने ईरान और उस्मानी ख़िलाफ़त के बीच सीधे टकराव के लिए भूमि प्रशस्त करना शुरू की। इसी प्रकार ईरान पर मुग़लों के शासनकाल में पश्चिम ने उस्मानी शासुल्तान पर चढ़ाई करा दी और 1402 में उसे पराजित कर दिया।

सफ़वी शासनकाल में भी ईरान ने यूरोपीय सरकारों के धोखे में अपने संयुक्त दुश्मन उस्मानी शासन पर हमला कर दिया। इसके मुक़ाबले में उस्मानियों ने भी मुसलमानों की एकता और शक्ति को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास किया। इस प्रकार यूरोपीय शक्तियों ने इस्लामी जगत की दो शक्तियों को आपस में भिड़ा दिया। उस्मानी साम्राज्य के पतन के बाद भी पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने इस नीति को जारी रखा। जब पहले विश्व युद्ध में उस्मानी शासन की पराजय हुई तो इस साम्राज्य को तोड़ने के लिए भूमि प्रशस्त हो गई।

युद्ध में जीतने वाले गठबंधन ने उस्मानी साम्राज्य को विभिन्न देशों में विभाजित करने का प्रयास किया। ऐसे देशों में जिनकी सीमाएं अवास्तविक थीं, जिससे आगे चलकर यह आपस में ही भिड़ गए। पहले विश्व युद्ध के बाद, तुर्की, सीरिया, इराक़, जॉर्डन और सऊदी अरब जैसे देशों का जन्म हुआ। पहले विश्व युद्ध के बाद इन देशों के बीच जो मतभेद और लड़ाईयां हुईं उससे पता चलता है कि यूरोपीय देशों ने काफ़ी हद तक अपने उद्दश्यों को प्राप्त किया।

पिछले कार्यक्रम में हमने उल्लेख किया था कि मुसलमानों के बीच एकता का एक मुख्य कारण, संयुक्त धार्मिक मूल्य हैं। जब पश्चिमी देशों ने समझ लिया कि सीधे रूप से हस्तक्षेप करके इस्लामी जगत पर वर्चस्व हासिल नहीं किया जा सकता और मुसलमानों को विभाजित नहीं किया जा सकता, तो उन्होंने सांस्कृतिक हमले की एक नई चाल चली। इस हमले में हथियारों की भूमिका नहीं थी, बल्कि अंतरराष्ट्रीय संचार माध्यमों द्वारा पश्चिमी विचारों का इस्लामी जगत में प्रचार किया जाने लगा। इस प्रकार पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के लिए भूमि प्रशस्त की जाने लगी। शक्तिशाली तार्किक आधार के कारण इन विचारों ने इस्लामी जगत में बड़ा परिवर्तन कर दिया। इन विचारों पर इस्लामी देशों की प्रतिक्रिया तीन स्थिति से ख़ाली नहीं थी। पूर्ण रूप से उन्हें स्वीकार करना, पूर्ण रूप से उन्हें ख़ारिज कर देना या उनके मुक़ाबले में लचक दिखाना। हालांकि इस्लामी जगत ने इन विचारों के मुक़ाबले में जो प्रतिक्रिया दिखाई उसमें विखराव था, इसलिए कि लचक और तर्क दो ऐसे रूझान थे जिनके प्रति इस्लामी जगत में कम रूची थी।

कुछ विश्लेषकों के विचारों के विपरीत कि जो सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को विश्व में अंतिम साम्रज्यवाद समझते हैं, इक्कीसवीं सदी की शुरूआत में हम देखते हैं कि पश्चिमी देश सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को सुरक्षित रखते हुए अपने पहले साम्राज्यवाद की ओर पलटते हैं। अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ पर हमले को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।

इस्लामी जगत में जागरुकता और पश्चिम की नीतियों एवं संस्कृति के मुक़ाबले के रूझान और उसके बाद पूंजीवादी व्यवस्था में संकट के उत्पन्न होने के साथ, पश्चिमी देशों ने इस्लामी जागृति पर आधिपत्य जमाने और कैपिटलिज़्म को संकट से निकालने के लिए साम्राज्यवाद अर्थात सीधे तौर पर अन्य देशों में हस्तक्षेप की नीतिं अपनाई। यह क़दम अर्थात रूप से इराक़ पर चढ़ाई, पश्चिमी देशों के लिए कई आयामों से महत्वपूर्ण था। पहले यह कि इस देश में सैन्य उपस्थिति से ग्रेटर मध्यपूर्व के अमरीकी योजना के टुकड़े पूरे हो रहे थे। दूसरे क्षेत्रीय देशों को हथियार बेचकर पश्चिम के हथियार बनाने वाले कारख़ानों का विकास होगा। तीसरे यह कि पश्चिमी देश विशेषकर अमरीका को विश्व की आर्थिक धमनी पर क़ब्ज़ा करना था।

इस्लामी देशों में मतभेद उत्पन्न करना और गड़े मुर्दों को ज़िंदा करना पश्चिम के हस्तक्षेप का एक अन्य परिणाम है। वास्तव में इस्लामी जगत में पश्चिम के हस्तक्षेप का परिणाम, शिया और सुन्नियों के बीच फूट डालने और मतभेद के अलावा कुछ नहीं था। इस्लामी जगत में तकफ़ीरी विचाधारा का जन्म भी इसी सिलसिले की एक कड़ी है। लेकिन जिस सवाल का यहां जवाब दिया जाना चाहिए वह यह है कि क्या तकफ़ीरी विचारधारा के लिए केवल पश्चिम साम्राज्यवाद ही ज़िम्मेदार है?