Mar ०७, २०१६ १६:२८ Asia/Kolkata
  • ईश्वरीय वाणी-१७

पवित्र क़ुरआन के व्याख्याकारों के अनुसार सूरए तौबा का आरंभ बिस्मिल्लाह से न होकर वचन तोड़ने वाले शत्रुओं से विरक्तता से होना, इस गुट के प्रति ईश्वर के प्रकोप और क्रोध को दर्शाता है।

पवित्र क़ुरआन के व्याख्याकारों के अनुसार सूरए तौबा का आरंभ बिस्मिल्लाह से न होकर वचन तोड़ने वाले शत्रुओं से विरक्तता से होना, इस गुट के प्रति ईश्वर के प्रकोप और क्रोध को दर्शाता है। क्योंकि इस सूरे का आरंभ, अनेकेश्वरवादियों से विरक्तता की घोषणा से हो रहा है, और यही कारण है कि इस सूरे के आरंभ में “बिस्मिल्लाहिर रहमानिर्रमहीम” नहीं है क्योंकि दया और विरक्तता, आपस में मेल नहीं खाते।

 

 

सूरए तौबा हिजरत के नवें वर्ष में, पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के स्वर्गवास से लगभग एक वर्ष पूर्व उतरा है। इस सूरे में अनेक बार तौबा व प्रायश्चित और ईश्वर की दया की ओर मनुष्य की वापसी का उल्लेख किया गया है।

सूरए तौबा को सूरए बराअत भी कहा जाता है जिसका अर्थ होता है विरक्तता। इस सूरे का आरंभ अनेकेश्वरवादियों से विरक्तता की घोषणा से हो रहा है।

सूरए तौबा में दर्ज विषयों का महत्व इसलिए भी है क्योंकि यह सूरा उस समय नाज़िल हुआ जब अरब क्षेत्र में इस्लाम का विकास अपने चरम पर था और अनेकश्वरवादियों का अन्तिम प्रतिरोध भी धराशाई हो चुका था। इस सूरे का महत्वपूर्ण भाग वह है जिसमें अनेकेश्वरवादियों से संबंध विच्छेद और उनके द्वारा मुसलमानों को दिये गए वचनों को तोड़ने की बात कही गई है। सूरए तौबा में मिथ्याचारियों के क्रियाकलापों और उनके ख़तरों के बारे में कहा गया है क्योंकि इस्लाम के तीव्र विकास के बाद बहुत से अवसरवादियों ने लाभ उठाने के लिए इस्लाम का चोला पहन लिया था। इसमें ईश्वर के मार्ग में संघर्ष और मुसलमानों के बीच एकता पर भी बल दिया गया है। सूरए तौबा में उन लोगों की निंदा की गई है जो विभिन्न बहाने प्रस्तुत करके जेहाद से बचते हैं। इस सूरे में ज़कात देने और धन-दौलत एकत्रित न करने जैसे विषयों का भी उल्लेख किया गया है।

 

 

आठवी हिजरी क़मरी में मक्के पर विजय के पश्चात पैग़म्बरे इस्लाम ने सार्वजनिक क्षमा का आदेश जारी किया। इसी आधार पर मक्के के अनेकेश्वरवादी, इस नगर में अपना जीवन जारी रख सके। उन्हीं में से कुछ अब भी ग़लत परंपराओं का अनुसरण कर रहे थे। यह बात मुसलमानों के लिए सहन योग्य नहीं थी। इसी बीच सूरए तौबा की आरंभिक आयतें मदीने में नाज़िल हुईं। पैग़म्बरे इस्लाम ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को आदेश दिया कि वे मक्के जाकर उन्हें ईश्वर का यह संदेश सुनाएं। (ये आयतें) ईश्वर और उसके पैग़म्बरों की ओर से, उन अनेकेश्वरवादियों से विरक्तता की घोषणा हैं, जिनसे तुम ने संधि कर रखी है। (हे अनेकेश्वरवदियों!) चार महीनों तक (मक्के की) धरती पर (स्वतंत्रता से) घूमों फिरो और जान लो कि तुम ईश्वर को विवश करने वाले नहीं हो जबकि ईश्वर निश्चित रूप से काफ़िरों को लज्जित करने वाला है। और ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर की ओर से बड़े हज के दिन लोगों के लिए आम घोषणा है कि ईश्वर और उसका पैग़म्बर, अनेकेश्वरवादियों से विरक्त है तो यदि तुम तौबा कर लो और पलट आओ तो यह तुम्हारे हित में अधिक अच्छा है और यदि तुम मुंह मोड़ लेते हो तो जान लो कि तुम निश्चित रूप से ईश्वर को विवश नहीं कर सकते। और (हे पैग़म्बर!) आप काफ़िरों को अत्यंत पीड़ादायक दंड की सूचना दे दीजिए।

 

 

सूरए तौबा की पहली आयत अनेकेश्वरवादियों से कहती है कि मुसलमानों के साथ किये गए समझौते निरस्त किये जाते हैं। इसके बाद उनको चार महीनों का समय दिया गया कि वे इस अंतराल में स्वतंत्रता से जहां भी जाना चाहते हैं चले जाएं और समय सीमा समाप्त होने के बाद स्थिति परिवर्तित हो जाएगी।

 

 

यहां पर प्रश्न यह उठता है कि पवित्र क़ुरआन किस प्रकार से यह आदेश देता है कि अनेकेश्वरवादियों के साथ एकपक्षीय रूप में समझौता निरस्त हो जाये ? जैसाकि इस सूरे की सातवीं और आठवीं आयतों में इस ओर संकेत किया गया है कि यह आदेश बिना किसी भूमिका के नहीं है। तत्कालीन स्थिति की समीक्षा से ज्ञात होता है कि अनेकेश्वरवादी इस बात के लिए तैयार हो चुके थे कि मौक़ा मिलने पर मुसलमानों के साथ किये गए समझौतों को वे तोड़ देंगे और मुसलमानों को गहरी क्षति पहुंचाएंगे। वास्तविकता यह है कि इस्लाम वचनों को पूरा करने के प्रति बहुत गंभीर है किंतु यह बात उस समय तक संभव है जब सामने वाला पक्ष भी वचनों को पूरा करने के प्रति कटिबद्ध हो और उन्हें तोड़ने के बारे में न सोचता हो।

बहरहाल इस्लामी समाज से मूर्तिपूजा और अनेकेश्वरवादी विचारों को दूर करना बहुत आवश्यक था। विरक्तता और पिछले समझौतों को समाप्त करने की घोषणा के पश्चात, ईश्वर ने मक्के के अनेकेश्वरवादियों को चार महीने का समय दिया ताकि उनके पास सोच विचार के लिए उचित समय हो। इस समय अवधि में उन्हें कोई निर्णय करना था। अब उन्हें या तो इस्लाम स्वीकार करना था और स्वयं को अनेकेश्वरवाद से मुक्ति दिलानी थी या फिर वे मक्के से निकल जाएं। इसका कारण यह था कि मक्के में रहकर उनके द्वारा ऐसे कार्य करना उचित नहीं था जो इस्लामी समाज के अनुरूप न हों।

 

महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि अनेकेश्वरवादियों के साथ समझौतों को निरस्त करने का आदेश अप्रत्याशित नहीं था बल्कि उनको अवसर दिया गया था और बक़रीद के दिन पवित्र काबे के निकट इस बात की घोषणा की गई थी। यदि इस्लाम नैतिक नियमों के प्रति कटिबद्धता न पाई जाती तो अनेक्शवरवादियों को कदापि इस प्रकार से समय न दिया जाता।

(इस्लाम की दृष्टि में सदकर्म, ईमान रूपी वृक्ष का पवित्र फल है। व्यवहार वास्तव में मनुष्य की नियत का प्रतिबिंबन है। बुरी नियत वाले से कभी भी अच्छे कार्यों की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। मस्जिदें और इस्लामी केन्द्र ही उसी समय अच्छे प्रशिक्षण केन्द्रों में परिवर्तित हो सकते हैं जब उसके संचालक पवित्र नियत वाले हों। वे लोग जो ईश्वर पर प्रलय पर ईमान रखते हैं वे सदकर्म करते हैं और ईश्वर के अतरिक्त किसी अन्य से नहीं डरते।

 

सूरए तौबा की आयत संख्या 36 में आया है कि निश्चित रूप से ईश्वर के निकट, ईश्वर की (सृष्टि की) किताब में महीनों की संख्या बारह है जब से उसने आकाशों और धरती की रचना की है। इनमें से चार महीने (युद्ध के लिए) वर्जित हैं। इस्लाम में वर्जित महीने स्पष्ट हैं जिनमें ज़िलक़ादा, ज़िलहिज और मुहर्रम, आगे पीछे हैं जबकि रजब अलग है। हराम महीनों की पहचान करवाकर ईश्वर ने वास्तव में एक प्रकार से लक्ष्यपूर्ण युद्ध विराम की घोषणा की है।   

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