इस्लामी जगत-21
इस्लामी जगत में रूढ़ीवाद के दो विदेशी और आंतरिक कारणों के बारे में बताया था।
बुद्धिजीवियों और धर्म गुरूओं के विचारों, इस्लामी देशों के ऐतिहासिक अनुभवों के आधार पर यह बात सामने आई है कि इस्लामी जगत में विदेशी रूढ़ीवाद के विचारों के प्रचलित होने और विदेशी हस्तक्षेप का मुख्य कारण नेश्नलिज़्म और अत्याचारी शासन रहे हैं।
हम इस विषय की समीक्षा करेंगे कि तकफ़ीरी विचारधारा के अस्तित्व में आने में किन आंतरिक व विदेशी तत्वों का हाथ है। हमारी समीक्षा से पता चलता है कि इस्लामी जगत में आर्थिक और सांस्कृतिक निर्धनता तथा इस्लामी देशों के शासकों की अयोग्यता और अज्ञानता, इस्लामी जगत के विरुद्ध विदेशियों के षड्यंत्रों का मुख्य कारण है और दूसरी ओर इस्लामी जगत को विषम व दयनीय आर्थिक, सुरक्षा और अंतर्राष्ट्रीय स्थिति से किस प्रकार बचाया जाए।
तालेबान का नाम वर्ष 1994 में पहली बार एक सामरिक, राजनैतिक, वैचारिक और आस्था से जुड़े एक नये गुट के रूप में पहली बार सुना गया जो अफ़ग़ानिस्तान की झड़पों और उससे संबंधित मामलों की रिपोर्टों में सामने आया था। उस समय इस गुट ने संगे हेसार, स्पेन बोल्दक, क़ंधार और जलालाबाद जैसे दक्षिणी और पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान के क्षेत्रों पर नियंत्रण कर लिया था। उसके बाद वर्ष 1995 में यह गुट तेज़ी से प्रगति करता हुआ हेरात सहित अन्य क्षेत्रों पर नियंत्रण करते हुए काबुल पहुंच गया और काबुल का परिवेष्टन कर लिया। रब्बानी सरकार के रक्षामंत्री अहमद शाह मसऊद इस गुट को लगभग एक वर्ष तक काबुल के आसपास रोके रहे किन्तु उसके बाद तालेबान ने काबुल पर नियंत्रण कर लिया और उसके बाद मज़ार शरीफ़ सहित देश के अन्य उत्तरी क्षेत्रों पर नियंत्रण के लिए आगे बढ़ गया। वे पाकिस्तान से आए धार्मिक छात्रों की सहायता से देश के अधिकतर क्षेत्रों पर नियंत्रण प्राप्त करने और सत्ता पर क़ब्ज़ा करने में सफल हो गये। पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब इमारत उन पहले देशों में थे जिन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में तालेबान की सरकार को क़ानूनी मान्यता दी और क़ानूनी तौर पर स्वीकार किया। बहुत से टीकाकारों ने इस गुट को उस समय अधिक गंभीरता से नहीं लिया किन्तु समय बीतने के साथ ही यह स्पष्ट हो गया है कि तालेबान एक ख़तरनाक राजनैतिक, वैचारिक और आस्था से संपन्न एक गुट है जो इस्लामी जगत की जड़ें काट रहा है। इस गुट ने पिछले दो दशकों के दौरान विभिन्न गुटों और रूप में मुसलमानों के मध्य द्वेष के बीज बोए और दुश्मनी की आग भड़काई और पूरी दुनिया में मुसलमानों की हैसियत और प्रतिष्ठा को बट्टा लगाया।
अफ़ग़ानिस्तान में तालेबान गुट के अस्तित्व और इस देश में तालेबानवाद के अस्तित्व में आने के लिए दो विदेशी और आंतरिक कारक निहित हैं। बताया जाता है कि इसका मुख्य कारण इस्लामी जगत में मतभेद और बिखराव तथा इस्लामी देशों में पिछड़ेपन की वजह से अत्याचार और विदेशी हस्तक्षेप रहा है। अफ़ग़ानिस्तान में अशांति की स्थापना में विदेशी हस्तक्षेप और अत्याचार, तथा तालेबान जैसे धार्मिक चरमपंथ और वैचारिक पथभ्रष्टता के विचार के फैलने के रूप में अराजकता, सांस्कृतिक व आर्थिक पिछड़ापन, एक सिक्के के दो रुख़ हैं। वर्ष 1973 में जब दाऊद ख़ान ने विद्रोह के माध्यम से ज़ाहिर ख़ान की सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया था उसके पांच साल बाद पिपल्ज़ डेमोक्रेटिक आफ़ अफ़ग़ानिस्तान पार्टी के हाथ एक अन्य विद्रोह हुआ जिसने उनकी सत्ता को समाप्त कर ही दी, उनकी जान भी ले ली। इस विद्रोह ने अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ के हस्तक्षेप की भूमिका प्रशस्त कर दी। इस दौरान पिपल्ज़ डेमोक्रेटिक आफ़ अफ़ग़ानिस्तान और सोवियत संघ के मध्य अच्दे संबंधों के कारण सोवियत संघ ने वर्ष 1979 में तत्कालीन सरकार के समर्थन के लिए जो गिरने वाली थी, अपने सैनिक भेज दिए। सोवियत संघ ने आधिकारिक रूप से 24 दिसंबर 1979 को अपनी सैन्य उपस्थिति स्वीकार की और उसने कई तरफ़ से अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया और वह युद्ध आरंभ हुआ जो सोवियत वियतनाम के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
इन परिस्थितियों में सोवियत संघ की सेना से मुक़ाबले के लिए मुजाहेदीन नामक गुट का गठन किया गया और देश के हर क्षेत्र में सोवियत संघ की लाल सेना पर मुजाहेदीन ने हमले किए। अमरीका ने जो सोवियत संघ के इस हस्तक्षेप से प्रसन्न नहीं था, मुजाहेदीन की सैन्य सहायता आरंभ किया। इसी दौरान अमरीका की गुप्तचर संस्था के समर्थन से ओसामा बिन लादेन सऊदी अरब से अफ़ग़ानिस्तान पहुंचा और उसने सोवियत संघ के विरुद्ध कार्यवाही आरंभ की। एक ओर सोवियत संघ द्वारा अफ़ग़ानिस्तान के अतिग्रणह और इस देश के आंतरिक मामलों में अमरीका द्वारा हस्तक्षेप और दूसरी ओर अफ़ग़ानिस्तान के जेहादी नेताओं और अफ़ग़ान गुटों की एक सरकार बनाने में अक्षमता के कारण और इसके परिणाम स्वरूप देश के भीतर अराजकता फैल गयी और देश के भीतर पाये जाने वाले जातीय मतभेद ने इस आग में घी का काम किया जिसके कारण इस्लामी जगत में एक ख़तरनाक गुट अस्तित्व में आ गया क्योंकि 15 फ़रवरी 1989 में अफ़ग़ानिस्तान से सोवियत संघ के सैनिकों के निकलने के बावजूद, नजीबुल्लाह कुछ समय तक कम्युनिस्ट और सोवियत संघ के समर्थन से काबुल में सरकार बचाए रहने में सफल रहे किन्तु उनकी सरकार के गिरने के बाद मुजाहेदीन में भीषण मतभेद पैदा हो गये और यह मतभेद अफ़ग़ानिस्तान में गृह युद्ध के लिए एक चिंगारी की तरह था। यह मतभेद और अराजकता, एक मुस्लिम देश में एक विदेशी हस्तक्षेप और मुसलमानों के मध्य धार्मिक और जातीय मतभेदों के जगज़ाहिर होने का परिणाम थी और यह चरमपंथी गुटों के अस्तित्व में आने की भूमिका सिद्ध हुई।
एक ओर वर्ष 1979 से 1989 तक के वर्षों में सोवियत संघ की सेना से अफ़ग़ान मुजाहेदीन के व्यापक युद्ध के दौरान तथा दूसरी ओर जेहादी गुटों के मध्य भीतरी मतभेद, अशांति और झड़पों के बढ़ने से अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था धराशायी हो गयी और देश को निर्धनता ने अपने पंजों में जकड़ लिया। इस निर्धनता का जारी रहना, तालेबान के अस्तित्व में आने में महत्वपूर्ण कारक रहा है। यहां पर यह बिन्दु पर ध्यान योग्य है कि तालेबान में अधिकतर लड़ाकों का संबंध इस देश निचले वर्ग और समाज के निर्धन वर्ग से है विशेषकर तालेबान में अधिकतर पख्तून हैं कि सोवियत संघ के सैनिकों के निकलने और जेहादी युद्ध की समाप्ति के बाद के वर्षों में पाकिस्तान के मदरसों में शिक्षा प्राप्त करते रहे थे, मरदसे के धर्मगुरुओं की ओर से पढ़ाई के दौरान होने वाली छोटी सी आर्थिक सहायता, उनको निर्धनता से दूर कर देती थी । एक ओर यह आर्थिक संकट और सांस्कृतिक निर्धनता और धार्मिक परंपराओं और मदरसों में ज्ञान प्राप्त करने के रुझहान वह महत्वपूर्ण कारण जिसने क्षेत्र की सरकारों को एक धार्मिक व सैन्य शक्ति के रूप में तालेबान को सुव्यवस्थित करने के लिए प्रयोग कर सकें।
जैसा कि बताया गया कि एक बहुत ही द्वेषपूर्ण धार्मिक आंदोलन के रूप में तालेबान, अफ़ग़ान मुसलमानों के मध्य मतभेद पैदा करने और मुस्लिम देशों के मध्य प्रतिस्पर्धार और द्वेष फैलाने में अग्रणी रहा है जिसके कारण सांप्रदायिक झड़पें हुई और बहुत से मुसलमानों का जनसंहार हुआ। उन्होंने मदरसों में शिक्षा प्राप्ति के दौरान जो सीखा उसके आधार पर अफ़ग़ानिस्तान में धार्मिक व्यवस्था की स्थापना के लिए सशस्त्र कार्यवाही करना एक धार्मिक दायित्व है और इस प्रकार की कार्यवाही करने वाले का स्थान ईश्वर के मार्ग में जेहाद करने वाले से भी अधिक होता है। उनको यह भी सिखाया जाता है कि शीया मुसलमान, अधर्मी हैं और उनका इस्लाम से कोई नाता नहीं है, यही कारण है कि वह अपने अलावा किसी को भी मुसलमान नहीं समझते और मुस्लिम भाई की हत्या को धार्मिक दायित्व समझते हैं। अलबत्ता इस प्रकार की विचारधारा के अस्तित्व में आने में कुछ इस्लामी देशों के अत्याचारी आदेशों व नियमों की अनदेखी नहीं की जा सकती। यह बात स्पष्ट है कि सऊदी अरब के अधिकारी पूरी दुनिया की मस्जिदों और मदरसों की राबेततुल आलमुल इस्लामिया नामक संस्था के माध्यम से दो वार्षिक सहायता करते हैं इसकी तकफ़ीरी आतंकवादी गुट के गठन में प्रत्यक्ष भूमिका है। निसंदेह सऊदी अरब और क्षेत्र के कुछ देशों की ओर से दी गयी इस प्रकार की सहायताएं इस्लामी जगत में रूढ़ीवाद और तालेबानवाद मज़बूत होने में मुख्य भूमिका रही हैं।
तालेबानवाद के गठन में विदेशी तत्वों का प्रभाव केवल सोवियत संघ के सैन्य हस्तक्षेप और अमरीका या कुछ इस्लामी देशों द्वारा अफ़ग़ान मुजाहेदीन का समर्थन ही नहीं रहा है बल्कि पश्चिमी देशों विशेषकर अमरीका ने अफ़ग़ानिस्तान में तालेबान को सत्ता में पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अमरीका यह चाहता था कि अफ़ग़ानिस्तान में तालेबान के सत्ता में पहुंचने से अमरीका की तेल कंपनियों के हित भी पूरे होंगे और अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया में ईरान और ईरानियों के प्रभाव को नुक़सा पहुंचाए। दूसरे शब्दों में अमरीकियों ने तालेबान का समर्थन करके, साम्राज्यवाद और अत्याचार विरोधी नीतियों पर आधारित इस्लामी क्रांति के दृष्टिकोण के मुक़ाबले में जो इस्लाम की दयालु और कृपालु छवि के रूप में पेश करती है, इस्लाम की हिंसक, अतार्किक और अत्याचारी छवि पेश करने का प्रयास किया। अमरीका द्वारा तालेबान के समर्थन का मुख्य कारण यह था कि इस्लामी क्रांति के लिए जो धार्मिक लोकतंत्र के माध्यम से इस्लामी समाज में लोकतंत्र के विस्तार और इस्लामी जगत में शीया और सुन्नी मतभेद को नकारने और मुसलमानों की एकता का ध्वजवाहक है, चुनौतियां खड़ी कर सकें ताकि धार्मिक और जातीय मतभेदों को हवा दे सकें। उल्लेखनीय है कि आतंकवाद से संघर्ष के बहाने, अफ़ग़ानिस्तान पर अमरीका का हमला और ग्यारह सितंबर की घटना के बाद तालेबान को सत्ता से हटाने का प्रयास, इस गुट के गठन में अमरीका की अनदेखी करने के अर्थ में नहीं है।