हम और पर्यावरण-36
पिछले कुछ दशकों के दौरान कुछ बड़ी त्रासदियों ने पर्यावरण को काफ़ी नुक़सान पहुंचाया है।
इन त्रासदियों का प्रभाव इतना व्यापक था कि विश्व में जारी गतिविधियों की समीक्षा की ज़रूरत महसूस की गई। इन्हीं में से एक घटना भारत में 1980 के दशक में घटी। 3 दिसम्बर 1984 को भारत के भोपाल शहर में स्थित अमरीकी कंपनी यूनियन कार्बाइड की फ़ैक्टरी में गैस दुर्घटना हुई। इस दुर्घटना में मिथाइल आइसोसाइनाइट (मिक) नामक ज़हरीली गैस का रिसाव हुआ था। इसमें लगभग 4,000 से अधिक लोगों की जानें गईं और बड़ी संख्या में लोग अनेक तरह की शारीरिक अपंगता से लेकर अंधेपन के भी शिकार हो गए। इस दुर्घटना में प्रभावित होने वालों की संख्या 2 से 3 लाख बताई गयी है। मिथाइल आइसोसाइनाइट का इस्तेमाल कीटनाशक बनाने के लिए किया जाता है। यह पदार्थ सीधे रूप से इंसान के नर्वस सिस्टम को प्रभावित करता है।
यूनियम कार्बाइड द्वारा की गई जांच से पता चला कि गैस का रिसाव मिथाइल आइसोसाइनाइट के टैंक में अधिक मात्रा में पानी पहुंचने से रासायनिक प्रतिक्रिया हुई, जिसके तुरंत बाद इस विषैली गैस का रिसाव वातावरण मे हो गया। इस दुर्घटना के बाद, विश्व की बड़ी औद्योगिक कंपनियों के ख़िलाफ़ लोगों का ग़ुस्सा भड़क उठा और लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ का व्यापक पैमाने पर विरोध शुरू हो गया। वर्यावरण समर्थक, मानवाधिकार संगठन, चिकित्सक और आम लोग इसका कड़ा विरोध कर रहे थे। हालांकि यूनियन कार्बाइड ने प्रभावितों को मुआवज़ा दिया, लेकिन पर्यावरण पर पड़ने वाला उसका प्रभाव, आज तक देखा जा सकता है। इस दुर्घटना की बरसी पर हर साल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शनों का आयोजन किया जाता है।
बीसवीं शताब्दी की एक अन्य महत्वपूर्ण दुर्घटना यूक्रेन स्थित चेर्नोबिल परमाणु ऊर्जा संयंत्र में हुई दुर्घटना है, जिसने पर्यावरण और इंसानों को काफ़ी नुक़सान पहुंचाया है। इस दुर्घटना ने परमाणु ऊर्जा के बारे में लोगों के विचारों को नया मोड़ दिया। इस दुखदायक दुर्घटना का संदेश यह था कि आर्थिक विकास के लिए इंसानी जानों और प्रकृति की बलि नहीं चढ़ाई जानी चाहिए। आइए देखते है कि यह कैसी आपदा थी और हुआ क्या था?
26 अप्रैल 1986 को युक्रेन के चेर्नोबिल परमाणु ऊर्जा संयंत्र में एक प्रणाली के परीक्षण के दौरान यह वर्घतना चेर्नोबिल परमाणु संयंत्र, के चौथे हिस्से से शुरु हुई। वहां अचानक विद्युत उत्पादन में वृद्धि हो गई थी और जब उसे आपातकालीन स्थिति के कारण बंद करने की कोशिश की गई तो उल्टे विद्युत के उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि हो गई। इससे एक संयंत्र टूट गया और अनियंत्रित नाभकीय विस्फोट श्रृंखला शुरु हो गई। धुएं के बादलों, तेज़ हवा और आग के साथ रेडियोधर्मी पदार्थ तेज़ी से बेलारूस, यूक्रेन और रूस के इलाक़ों में फैल गए। इसका असर यूरोप और जापान तक पहुंचा। इसमें भारी संख्या में जान माल की क्षति हुई और ग्रीन पीस संगठन के अनुसार, लगभग 32,000 लोगों की जान चली गई। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़, इससे क़रीब 50 लाख लोगों का स्वास्थ्य प्रभावित हुआ। प्रभावित इलाक़ों में कैंसर बहुत तेज़ी से फैलने लगा।
दुर्घटना के बाद, 4 किलोमीटर के इलाक़े का जंगल, लाल रंग का होकर नष्ट हो गया। जंगल के दूर दूर तक इलाक़े में मौजूद जानवर नष्ट हो गए या उनका प्रजनन बंद हो गया। उस इलाक़े में मौजूद गाय मर गईं या थाइरोइडके से प्रभावित होकर उनकी आयु कम हो गई। इसी प्रकार इस इलाक़े में वनस्पतियों और जानवरों में जेनेटिक बदलाव देखने में आया। पत्तों का रूप बदल गया और अपंग जानवरों का जन्म होने लगा।
चेर्नोबेल परमाणु संयंत्र, प्रीपात नदी के किनारे स्थित है। उस समय इस नदी से कीव शहर के लगभग 20 लाख लोगों के लिए पानी की आपूर्ति होती थी। इस दुर्घटना से इस नदी का पानी प्रदूषित हो गया और मजबूरन कीव शहर के लिए पानी की आपूर्ति दसना नदी से की गई। शोध से पता चलता है कि पानी के प्रदूषित होने के कारण, इस इलाक़े की मछलियां और अन्य जानवर ख़तरनाक पदार्थों के कारण सीज़ियम हो गए थे। यह प्रदूषण काफ़ी स्थिर था, इसलिए कि 2010 में शिकार कए गए 400 सूअरों पर की गई जांच से पता चला कि उनमें रेडियो एक्टिव का स्तर सामान्य से अधिक है। हालांकि अब चर्नोबिल दुर्घटना का प्रभाव कम हो रहा है, लेकिन विशेषज्ञों का अंदाज़ा है कि अगले 100 वर्षों तक भी इसका असर बाक़ी रहेगा।
अंतिम दशकों में पर्यावरण को गंभीर नुक़सान पहुंचाने वाली एक दुर्घटना, समुद्रों और महासागरों में तेल का रिसाव है। प्रतिवर्ष समुद्र में तेल के लीक होने की 14000 दुर्घटनाएं होती हैं। सामान्य रूप से उनका दायरा छोटा होता है और उसका प्रभाव जल्दी ख़त्म हो जाता है, लेकिन कुछ दुर्घटनाएं बहुत ख़तरनाक होती हैं। 1989 में अलास्का में प्रिंस विलियम स्ट्रेट में एक्सन वाल्ड्ज़ टैंकर से 4 करोड़ 20 लाख लीटर तेल लीक हुआ। 1993 में स्कॉटलैंड में बर्डफ़ील्ड शटलैंड द्वीपों के निकट, 9 करोड़ 80 लाख कच्चा तेल समुद्र में गिर गया। हालांकि मैक्सिकन खाड़ी में तेल लीक होने की दुर्घटना पर्यावरण के लिए सबसे ख़तरनाक दुर्घटनाओं में से एक है। 20 अप्रैल 2010 में बीपी कंपनी के डीप वॉटर हरायज़न प्लेटफ़ार्म में विस्फ़ोट के बाद आग लग गई, जिसके कारण 11 कर्मचारियों की मौत हो गई और 40 लाख बैरल तेल मैक्सिकन खाड़ी में गिर गया, यह अब तक की सबसे अधिक मात्रा मानी जाती है। मैक्सिकन खाड़ी में 300 वर्ग किलोमीटर से अधिक के इलाक़े में पानी पर प्रदूषण फैल गया, जिसने जानवरों की विभिन्न प्रजातियों के जीवन को ख़तरे में डाल दिया।
अध्ययनों से पता चलता है कि खुले हुए घाव, पारजैविक संक्रमण और काले रहस्यपूर्ण धब्बे ऐसी निशानियां हैं, जो मैक्सिकन खाड़ी में तेल लीक होने की दुर्घटना के कई वर्ष बाद भी इस इलाक़े में देखने में आई हैं। गहरे पानी में मूंगे, समुद्री सिवार, डोल्फ़िन, मांगरोव और अन्य विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां और जानवरों की प्रजातियों को नुक़सान पहुंचा है। हालांकि इस दुर्घटना के लिए ज़िम्मेदार बीपी और हेल्बिट्रोन कंपनियों ने प्रभावित होने वाले मछुआरों और उनकी कंपनियों को एक अरब और 10 करोड़ डॉलर का मुआवज़ा अदा किया, लेकिन क्या इस प्रकार पर्यावरण को होने वाले नुक़सान की भरपाई की जा सकती है?
पर्यावरण को नुक़सान पहुंचाने वाली एक अन्य दुर्घटना अरल झील का नष्ट होना है। यह झील लापरवाही की वजह से नष्ट हो गई। यह झील उत्तरी ईरान में क़ज़ाख़िस्तान और उज़्बेकिस्तान के बीच स्थित थी। यह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी झील थी, इसीलिए इसे अरल सागर भी कहा जाता है। 1960 के दशक में सोवियत संघ ने आमू और सीर नदियों के पानी के मार्ग को मोड़ने का फ़ैसला किया और नहर खोदकर उनके पानी को अरल झील के बजाए तुर्कमनिस्तान और उज़्बेकिस्तान के सूखे इलाक़ों की ओर मोड़ दिया। इस पानी से खेतों की सिंचाई की गई। शुरू में यह योजना सफल होती नज़र आई, इसलिए कि 1988 में उज़्बेकिस्तान सबसे अधिक कपास निर्यात करने वाला देश बन गया और यह काफ़ी बड़ा गौरव था। लेकिन प्रकृति में हस्तक्षेप का नतीजा भी सामने आने लगा।
1961 से 1970 के बीच अरल सागर के पानी की सतह प्रतिवर्ष 20 सेंटीमीटर कम होने लगी। इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। 70 की दहाई में यह बढ़कर तीन गुना हो गई और 80 के दशक में यह प्रक्रिया जारी रही, जो प्रतिवर्ष बढ़कर 80 से 90 सेंटीमीटर हो गई। 1991 में सोवियत संघ का पतन हो गया और उज़्बेकिस्तान आज़ाद हो गया। लेकिन पानी की नीति में कोई बदलाव नहीं हुआ। पानी की सतह में लगातार कमी होती गई, जिसके कारण बहुत सी मछलियां नष्ट हो गईं, परिणाम स्वरूप इलाक़े में मछली का उद्योग बंद हो गया और लोग वहां से पलायन के लिए मजबूर हो गए।
विश्व के प्रमुख शोधकर्ता, लिस्टर ब्राउन ने 1991 में इस इलाक़े का दौरा किया और इस संदर्भ में लिखा, विमान से देखने पर सागर चांद का दृश्य पेश करता है। वहां न कोई जानवर नज़र आता है और न ही कोई वनस्पति। यहां तक कि सागर के बचे हुए दलदलीय हिस्से में कभी कभी पेलिकन या जंगली बत्तख़ की भांति कोई परिंदा दिखाई दे जाता है। विमान के अंदर से ज़मीन की सतह पर नष्ट होते हुए इकोसिस्टम को देखा जा सकता है। झील के किनारे बसे गांव जो किसी ज़माने में मछली के शिकार का केन्द्र थे, उजड़ गए हैं और निरंतर घटते हुए पानी से कई किलोमीटर दूर हो गए हैं। पश्चिमी अमरीका के उन खानों वाले क़स्बों की भांति हो गए हैं जो भूतों के शहर लगते हैं। यह उजड़े हुए गांव नष्ट होती हुई अर्थव्यवस्था का नज़ारा पेश करते हैं। अरल सागर वास्तविक अर्थ में हमारी निगाहों के सामने भाप बनकर नष्ट हो रहा है।
इस विनाश को विश्व भर की मीडिया ने काफ़ी कवरेज दिया। लंदन से प्रकाशित होने वाले डेलिटेलिग्राफ़ ने इसे धरती की एक सबसे ख़तरनाक पर्यावरण दुर्घटना बताया। लेकिन यहां सवाल यह होता है कि क्या इस प्रकार की दुर्घटनाओं से हमारी आंखें खुल गई हैं? दुर्भाग्यवश आज भी इंसान तबाही के मार्ग पर उसी तरह से आगे बढ़ रहा है।